देश सीमाओं में बन्धा हुआ भौतिक धरातल है, तो राष्ट्र भावनाओं से ओतप्रोत एक संरचना : कैलाश महतो
कैलाश महतो,परासी | समान्य रुप में भले ही देश और राष्ट्र को लोग पर्यायवाची मानते हों, मौलिक रुप में ये दोनों एक नहीं है । मगर एक के बिना दूसरे का होना संभव भी नहीं है । एक ठोस है तो दूसरा तरंग । एक दिमाग में होता है तो दसूरा आत्मा में । एक धरातल है तो दूसरा शितल वृक्ष और मीठा उसका फल । एक भौतिक आधार है तो दूसरा भावनात्मक सोंच । एक सीमा में बन्धा हुआ प्रकृति है तो दूसरा कल्पना और भावना में बहता हुआ प्रकृति । देश वस्तुपरक होता है, और राष्ट्र आत्मपरक । देश सीमाओं में बन्धा हुआ भौतिक धरातल है, तो राष्ट्र भावनाओं से ओतप्रोत एक संरचना, जिसकी कोई सीमा नहीं होती । देश की उन्नत व्यवहार ही जनता का राष्ट्र बन जाता है ।
देश जनता द्वारा निर्माण होती है । उसकी स्वीकृति से वह निर्माण होती है । जनता के मर्जी बिना की देश स्थायी नहीं होती । अगर ऐसा होता तो सारा दुनियाँ सिकन्दर का, एलेक्ज्याण्डर का, मुसोलिनी का, अंग्रेजों का, बिस्मार्क और हिटलर और नेपोलियन का होता । जनस्वीकृत देश जब उन्नत और सर्वप्रिय हो जाता है, सर्व कष्ट निवारक और सबको साथ ले लेता है, तो वह राष्ट्र बन जाता है । देश को राष्ट्र बनाने में वहाँ के शासक और शासन पद्धति की अहम् भूमिकायें होती हंै । हर शासक का यह ध्येय होना चाहिए कि वे अपने देश को राष्ट्र बनायें ।
दुनियाँ के सारे शासक राष्ट्रवाद का एक अफिम खेती करते हैं जो लोगों के दिमागों में डालते रहते हैं जो अजीबोगरीब नशा का काम करता है । वह नशा इतना बेजोड होता है कि हजारों टन अफिमों के नशा से भी भयंकर होती है । नशे में लोग मर जाते हैं और उन्हें पता तक नहीं चलता कि वे मर गयें ।
पहला विश्वयुद्ध में सारे देशों ने अपने जनता के बीच एक काल्पनिक हल्ला फैलाया कि पडोसी देशों के कारण उसके देश खतरे में है । अपने पडोसी या व्यापार प्रतियोगी देशों को अपने देश का खतरा बताया गया । लोगों में देशप्रेम की भावनायें जबरजस्ती डाली गयी । जर्मनी ने बेलायत, फ्रान्स, रुस, जापान, बेल्जियम, पुर्तगाल, यूनान, रुमानिया, सर्विया आदि को अपना खतरा बताया । बेलायत और फ्रान्स ने जर्मनी, आस्ट्रिया, बुल्गेरिया और तुर्की को अपना शत्रु बनाया । अमेरिका ने अपने जनता को अमेरिकी व्यापार और ब्रिटेन को युद्ध में दिये पैसे डबुने का डर समझाया और युद्ध के तीसरे वर्ष में वह भी बेलायत के पक्ष से युद्ध में सामेल हो गया जबकि बात कुछ और ही थी ।
हकिकत यह है कि पहले या दूसरे विश्वयुद्ध से जनता का कुछ भी लेना देना नहीं था । देशप्रेम की बातें तो एक नाटक थी । उस देशप्रेम के अन्दर तो हर युद्धरत देशों के साहुकार, राजनीतिकर्मी और उद्योगपतियों के धन कमाने की विशुद्ध रणनीतियाँ थी । सारे बडे बडे राजनीतिज्ञ, उद्योगपति और साहुकारों ने हथियार, बम तथा गोला बारुद बनाने की फैक्ट्रियाँ लगा रखी थीं और युद्धरत देशों को बेचकर अकूत सम्पतियाँ कमाना चाहती थीं । उन करोडों यूवाओं तथा उनके परिवारों को उनके व्यापारों से कभी कोई लाभ नहीं मिली जिन्होंने देशप्रेम के नामपर अपनी बलिदानी दे दी । ऐसे सारे युद्ध और विश्वयुद्ध केवल और केवल कुछ अन्तर्राष्ट्रिय उद्योगपतियों, व्यापार में लगानी लगाये राजनेताओं तथा साहुकारों के आपसी आर्थिक द्वन्दें और टकरावों के कारण हुए और आज भी जारी हैं ।
यह तथ्यसिद्ध बात है कि जब कोई देश राष्ट्र का रुप धारण करता है, तो उसकी जनता गर्व महशुश करती है । देश उन्नत हो जाती है या होने की प्रक्रिया शुरु होती है । अधिकांश जनता खुशहाली में होती हंै । सामाजिक, सांस्कृकि और जातीय विभेदों का अन्त होता है । जनता समानता की अनुभव करती हैं । गरीबी मिटने लगती है । रोजगार बढ जाती है और जनता को सम्पन्नता की ओर बढने की अवसर और प्रेरणयें मिलती हैैं ।
जनअस्तित्व से बडा कोई राष्ट्र अस्तित्व नहीं होता । सिग्मण्ड फ्रायड कहते हैं, “मनुष्य ही ब्रम्हाण्ड का केन्द्र है ।” मानव नहीं तो देश नहीं । देश नहीं तो राष्ट्र नहीं । आदमी नहीं तो संसार और भगवान् भी नहीं । यहाँतक कि न तो उसके जन्मदाता, और न उनकी सम्मान की कोई गुंजायस होती है । संसार को होने से पहले, ईश्वर के होने से पहले और जन्मनायक तक के होने से पहले व्यतिm का होना महत्वपूर्ण है । राष्ट्र के होने से पहले जनअस्तित्व की रक्षा होना अनिवार्य है । जिस देश को जनता निर्माण करती है, उसके लिए उसे राष्ट्र बनना पडता है ।
माक्र्स ने कहा है, “गरीबों का कोई देश नहीं होता ।” वह हर स्थान जहाँ उसकी पेट भरती है और जहाँ से उसकी परिवार चलती है, उसका देश बन जाता है । देश का सीमा बदल सकती है । उसकी सीमा की क्षय हो सकती है । मगर राष्ट्र, जो राष्ट्रियता और राष्ट्रिय भावना निर्माण करती है, कभी नहीं मरती । पहले विश्वयुद्ध में फिनल्याण्ड, बेल्जियम, सर्विया और पोल्याण्ड नष्ट हो चुके थे । द्वितीय विश्वयुद्ध में जापान और जर्मनी ध्वस्त हो गये थे । मगर उनकी राष्ट्रियता बाँकी रही जिसने वहाँ के लोगों को फिरसे उन राष्ट्रों को पूनिर्माण करने में सहायता की । गोर्खा साम्राज्य के सन्दर्भ में भी यही बात लागू होती है जिसने मधेश, नेपाल, लिम्बुवान, तमु, नेवा आदि राज्य के सीमाओं को भले ही नेपाल के होने का दावा करती है, मगर वहाँ की राष्ट्रियता आज भी जिन्दा है जो कल्ह राष्ट्र निर्माण में सहयोग कर सकता है । माक्र्सवादी प्रस्तावना में भी जाति को ही राष्ट्र का दर्जा दी जाती है । उसके अनुसार जिस अनुपात में एक राज्य द्वारा दूसरे राज्य के उपर रहे शोषण का अन्त्य होना अनिवार्य है, उसी तरह एक जाति ‐राष्ट्र) का शोषण दूसरे जाति ‐राष्ट्र) से अन्त्य होना जरुरी है ।
अमेरिका, यूरोप और विकसित मूल्कों के लोग जब किसी अन्य देश में जाते हैं, तो वे वहाँ मजदूर बनने नहीं, बल्कि पर्यटक के रुप में, अन्वेषणकर्ता या खोजकर्ता के रुप में, व्यापारी या उद्योगपति के रुप में, अध्ययन या अनुसन्धानकर्ता के रुप में, निर्देशक या अधिकारी के रुप में, या फिर दाता और सहयोगी के रुप में अपने देश के नक्शा सहित होते हैं । उनके दिलो दिमाग में देश का नक्शा, सीमा और प्रकृति के साथ उस का राष्ट्र और राष्ट्रियता भी साथ में ही होते हंै, तो वहीं दूसरी ओर विकसित और औद्योगिक राष्ट्रों में कामदार के रुप में जाने बाले लोगों के साथ भले ही देश के नक्शे हों, मगर उनके पास किसी अपनी राष्ट्रियता या राष्ट्रिय भावना नहीं होती । होती भी तो खोखली । क्योंकि उसके लिए सबसे बडी चीज काम पाना, मजदूरी करना, पैसे कमाने और रोजीरोटी की कल्पना और सपने होते हंै । उके पास आत्म सम्मान नहीं होता, आत्म गौरव नहीं होता । राष्ट्रियता और राष्ट्रिय भावना लोगों में तबतक पैदा नहीं हो सकती जबतक कोई देश और उसके शासन व्यवस्था उसके कष्टों को दूर कर राज्य के प्रति उसे वफादार बनने का माहौल न बना दें । मजदूरों के लिए उसके पेट धर्म से बडा धर्म इस धरती पर और क्या हो सकता है ?
मधेश की सीमायें किसी कालखण्ड में किसी कारण भले ही अस्तव्यस्त हो गयी हों, मगर मधेशी राष्ट्रियता आज भी मधेशियों में उतना ही हिष्टपुष्ट और जीता जागता है । भले ही किसी ने मधेशियत पर धुल रखकर ढकने की कोशिश की हों, मगर मधेश में बह रहे हावाओं की तेज गतियों ने अब उन धुलों को उडाने लगी हंै । मधेशियों में अब मधेश देश की सीमाएँ स्पष्ट होती जा रही हैं । अब मधेश देश की पूनरुत्थान के साथ मधेश राष्ट्र की भावनायें भी मजबूत होती जा रही है ।
