भारत का स्वतंत्रता संग्राम और नेपाल : डॉ. श्वेता दीप्ति

डॉ श्वेता दीप्ति, हिमालिनी अंक अगस्त । भारत आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है । यह आधिकारिक तौर पर १२ मार्च, २०२१ को शुरू हुआ था । आजादी के ७५वें वर्ष को मनाने के लिए अमृत महोत्सव १५ अगस्त २०२२ से लगभग ७५ सप्ताह पहले शुरु किया गया था । भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने साबरमती आश्रम, अहमदाबाद से आजादी का अमृत महोत्सव की कर्टन रेजर एक्टिविटीज का उद्घाटन किया । १२ मार्च,२०२१ को अमृत महोत्सव की शुरुआत की गई थी क्योंकि, १२ मार्च, १९३० को ही दांडी मार्च की शुरुआत हुई थी जो कि नमक पर ब्रिटिश एकाधिकार के खिलाफ कर–प्रतिरोध और अहिंसक विरोध के प्रत्यक्ष कार्रवाई अभियान था । यह अभियान ६ अप्रैल, १९३० तक चला था । अमृत महोत्सव का समारोह १५ अगस्त, २०२३ तक जारी रहेगा । अर्थात यह अमृत महोत्सव का समापन वर्ष है । नेपाल स्थित भारतीय दूतावास ने भी अमृत महोत्सव के अवसर पर कई महत्त्वपूर्ण कार्यक्रमों का आयोजन किया और इस अवसर पर नेपाल के लिए भारतीय सहयोग में कई परियोजनाओं को सम्पन्न करने का भी कार्य किया गया ।



आइए आज एक नजर डालें भारत के स्वतंत्रता संग्राम पर । किसी भी देश का इतिहास कभी मरता नहीं । इतिहास का मरना, देश, काल और समाज का मरना होता है । इसे जीवित रखना मानव सभ्यता के लिए आवश्यक होता है । जब भी उसे दोहराया जाता है तो, अतीत से हमारा परिचय होता है । हम यह जान पाते हैं कि हमारा कल क्या था और आनेवाले कल में हमें उस गुजरे अतीत से क्या सीख लेनी चाहिए । प्राचीन समय से ही विदेशी हमलावर हमेशा भारत आने को उत्सुक रहे, फिर चाहे वो आर्य, फारसी, ईरानी, मुगल, चंगेज खान, मंगोलियाई या सिकंदर ही क्यों ना हों । अपनी समृद्धि और खुशहाली के कारण भारत हमेशा से आक्रमणकारियों और शासकों की रुचि का कारण रहा । बात १७५७ की है जब पलासी के युद्ध के बाद ब्रिटिश भारत में राजनीतिक सत्ता जीत गए थे । यही वो समय था जब अंग्रेज भारत आए और करीब २०० सालों तक राज किया । १८४८ में लॉर्ड डलहौजी के कार्यकाल के दौरान भारत में उनका शासन स्थापित हुआ । उत्तर–पश्चिमी भारत अंग्रेजों के निशाने पर सबसे पहले रहा और १८५६ तक उन्होंने अपना मजबूत अधिकार स्थापित कर लिया था । १९वीं सदी में अंग्रेजों ने अपने शासन में सबसे अधिक उंचाई को छुआ ।
उसी समय नाराजÞ और असंतुष्ट स्थानीय शासकों, किसानों और बेरोजगार सैनिकों ने विद्रोह कर दिया जिसे आमतौर पर भारत के इतिहास में ‘१८५७ का विद्रोह’ या ‘१८५७ के गदर’ के तौर पर जाना जाता है । यह गदर मेरठ में बेरोजगार सैनिकों के विद्रोह से शुरु हुआ था । उनकी बेरोजगारी का कारण वो नई कारतूस थी जो नई एनफील्ड राइफल में लगती थी । इन कारतूसों में गाय और सूअर की चर्बी से बना ग्रीस था जिसे सैनिक को राइफल इस्तेमाल करने की सूरत में मुंह से हटाना होता था । यह हिंदू और मुस्लिम दोनों ही धर्मों के सैनिकों को धार्मिक कारणों से मंजूर नहीं था और उन्होंने इसे इस्तेमाल करने से मना कर दिया था जिसके चलते वो बेरोजगार हो गए । जल्दी ही यह विद्रोह दिल्ली और उसके आसपास के राज्यों में फैल गया । लेकिन यह विद्रोह असफल रहा और अंग्रेजों की सेना ने इसका जवाब लूट और हत्याएं करके दिया जिसके चलते लोग निराश हो गए । इस विद्रोह ने दिल्ली, अवध, रोहिलखंड, बुंदेलखंड, इलाहाबाद, आगरा, मेरठ और पश्चिमी बिहार को सबसे ज्यादा प्रभावित किया और यहां सबसे क्रूर लड़ाइयां लड़ी गईं । फिर भी १८५७ का विद्रोह असफल कहलाया और एक साल के भीतर ही खत्म हो गया ।
एक साल में ही अंग्रेजों ने १८५७ के विद्रोह पर काबू पा लिया था और इस समय ईस्ट इंडिया कंपनी का अंत हुआ और कई नई नीतियों के साथ ब्रिटिश सरकार का उदय हुआ । महारानी विक्टोरिया को भारत की साम्राज्ञी के तौर पर घोषित किया गया । उसी समय भारत के कई हिस्सों से राजा राम मोहन राय, बंकिम चंद्र और ईश्वर चंद्र विद्यासागर जैसे सुधारक पटल पर उभरे और उन्होंने भारतीयों के हक की लड़ाई लड़ी । उनका प्रमुख लक्ष्य एकजुट होकर विदेशी शासन के खिलाफ लड़ना था । १८७६ में सुरेन्द्र नाथ बनर्जी ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना की । इसका मुख्य लक्ष्य मध्यमवर्गीय शिक्षित नागरिकों के विचारों को आगे रखना था । १९०६ में कलकत्ता में कांग्रेस के अधिवेशन में ‘स्वराज’ की प्राप्ति की घोषणा की गई और इस तरह ‘स्वदेशी आंदोलन’ शुरु हुआ । १९११ में पश्चिम बंगाल का विभाजन हुआ और भारत की राजधानी कलकत्ता से बदलकर दिल्ली कर दी गई । भारत में आजादी की लड़ाई की सुगबुगाहट शुरु हो गई थी । यह देखते हुए ब्रिटिश सरकार भी भारतीयों के प्रयासों के विरोध में तैयारी कर रही थी जिसके नतीजतन १९०९ में कई सुधारों को लागू किया गया । इन्हें मार्ले–मिंटो सुधारों के तौर पर जाना जाता है, जिनका लक्ष्य विकास करने की जगह हिंदू और मुस्लिमों में मतभेद पैदा करना था । जहां एक ओर सुधारवादी और क्रांतिकारी योजनाएं बना रहे थे और काम कर रहे थे वहीं दूसरी ओर पंजाब में जलियांवाला बाग नरसंहार हुआ, जहां बैसाखी मनाने के लिए लोग इकट्ठे हुए थे ।
१९१४–१९१८ के प्रथम विश्व युद्ध के बाद महात्मा गांधी भारत लौटे और देश की हालत समझकर अहिंसक आंदोलन ‘सत्याग्रह’ के तौर पर शुरु किया । ब्रिटिश सरकार द्वारा निष्पक्ष व्यवहार ना होता देख १९२० में महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन शुरु किया । यह आंदोलन १९२२ तक चला और सफल रहा । असहयोग आंदोलन के खत्म होने के तुरंत बाद भारत की सरकार में नया कमीशन बनाया गया जिसमें सुधारों में किसी भारतीय सदस्य को शामिल नहीं किया गया और ‘स्वराज’ की मांग को भी मानने का कोई इरादा नहीं था । लाला लाजपत राय के नेतृत्व में कई बड़े प्रदर्शन किए गए । दिसंबर १९२९ में नागरिक अवज्ञा आंदोलन शुरु किया गया, जिसका लक्ष्य ब्रिटिश सरकार को पूरी तरह अनदेखा करना और अवज्ञा करना था । इस आंदोलन के दौरान ही भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को गिरफ्तार कर फांसी दी गई थी ।
अगस्त १९४२ में गांधीजी ने इस आंदोलन को शुरु किया था । इसका लक्ष्य ब्रिटिश शासन से पूरी तरह आजÞादी हासिल करना था और यह ‘करो या मरो’ की स्थिति के रूप में सामने आया । तोड़फोड़ और हिंसक घटनाओं की कई वारदातें सामने आईं । अंत में सुभाष चंद्र बोस ब्रिटिश हिरासत से भाग गए और इंडियन नेशनल आर्मी का गठन किया । अगस्त १९४७ में भारत को शासकों, क्रांतिकारियों और उस समय के नागरिकों की कड़ी मेहनत, त्याग और निस्वार्थता के बाद स्वतंत्रता हासिल हुई । कितने ही ज्ञात–अज्ञात राष्ट्रभक्तों की कुर्बानी के बाद भारत को आजादी का उपहार मिला था ।
भारत का स्वतंत्रता संग्रामऔर एंग्लो–नेपाल युद्ध
इसी क्रम में बात करूँ नेपाल की । क्योंकि नेपाल और भारत का सदियों का सम्बन्ध रहा है । यह सम्बन्ध सिर्फ सांस्कृतिक और धार्मिक नहीं है । भारत की राजनीतिक परिस्थितियों का नेपाल की राजनीति पर हमेशा से प्रभाव रहा है । १७५७ में जब ब्रिटिश शासकों ने भारत की राजनीतिक सत्ता को जीत लिया था, तभी से उसकी विस्तारवादी नीति भी पैर पसारने लगी थी । इसी का परिणाम था कि १८१४ से १८१६ तक एंग्लो–नेपाल युद्ध या जिसे गोरखा युद्ध भी कहा जाता है लड़ा गया । यह युद्ध गोरखा साम्राज्य (नेपाल) और ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच में लड़ा गया था । वास्तव में उस समय अंग्रेजों का पूरे भारत पर कब्जा नहीं था । सिख साम्राज्य भी अपने शिखर पर था । तीन आंग्ल मराठा युद्ध हो चुके थे और गोरखा साम्राज्य यानी कि नेपाल भी एक विस्तार वादी राज्य था उन्होंने पूर्व में सिक्किम तथा पश्चिम में कुमाऊं तथा गढ़वाल पर कब्जा किया था । इसके अलावा उनकी इच्छा थी कि वह ईस्ट इंडिया कंपनी के प्रभाव वाले अवध क्षेत्र पर भी कब्जा करें । उस युद्ध का एक कारण यह भी था कि नेपाल दरबार ने ईस्ट इंडिया कंपनी को तिब्बत जाने का रास्ता नहीं दिया था । ईस्ट इंडिया कंपनी तिब्बत से व्यापार करना चाहती थी और तिब्बत जाने का रास्ता गोरखा यानी नेपाल से होकर निकलता था । इस युद्ध का परिणाम यह हुआ की सुगौली की संधि दोनों राज्यों के बीच हुई जिसके परिणामस्वरूप अंग्रेजों को गोरखा राज्य का गढ़वाल और कुमाऊं हिस्सा जो आज का उत्तराखंड है, मिल गया और अंग्रेजों के राज के अंत के बाद उत्तराखंड भारत का एक राज्य बना । इस संधि के परिणामस्वरूप अंग्रेजों ने दोबारा नेपाल पर आक्रमण नहीं किया जिस कारण नेपाल पर अंग्रेजों का कब्जा नहीं हुआ । इसका एक दूसरा कारण था कि अंग्रेजों को भारत में बहुत ज्यादा विरोध का सामना करना पड़ रहा था सिख साम्राज्य और मराठा साम्राज्य से युद्ध के कारण अंग्रेजों के पास संसाधनों की काफी कमी थी । जिसके कारण उन्होंने तिब्बत से व्यापार का विचार त्याग दिया । गोरखा लड़ाकों ने अंग्रेजों को भी प्रभावित किया जिसके फलस्वरूप भारतीय सेना में आज तक गोरखा रेजीमेंट है जो कि ब्रिटिश सेना में भी लड़े थे । जब दो विस्तारवादी साम्राज्य भिड़ते हैं तो दोनों को ही कहीं ना कहीं पर संतोष करना पड़ता है और सुगौली की संधि उस संतोष को दर्शाती है । अंग्रेजों ने तिब्बत का विचार त्यागा तो गोरखा ने अवध का विचार त्याग दिया । यही कारण था कि नेपाल कभी गुलाम नहीं बना ।
नेपाल की राजनीति पर भारत के स्वतंत्रता संग्राम का प्रभाव
विश्व की प्रसिद्ध क्रांतियों में फ्रांसीसी क्रांति, अमेरिकी स्वतंत्रता संग्राम, बोल्शेविक क्रांति, चीन की सांस्कृतिक क्रांति और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम प्रमुख हैं । इन उल्लिखित क्रांतियों में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को वह क्रांति माना जाता है जिसने नेपाली लोकतांत्रिक आंदोलन को सबसे अधिक हिलाकर रख दिया था । भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के प्रभाव को नेपाल के लोकतांत्रिक आंदोलन के हर उतार–चढ़ाव में महसूस किया जा सकता है । भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में नेपालियों के योगदान और बलिदान को इतिहास ने सदैव बहुत सराहा है । भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में नेपाली भूमि का भी उपयोग होने का इतिहास है । नेपाल और भारत की दोस्ती का एक लंबा इतिहास रहा है जिसमें वी.पी. कोइराला से लेकर मनमोहन अधिकारी तक, कृष्ण प्रसाद भट्टराई से लेकर गोपाल प्रसाद भट्टराई तक, बड़ी संख्या में नेपाली नेताओं ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अपने जीवन का बलिदान दिया था । १९४२ के आसपास भारत में अंग्रेजों ने अपना दमन तेजÞ कर दिया था । अंग्रेजों के दमन चक्र से बचने और क्रांति की आग जलाए रखने के लिए के लिए नेता सीमा पार कर नेपाल की ओर आ जाते थे । इसी सन्दर्भ में सोशलिस्ट कांग्रेस के नेता आनंदी प्रसाद सिंह सप्तरी जिले के बरसाइन गाँव में आये थे और रामेश्वर प्रसाद सिंह से मिले । रामेश्वर प्रसाद सिंह नेपाली कांग्रेस के वरिष्ठ नेता थे । रामेश्वर प्रसाद सिंह ने आनंदी प्रसाद सिंह को बड़े आतिथ्य के साथ आश्रय दिया । कुछ दिनों बाद नवंबर १९४२ में समाजवादी नेता सूरज नारायण सिंह भी हजÞारीबाग जेल से भाग गये और रामेश्वर बाबू के संपर्क में आये । उसके बाद शिवनंदन मंडल भी आ गए । इस नेतृत्व ने रामेश्वर बाबू से अनुरोध किया कि भारत में क्रान्ति का कार्यक्रम बनाना संभव नहीं है । इसलिए इसे नेपाल में ही आयोजित करें, जिससे स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई जीतना संभव है । रामेश्वर बाबू के प्रस्ताव को तुरंत स्वीकार कर लिया गया और सप्तरी जिले के राजपुर नामक गाँव में एक उच्च स्तरीय सम्मेलन आयोजित किया गया, जिसका प्रबंधन स्थानीय व्यापारियों के साथ रामेश्वर बाबू ने किया ।
नेपाली समाजवादी नेतृत्व के समर्थन से उत्साहित होकर फिर एक और नया प्रस्ताव रखा गया । यह प्रस्ताव नेपाली और भारत संबंधों के लिए एक अग्निपरीक्षा थी । उन्होंने डॉ. जयप्रकाश नारायण, विजया पट्टवर्धन, डॉ लोहिया और अन्य को आश्रय देने का अनुरोध किया था । जयप्रकाश नारायण और डॉ. लोहिया संपूर्ण स्वतंत्रता संग्राम का नेतृत्व कर रहे थे । रामेश्वर बाबू ने यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया । ३ अप्रैल, १९४३ को जयप्रकाश नारायण और विजया पट्टवर्धन भी रामेश्वर बाबू के गांव बरसाइन पहुंचे वहीं डॉ. लोहिया भी आ गए थे । सुरक्षा संवेदनशीलता को ध्यान में रखते हुए, एक और सम्मेलन १२ और १३ अप्रैल १९४३ को सप्तरी जिले में कोशी नदी के पास बनरझूला नामक गाँव में आयोजित किया गया था । सम्मेलन में उ.प्र. पंजाब, बंगाल आदि विभिन्न स्थानों से प्रतिनिधि शामिल हुए थे । सम्मेलन से नेपाल की भूमि का उपयोग गुरिल्ला युद्ध के लिए करने की नीति पारित की गई थी । इस अभियान में भक्तपुर निवासी दल बहादुर प्रजापति ने आर्थिक बोझ उठाया । एक महीने तक सुरंगा पहाड़ में प्रशिक्षण शिविर शुरु हुआ । प्रशिक्षकों में नित्यानंद सिंह को आजाद हिन्द का सैन्य प्रशिक्षक नियुक्त किया गया । धीरे–धीरे, सप्तरी जिले के युवा में भी क्रांति का असर पड़ने लगा । इधर राणा शासक अपने गुप्तचरों का परिचालन कर के अंग्रेज विरोधी क्रियाकलापों पर ध्यान रख रहे थे और जेपी और डॉ. लोहिया कुशहा टप्पु में युद्ध का दिशानिर्देशन कर रहे थे ।
२० मई १९४३ को ईश्वर राज की टीम ने जयप्रकाश नारायण, डॉ. लोहिया वैधनाथ झा समेत कुछ बड़े नेताओं को गिरफ्तार कर लिया और सप्तरी के मुख्यालय हनुमाननगर जेल में कैद कर दिया । अंग्रेजों को खुश करने के लिए राणा शासकों ने जयप्रकाश नारायण और डॉ. लोहिया को काठमांडू चलान करने की कोशिश की । उधर दूसरी ओर डॉ. लोहिया और जयप्रकाश नारायण की गिरफ्तारी से पूरा भारत सदमे में था । क्रांतिकारियों के जोश एवं उत्साह पर असर पड़ने लगा था । भारत में गांधी, नेहरू और पटेल जैसे नेता जेल में थे । क्रांति की अलख जगाए रखने की जिम्मेदारी डॉ. जय प्रकाश और डॉ. यह लोहिया के ऊपर थी, ऐसे में उनकी गिरफ्तारी युवाओं को हतोत्साहित कर रही थी । ऐसी उथल–पुथल की स्थिति में सूरज नारायण सिंह ने नई योजना के साथ रामेश्वर बाबू से सलाह ली और हनुमाननगर जेल की स्थिति, क्षमता और भौगोलिक विवरण के बारे में जानकारी ली । रामेश्वर बाबू ने सारी स्थिति का ब्यौरा दिया । सूरज नारायण सिंह भी स्थिति की गंभीरता से पूरी तरह वाकिफ थे । वो जानते थे कि जेपी और डॉ. सूरज नारायण सिंह को लगा कि यदि लोहिया को जेल से रिहा कर दिया गया तो ये नेपाली युवक राणा के क्रोध का शिकार हो जायेंगे । उन्होंने रामेश्वर बाबू के सामने यह बात रखी । जवाब में रामेश्वर बाबू ने कहा कि भारत की आजादी के लिए हम कोई भी बलिदान देने को तैयार हैं, लेकिन किसी भी हालत में डॉ. लोहिया और जयप्रकाश को कारावास से मुक्त किया जाना चाहिए ।
उक्त परामर्श के बाद २३ मई की रात ११ बजे सदर नित्यानंद सिंह और गुलाबी सुनार के नेतृत्व में हनुमाननगर जेल पर हमला कर दिया । आजाद दस्ता क्रांति के ज्वार से वह पूरी तरह उद्वेलित हो उठा था । जिसके कारण राणा के सैनिक अधिक समय तक टिक नहीं सके, और डॉ. लोहिया तथा जयप्रकाश नारायण को जेल रिहा करा लिया गया । राणा के क्रोध की सीमा न रही । हनुमाननगर घटना के संबंध में तुरंत २२ नेपाली युवा नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया, जिनमें सर्वश्री रामेश्वर प्रसाद सिंह, चतुरानंद सिंह, जयमंडल सिंह, मीन बहादुर सिंह, तारणी प्रसाद सिंह, शत्रुधन सिंह, विंदेश्वर सिंह, अखंड नारायण सिंह, रामदत्त कोइराला, समर बहादुर, प्रजापति, कामानंद मिश्र, नेबू मदार, अब्दुल मिया, कृष्ण वीर कामी, किशन प्रसाद, विष्णुध्वंज श्रेष्ठ, वैजनाथ उपाध्याय, आनंदी प्रसाद सिंह, चंद्र नारायण सिंह, देवनारायण सिंह और सेवक माझी । राणा शासक ने इन सभी स्मरणीय वीर सपूतों को विभिन्न आरोपों में काठमांडू चलान कर दिया था ।
यह वह समय था जब भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में गांधीजी विभिन्न विचारधाराओं को सम्मिलित कर के भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का नेतृत्व कर रहे थे । इसमें अमेरिकी विश्वविद्यालय से शिक्षा प्राप्त जयप्रकाश नारायण मार्क्सवाद से प्रभावित थे । उनके साथ ही बर्लिन से स्नातक करने वाले डॉ. लोहिया भी मार्क्सवाद से प्रभावित थे । आचार्य नरेन्द्र देव तो मार्क्सवाद के आचार्य ही थे । अलग विचारधारा के होने के बावजूद इन्होंने गाँधीजी को भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का नेता माना था । नेहरू भी गांधीजी के आर्थिक कार्यक्रम से प्रभावित नहीं थे । हिंदू महासभा के डॉ.श्यामा प्रसाद मुखर्जी और उनके साथ के हिंदू धर्म से जुड़े लोग भी गांधी के नक्शे कदम पर राजनीतिक सफर करने को तैयार नहीं थे । किन्तु आजादी पाने की ललक ने इन्हें एक साथ जोड़ रखा था । यही कारण था कि गांधी जी इन परस्पर विरोधी एवं भिन्न विचारों को समाहित करके भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का नेतृत्व कर रहे थे ।
नेपाल की राजनीति और नेपाल के लोकतांत्रिक आंदोलन में गांधीजी का प्रभाव सबसे अधिक है । बीपी कोइराला का सुन्दरी जल का आमरण अनशन गांधीवाद का ही अनुशरण था । जब बीपी कोइराला की स्वास्थ्य स्थिति बिगड़ने लगी, तो गणेशमान जी और किशुनजी की डॉ. लोहिया की मदद से गांधी जी से मुलाकात हुई । गांधी जी ने बीपी की रिहाई के लिए महादेव देसाई को एक टेलीग्राम भेज कर आग्रह किया । साथ ही उन्होंने बीपी के आंदोलन को अपना नैतिक समर्थन देने की भी घोषणा की । गाँधीजी के नैतिक समर्थन की बात का यह असर हुआ कि राणाओं ने बी.पी. को रिहा कर दिया था ।
इतिहास के पूरे कालखंड में गांधी का प्रभाव बीपी के दर्शन में प्रचुर मात्रा में पाया जाता है । जीवन के उत्तरार्ध में बीपी की गांधी जी से निकटता काफी बढ़ गयी थी । विशेषकर बीपी का आर्थिक कार्यक्रम गांधीवाद की अभिव्यक्ति था । गणेशमान जी में गांधी जी का प्रभाव अधिक पाया जाता है । नेपाली राजनीति में समाजवादी नेताओं का प्रभाव काफी साफÞ देखा जा सकता है । जयप्रकाश नारायण ने बीपी को अपना भाई मान लिया था । डॉ. लोहिया और बीपी के बीच दार्शनिक समानता साफ देखी जा सकती है । लोहिया और जयप्रकाश ने सत्ता के सुख को स्वीकार नहीं किया । नेपाल की राजनीति में भी गणेशमानजी ने प्रधानमंत्री पद से त्यागपत्र देकर गांधीवाद का उदाहरण दिया था । २०४६ के जन आन्दोलन में भारत के समाजवादी नेता चन्द्रशेखर ने अपने तेजस्वी एवं निर्भीक व्यक्तित्व शैली में कहा था कि मन से भय निकाल देने पर दुनिया की कोई ताकत हरा नहीं सकती । उन्होंने दावा किया कि वह गांधीजी का सूत्र और दर्शन भारत से लेकर आए हैं । दूसरे शब्दों में, २०४६ के जन आंदोलन के कमांडर गणेशमानजी ने प्रधान मंत्री का पद त्याग दिया और किसुनजी ने सादगी जीवन को अपनाते हुए प्रधान मंत्री का पद संभाला, जो वास्तव में गांधीवाद का ही प्रयोग था । नेपाली कांग्रेस द्वारा सत्याग्रह का प्रयोग गांधीवाद के प्रयोग का एक ज्वलंत उदाहरण है । नेपाल की हर राजनीतिक शक्ति ने अपनी राजनीतिक यात्रा की शुरुआत में हिंसा का इस्तेमाल किया है ।
यह हमें नेपाली कांग्रेस का सशस्त्र विद्रोह, झापा कांड, माओवादी विद्रोह और आंशिक रूप से मधेस आंदोलन में भी देखने को मिलता है । लेकिन बाद में भारत के अहिंसात्मक आन्दोलन का असर यहाँ की राजनीतिक शक्तियों पर भी पड़ा । यहाँ तक कि माओवादी के नायक प्रचंड ने अपने पहले चुनाव में कार्यकर्ताओं से अपील की थी कि कुछ दिन के लिए गांधीवादी दृष्टिकोण को अपनाए ।
इन सारी बातों से यह तो स्पष्ट पता चलता है कि नेपाल और भारत का सम्बन्ध जन–जन के दिलों से संचालित है । नेपाल और भारत की कूटनीतिक नेतृत्व के भीतर सीमित स्वार्थ और सत्ता के समीकरण से प्रभावित है किन्तु जन–जन का सम्बन्ध प्रगाढ़ मित्रता और त्याग है । आज के बदलते परिवेश में भारत की उपलब्धियों पर बहुत गंभीरता से विचार करना चाहिए क्योंकि भारत के संघर्ष में किसी न किसी रूप में नेपाल की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है । भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के बाद भारत ने लोकतंत्र को विकास के मुख्य साधन के रूप में निरंतर एवं निर्बाध रूप से प्रयोग किया । भारत का नेतृत्व विवाद और विकास को अलग रखने में सफल रहा । लेकिन आज नेपाल में स्थिति बिल्कुल विपरीत है । नेपाली नेताओं ने विवादों को उच्च प्राथमिकता दी है और विकास पर ग्रहण लगा दिया है । भारत ने अपनी आजादी के ७५ वर्ष के बाद विकास की जिस ऊँचाई को प्राप्त किया है वह सभी देख रहे हैं । मगर हम कहाँ हैं और किस दिशा में जा रहे हैं यह आत्मविश्लेषण, मंथन और चिन्तन का विषय अवश्य है ।
