Fri. Mar 29th, 2024
himalini-sahitya

इंतजार करना ही मिलन का उत्कर्ष है : डॉ. रमा

हिमालिनी, अंक जुलाई, 2018 । ‘चाहतों के साये में’ से जब गुजर रही थी  तो एक बात जो सबसे पहले दिमाग में आई  वो ये कि कविता में बात कहने के लिए शब्दों
का अंबार लगाना जरुरी नहीं है । भावनाओं का कैनवास जब बड़ा हो तो शब्द बौने हो जाते हैं । भाषा बस एक अभिव्यक्ति का माध्यम बन
रह जाता है । भावनाएं विजेता साबित हो जाती हैं । कविता हो, गजल, मुक्तक हो या फिर नज्म जब तक दिल को न छुए तो उनकी सार्थकता
सिद्ध नहीं होती । जब मैं बसन्त का यह संग्रह पढ़ रही थी तो लगातार यह महसूस कर रही थी कि इनमें छुपी संवेदना की सार्थकता अपनी
सिद्धि तक पहुँचने में सफल हैं । इस संग्रह में बसन्त चौधरी ने कविता, गजल, गीत और नज्म विधा में अपनी भावाभिव्यक्ति की है । चारो का
केन्द्रीय भाव प्रेम ही है । सहायक भाव प्रकृति,देश, समाज और मनुष्य है ।
खय्याम साहब की भूमिका और खुद बसन्तकी लिखी भूमिका ने किताब के बारे में एकनजरिया प्रस्तुत कर दिया बावजूद उसके भी कुछ
नयां कहने की एक कोशिश करती हूं ।इस दौर में सबसे आसान है प्रेम पर आहलिखना, इश्क पर हाय–हाय लिखना । बसन्तके यहां जो इश्क है, प्रेम है उसमें हाय तौबानहीं है या तो बेचैनी है या समर्पण है । इससमर्पण में घनानन्द वाला भाव है–

‘मोहि तुमएक तुम्हें मो सम अनेक आहे, कहाँ कछू चन्द
को चकोरन की कमी है ।’

यह समर्पण हमारे समय की बिडम्बना है लेयिकन बसन्त चौधरीउस बिडम्बना को यथार्थ तक ले जाते हैं । ‘
मंजिल कविता में कहते हैं–
‘यात्रा तो जीवन की ही है
लेकिन मेरी यात्रा सीमित है
बस तुमसे ही शुरु और
तुम पर ही खत्म’
यानी वही वेदना, वही अकुलाहट जो घनान्दके पास है जहां कोई दूसरा विकल्प नहीं है ।उसके अलावा हम किसी के बारे में सोचते तक
नहीं और क्या फर्क पड़ता है अगर वह निर्मोहीहो जाए, कोई विकल्प चुन ले, तब ? तब भीयह समर्पण कम नहीं होगा । बस बेचैनी और
अकुलाहट बढ़ जाएगी, जैसे घनानन्द की बढ़ है–

राति ना सुहात न सुहात परभात अलि, जब मन
लाग जात काहू निर्मोही से’

बसन्त चौधरी भी घनानन्द की तरह प्रेम पथ के धीर गम्भीर पथिक
है । ‘प्रेम की छाँव’ कविता में वे लिखते हैं–
‘तुम्हें देखने के लिए
ऐसा नहीं कि तुम्हें देखना होगा
जिन्दगी जीने के लिए
ऐसा नहीं कि सांसे लेनी होंगी
प्रेम करने करने के
यह भी नहीं कि,
तुम्हें बांहों में भरना होगा ।
अब तो समझ ही गए होंगे कि मैं अगर
बसन्त चौधरी को घनानंद कह रही हूं तो क्यों
कह रही हूं । आज हम जिस व्हाट्सएप युग में
जी रहे हैं, वह स्त्री को देह में बदल देनेवाला
एक ऐसा माधयम है, जहां प्रेम केवल देह को
भोगने का एक जरिया है । उस देह को भोगने
की प्रवृत्ति पाशविक है । जब मेरे जैसा इंसान
सुनता है कि छह महीने की बच्ची से बलात्कार
हुआ है और ठीक उसी समय प्रेम की कविताएं
पढ़ रही होती हूं तो सोचती हूं कि जब हम प्रेम
के स्रोत को फूटने से पहले ही खत्म कर दे रहे
हैं तो प्रेम करेंगे किससे ? किसी की जुल्फों और
किसके नैनों पर कविताएं लिखेंगे लेकिन जब में
बसंत चौधरी को पढ़ती हूं तो मेरी यह चिंता
थोड़ी कम होती है । उनकी कविताएं ऐसे आवारा
और निरंकुश समय में भी यह एहसास दिलाती है
कि प्रेम इबादत भी हो सकता है और पूजा भी ।
‘स्मृति में तुम’ की पंक्तियाँ–
मैं इस सुनसान पगडंडी में
तुम्हारे कदमों के निशान ढूंढ रहा हूं
तुम्हारे ऊपर शक करते हुए अनजाने में
अपनी गलतियां ढूंढ रहा हूं
संकीर्णता के बंधन से
खूद को मुक्त कर रहा हूं ।
अब देखिए कि हम प्रेम में हर अपेक्षा स्त्री से
ही रखते हैं । स्त्री का पूरा जीवन पुरुष के अनुसार
बदल जाता है लेकिन बसन्त के यहां ऐसी बात
नहीं है । उनकी यह कविता स्त्री को स्त्री के ल्एि
बनाए गए सांचे से बाहर निकल कर देखती है ।
हमारे एक बहुत सीनियर कलीग हुआ करते थे–
कुलदीप सलिल, शायद आप में से किसी ने नाम
भी सुना हो, उनका एक शेर है– रहा जब खौफ जब उससे जुदा होने का
हुआ गुमान मुझे खुद के खुदा होने का ।
यह जो पुरुष किसी स्त्री को पाते ही स्वयं
को उसका खुदा मन बैठता है वह प्रेम कैसे
संभव है ? बसंत के यहां यह प्रेम इंतजार में
बदल जाता है । इसीलिए वे प्रेम प्रतीक्षा कविता
में कहते हैं–
बहुत इंतजार किया, और अभी करुंगा
करता रहूंगा
टकटकी लगाए अपलक
क्योंकि मैं जानता हूं
कि इंतजार करना ही मिलन का उत्कर्ष है ।
अब बताइए जहां इतना धैर्य हो वहां प्रेम
पनपने से कौन रोक सकता है ?
इस काव्य संग्रह प्रेम के अलावा जो दूसरी
चीज मुझे आकर्षित की वो है, बाबुजी यानी
पिता जी पर लिखी कविता । संभवतः पिता जी
पर कविता भी है और एक गजल भी । कवि वही
बड़ा होता है, जो अपनी कविता का एकांत सबके
एकांत से जोड़ दे । उसका भाव सब में प्रवाहित
कर दे । इस संग्रह की कविता ‘श्रम शिखर’ पिता
पर केंद्रित है । पिता हमारे जीवन के केन्द्र होते
हैं । उनके श्रम से हम पल्लवित पुष्पित होते हैं ।
उनका श्रम ही हमारे अंदर मानवता का बीज
बनकर फूटता है । इस कविता का भावावेग
इतना तीव्र है कि हम में अपना अतीत, वर्तमान
और भविष्य तीनों महसूस कर लेते हैं ।
बसंत चौधरी की कविताएं मनुष्य ओर
मनुष्यता के बीच जो बच गया है, उसे बचा
लेने की जिद है । यह अविष्कार नहीं, परिष्कार
की कविताएं हैं । अपने अंदर की रिक्तता को दुःख
और पीड़ा से भरने का भाव देने वाली कविताएं
हैं । किसी को खो देने का डर जो जेहन के किसी
कोने में ठिठक कर बैठ गया है, उससे उबरने
की कविता है । ये कविताएं मनुष्य के मनुष्य बने
रहने की सीख है, इनमें ईश्वर या खुदा बनने की
इच्छा नहीं है ।
इस संग्रह की एक विशेषता इसकी भाषा
भी है । बसन्त की भाषा आमद की है बरामद
की नहीं । मेरा मतलब भाव के साथ भाषा भी
अनुभव की है । विशुद्ध हिंदी के कुछ ऐसे शब्द
इस संग्रह में जिन्हें सामान्य पाठक नहीं समझ
सकता, लेकिन कविताओं का महत्व उन्ही शब्दों
से ही है । संस्कृतनिष्ठ होने के बावजूद भी कहीं
अवरोध नहीं है ।
एक सफल कविता के लिए भाषा का जितना
प्रवाह होना चाहिए, उतना है । मैं इस संग्रह के
लिए बधाई दूं, उससे पहले इसके अनुवादक को
भी बधाई । सुजॉय शेखर ने सच में भावनाओं
का अनुवाद किया है । अनुवाद का अर्थ शब्द
का अनुवाद नहीं बलिक भावों का अनुवाद होता
है, यह जिम्मेवारी कविता में और बढ़ जाती
है । सुजॉय ने कविताओं का अनुवाद कविता के
अंतःस्थल तक पहुँचकर किया है ।
एक बार पुनः बधाई ।
(लेखिका हंसराज कॉलेज की प्राचार्य हैं)



About Author

आप हमें फ़ेसबुक, ट्विटर और यूट्यूब पर फ़ॉलो भी कर सकते हैं.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Loading...
%d bloggers like this: