देश गौण, पद प्रधान
डा. उमारानी सिंह:‘प्रजातन्त्र की दुहाई देने वाले जरा अपने दिल को टटोल कर देखें, क्या सचमुच वे देश का हित चाहते हैं – आज जिस तरह प्रधानमन्त्री पद के लिए होड लगी है, उस को देख कर तो यह नहीं लगता कि देश में प्रजातन्त्र आया भी है। सभी को अपनी अपनी चिन्ता है, अपने पद और कर्ुर्सर्ीीी चिन्ता है। देश को बचाने और प्रजातन्त्र को कायम रखने की चिन्ता किसी को नहीं है।
समाज दो वर्गों में विभाजित है। एक ओर तो बडÞे-बडÞे महलों और गगनचुम्बी अट्टालिकाओं में रहने वाले लोग हैं, जिनके पाँव धरती पर नहीं पडÞते, तो दूसरी ओर फूटपाथों और झोपडिÞयों में सोने वाले लोग हैं, जिन को दो शाम की रोटी भी नसबी नहीं होती। आज के समाज का मानदण्ड हम आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री जी के इन पंक्तियों में देख सकते हैं, जनता धरती पर बैठी है, नभ में मंच खडÞा है। जो जितना है दूर मही से, उतना वही बडÞा है !
तो आज धरती से जो जितना दूर है, वह उतना बडÞा समझा जाता है। एक ओर शोषक वगर् ह,ै जा े गरीबा ंे का शाष्े ाण करत े ह,ंै ता े दसू री आरे शाे िषत ह,ंै जा े चपु चाप सहत े चल े आ रह े ह,ंै कार्इर्े आवाज नही ं उठा पात।े कभी- कभी थोडÞी आवाज उठती भी है तो दवा दिया जाता है। कहीं कोई सुनवाई नहीं होती और वे निराश हाके र चपु हा े जात े ह।ंै केवल अमीरी और गरीबी की खाई ही नहीं है। आज जातिवाद की भयंकर समस् या है।
समाज विभिन्न वर्गों और जातियों में बँटा है। जातिवाद का नारा देकर लोगों को प्रभावित कर, वो खरीद कर लोग नेता बनते हैं। जातिवाद के आधार पर लोग देश को बाँटने की बातें करते है। ऐसे लोग भयंकर भूल कर रहे हैं। आज जाति के आधार पर लोग प्रदेश बनाने की बातें करते हैं। ऐसे लोग प्रजातन्त्र का वास्तविक अर्थ नहीं समझ रहे हैं। व्यक्ति, समाज की एक इकाई है। व्यक्ति से परिवार बनता है, परिवार से समाज और समाज से देश। तो जब तब व्यक्ति, परिवार और समाज का र्सवांगीण विकास नहीं होगा, तब तक देश समृद्ध नहीं हो सकता और उसका र्सवांगीण विकास नहीं हो सकता है। हमें प्रजातन्त्र के सही मूल्यों को समझना होगा। प्रजातन्त्र को कायम रखने के लिए हमें बडÞे त्याग और तपस्या की आवश्यकता है। हमें स्वार्थ से ऊपर उठना होगा। कितने नवयुवकों की बलि चढÞ गई।
उनके बलिदान को याद रखना होगा- प्रजातन्त्र के प्रहरी जागो ! सोए बहुत, उठो, अब सोने का समय नहीं है। यह अमूल्य क्षण, इस को खोने, का यह समय नहीं है। आज अहिंसा को तज कर, हिंसा को है अपनाना ! छोडÞो मन की दुविधाएं, ढुलमुल कोमलताएं त्यागो, प्रजातन्त्र के प्रहरी जागो !! रण का विगुल बजा, कर में लेकर करवाल, बढÞो आगे, एक बार हुंकार करो, दुश्मन, पीछे मुडÞ कर भागे। प्रजातन्त्र के दीपक पर, तुम शलभ-रूप बन कर, प्रहरी ! हँस-हँस कर मरना सीखो, प्रजातन्त्र के प्रहरी जागो !! सरिता की गति से बढÞे चरण, बाधाओं से टकराते बन फूल हृदय में लिए, शूल, तुम बढÞो मगर, मुस्कुराते ! ऐसा फैला दो समर कि प्रहरी ! हो जाओ तुम सदा अमर ! स्वतन्त्रता की बेदी पर प्राणों को अर्पण कर दो, प्रजातन्त्र के प्रहरी जागो !! अन्त में बलिपन्थी के राहियों से सत्ता को तो न्याय चाहिए, किन्तु वही जब अन्यायी ! तो कैसे साम्राज्य, समुन्नत, और मनुष्य बने न्यायी ! इसीलिए मच रहा चतर्ुर्दिक, महा घोर, यह क्रन्दन है, मन का गीला हर कम्पन है। श्रद्धा में अर्पित करते हम, अपने आँसू के दो फूल ! औ शत बार नमन करते हम, ये चरणों के पावन धूल। मरण सत्य है, औ स्वतन्त्र है। जीवन तो एक बन्धन है। मन का गीला हर कंपन है, सब ओर मचा क्यों क्रन्दन है मन का गीला हर कंपन है