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गणतान्त्रिक नेपाल और आन्तरिक तनावतान्त्रिक मधेश का खामियाजा कौन वहन करेगा ? : कैलाश महतो

कैलाश महतो, परासी । घरायसी कुछ प्रयोजन से कल्ह भारतीय सीमा बाजार ठुठीबारी जाना हुआ था । एक दुकान के बाहर बैठे थे । वहाँ एक मधेशी युवा पहुँचे । हमने उन्हें पहचाना नहीं । नमस्कार करते हुए उसने कहा, “क्या है सर, आपको पता है कि उपचुनाव में बारा में जिसने जीता है, उसके खुशी में परासी के यादव लोग खसी काटकर भोज मनाये हैं ? यादववाद से मधेश का भलाई हो पायेगा ?” बात गम्भीर है । वो युवा आक्रोशित और चिन्तित दिख रहा था । दुकानदार भी सुन रहे थे । हम अवाक्क रहे । क्या बोलते ? मगर उसने बात जो हमें सुनाया, उसका एक अनोखा प्रयोजन था ।
चैत्र के मध्य में जनकपुर के एक धर्मशाला में एक राजनीतिक युवा ने एक कार्यक्रम में बुलाया । जब हम पहुँचे तो वहाँ पर नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी के एक चर्चित नेता और पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष कमरेड ऋषि कट्टेल अपने शीर्ष नेताओं के साथ मेरे प्रतिक्षा में दिखे । मधेशीजन भी सहभागी थे । जान पहचान के बाद जब राजनीतिक मुद्दों की बात चली, तो उन्होंने मधेश की समस्या उनके कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा ही संभव होने की बात कही । समाजवादी राह से ही मधेश और देश की सारी समस्याएँ खत्म होने की जब उन्होंने जोड दिया, तो हम उनके तर्क से असहमत हुए ।
हमारा तर्क रहा कि मधेश को अभी किसी “वाद (isms)” में उलझने से महत्वपूर्ण बात यह है कि वह पहले अपना जमीनी अस्तित्व को बचाये । ” वाद (isms)” प्रयोग से पहले मधेश की जमीन को सुरक्षा चाहिए । मधेशियत को बरकरार रखने की जुगाड और प्रणाली चाहिए । मधेश ही नहीं, तो फिर किसी “वाद” का क्या जरुरत है ? कहाँ पर “समाजवाद” या “साम्यवाद” को रखेंगे ? भूमि और अस्तित्व रहेगा, तो अपने उसके आवश्यकतानुसार का “वाद” हम खोज लेंगे/स्वीकार लेंगे ।”
मधेश की भूमि द्रूत अतिक्रमण के शिकार होता जा रहा है । मधेश की भाषा, संस्कार, संस्कृति और परम्परायें लुप्त होते  जा रहे हैं, और सबसे पहले हमें उसके रक्षा लिए विचार करना होगा । मधेश के लिए समाजवाद, साम्यवाद, उदारवाद या पूँजीवाद से पहले मधेशवाद, अस्तित्ववाद, पहचानवाद और राज्य में “समानुपातिक प्रतिनिधित्ववाद” की आवश्यकता पर संघर्ष होनी चाहिए । हमने कहा कि हमारी जमीन रहेगी, तो ही उस पर हम कोई भी “वाद” निर्माण कर सकते हैं । आवश्यकता के अनुसार हम उसपर महल बना सकते हैं, या तलाव खुदा सकते हैं । यह केवल मधेश के लिए ही नहीं, सारे जाति, जनजाति, हिमाल और पहाड के साथ पूरे नेपाल के लिए भी आवश्यक है ।
“समाजवाद” और “साम्यवाद” से ही मधेश का राज्य में सम्मान और समानुपातिक प्रतिनिधित्व होता, तो मधेशियों का अपमान और दमन आजतक कायम कैसे रहता ? मधेश ने पृथ्वीनारायण शाह से आजके प्रचण्ड कालीन शासन व्यवस्था को झेला है । सबके सब मधेश के दुश्मन सावित हुए – उन्हीं समाजवादी और साम्यवादी नारों के आड में ।
एक बडी रोचक बात बारा के उपचुनाव में सुनने को मिला था – संयोग से “जनमत” और “जसपा” दोनों के कार्यकर्ताओं से । वह यह कि जसपा के नेता कार्यकर्ता ही भगवान् से प्रार्थना कर रहे थे कि उपेन्द्र जी चुनाव हार जाये । वे दिनरात जसपा के चुनावी प्रचार प्रसार में दौड रहे थे, मगर मना रहे थे कि जसपा की हार हो जाये । वही हाल जनमत के कार्यकर्ताओं में देखा गया । कुछ नेता कार्यकर्ता तो हमारे सामने ही कह रहे थे कि सीके राउत मधेश के लिए धोखा है । वे सारे काम तानाशाही रुप में करते हैं । शिवचन्द्र जी को टिकट देने से पहले किसी से कुछ मसवीरातक नहीं लिये और उसमें भी अहंकारी बात करते हैं । वे लोग अन्य पार्टियों में मत देने की बात कर रहे थे ।
समग्र में कहा जाय तो मधेशी नेतृत्‍वों से सम्बन्धित पार्टियों के अधिकांश नेता और कार्यकर्ता ही सन्तुष्ट नहीं दिख रहे हैं । वे विश्वस्त विकल्प के तलाश में हैं । अगर कोई विकल्पयुक्त आन्दोलन मधेश में छिड जाय, तो मधेश आन्दोलन घमाशान होने का आसार मजबूत है । क्योंकि गैर मधेशी पार्टियों से भी मधेश खीज खा रहा है और मधेशी पार्टियाँ और उसके नेतृत्वों पर मधेशीजन का अब कोई भरोसा ही नहीं है । उसमें मधेश में थप आन्तरिक द्वन्द, गाली गलौज, खिचातानी और जातीय कलहों से गणतान्त्रिक नेपाल को भी गणतान्त्रिक होने में दिक्कत हो रही है । इस अवस्था में गैरलोकतान्त्रिक नेपाली गणतन्त्र और आन्तरिक तनावतान्त्रिक मधेश का खामियाजा का सारा बेतुके बोझ मधेश को उठाना निश्चित है ।
जहाँ तक बारा २ के उपचुनाव में जसपा अध्यक्ष उपेन्द्र यादव जी की जीत की बात है, वह भी डा.सीके राउत के सप्तरी के एक्सीडेण्टल जीत के तरह ही एक्सीडेणटल जीत है । ग्राउण्ड रियलिटी यह रहा है कि उनके जीत में सबसे बड़ी भूमिका डा.राउत का उपेन्द्र जी के लिए “फिरङ्गी”, ” बाहिरया” और “जंगलराज” जैसे शब्द प्रयोग रहे । दूसरा, डा. राउत द्वारा किसी जात विरोधी शब्द चयन और उदण्डताभरी आक्रोश भाव भंगिमा और अपने जो साफ सुथरा होने का बेबुनियाद दावा रहा । तीसरा, उपेन्द्र जी के पक्ष में सीके जी के काउण्टर में रहे कुछ सामाजिक संजाल और पर्दाफाशीय अवस्था ।
किसी जात विशेष पर हुए शब्दाक्रमण ने यादवों में स्वाभाविक रुप से जातीय एकता कायम करने का माहोल बना दिया । हर पार्टी और संगठन के यादव लोग एक हो गये । ज्यादा नहीं तो कुछ न कुछ राजनीतिक गठबन्धन ने भी काम किया । मगर जनमत के पक्ष में जो मत आए, वह भी कहीं न कहीं गोप्य अन्तिम गठबन्धन का ही परिणाम रहा है । उसे भी अन्ततः एमाले और आजपा ने सहयोग किया था । मगर उपेन्द्र जी का वह जीत भी पराजय से कम‌ नहीं है ।
जब चुनाव ही जातीय एकता पर जीता गया तो स्वाभाविक रुप से जातीय भोज बनता है । डा.राउत ने जातिवाद का डंका पीटा और उसका लाभ उपेन्द्र जी को मिला । मगर जातीय चुनाव इसी निर्वाचन प्रणाली में भविष्य के लिए लाभदायक नहीं रहने का प्रमाणित है । कुछ मधेशी नेताओं के कारण मधेश जात जात में इस तरह बिखड रहा है, जिसका सारा लाभ राज्य और शासक उठायेगा । तब न तो यादव, न मुसलमान / न गैर यादव, न थारु मधेश में राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक अस्तित्व बचा पायेगा ।
देश तकरीबन २५४ सालों से जब जातीय, पारिवारिक और नश्लीय रुप से ही चलता आ रहा है, तो इसके राजनीति में जातीय रुप में ही हर जात, जाति और वर्ग तथा समुदाय का राजनीतिक प्रतिनिधित्व करवाया जाना सापेक्षिक हल हो सकता है । जात और वर्ग के अनुपात में ही राज्य में उनकी पहुँच होने/करवाने के प्रणाली को चयन करना ही उपयुक्त होगा । वह जातीय राज्य नहीं, जातीय प्रतिनिधित्व होगा, जिससे हर जात और समुदाय को अपने अपने जनसंख्या के आधार पर राज्य, राजनीति, सरकार, शासन और प्रशासन में समानुपातिक पहुँच और प्रतिनिधित्व कायम होगा । सारे जात जाति और समुदाय के लोगों का विकास और समृद्धि का रास्ता उसके अपने जातीय नेता के माध्यम‌ से संंभव होगा ।
उदाहरण : इतने बडे यादव जनसंख्या के लोग उपेन्द्र जी के उदय से पहले राजनीति में लगभग गौन थे । डा. सीके राउत के उदय से पहले मण्डल (राजधोव और धोव) जाति के लोग राजनीति से लगभग बिना सरोकार के थे । राजेन्द्र महतो के उदय से पहले वैश्य (तेली, सुडी, बनिया, आदि) राजनीति से दूर थे । मगर आज उनके समुदायों में राजनीतिक चेतना ने छलाङ्ग लगायी है । इससे यह प्रमाणित होता है कि राजनीति में राज्य के द्वारा ही अब हर जात और समुदाय के लोगों को उसके जनसंख्या के अनुपात में उसे राजनीति और आर्थिक कृयाकलापों में समानुपातिक प्रतिनिधित्व करवाना चाहिए । इससे ही सारा झगडा, शोषण, दमन और जात पात का अन्त संभव और समानुपातिक विकास और अवसरों का इजाफा हो सकता है ।

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