बिहारी की बाढ- नेपाल में प्रस्तावित बा“धों के साथ चोली-दामन का रिस्ता –
बिहार की बाढ समस्या का समाधान नेपाल में है और इसके लिए कुछ भी कर सकने में बिहार सरकार अर्समर्थ है और इस मसले की सारी जिम्मेवारी केन्द्र सरकार की है यह बात बिहारी लोक मानस में गहरे बैठा दी गयी है। कुछ लोग यह बात निश्चयपर्ूवक कहते हैं कि बिहार के जो सांसद लोकसभा या राज्यसभा में बैठते हैं वह दृढÞतापर्ूवक नेपाल में प्रस्तावित बांधों के बारे में बात नहीं करते। ऐसे लोग इसका एक कारण बताते हैं कि वहाँ सारा माहौल ही सूखे के र्इद-गिर्द घूमता है। ऐसे में बाढÞ की आवाज नक्कारखाने में तूती बन कर रह जाती है। बिहार से कई बार सांसद रहे डाँ। गौरी शंकर राजहंस का मानना है, ” ! दिल्ली में बैठे लोग उस नारकीय जीवन की कल्पना नहीं कर सकते हैं। प्रश्न यह है कि उत्तर बिहार के लोग आखिर इस नरक को क्यों भोगें – आज यदि ऐसी घटना यूरोप में होती और किसी पडÞोसी देश की गलती से किसी देश में बाढÞ आती तो प्रभावित देश भरपूर मुआवजा वसूलता। परन्तु नेपाल हमारा पडÞोसी ही नहीं, निकटतम मित्र और भाई है।
उससे भला क्या मुआवजा वसूला जा सकता है – नेपाल के लोगों का कहना है कि वे इस बात को अच्छी तरह महसूस करते हैं कि उनकी नदियों के कारण उत्तरी बिहार के लोग हर साल तबाह हो जाते हैं ! पर उत्तरी बिहार के लोगों को यह महसूस करना चाहिये कि इसी तरह की त्रासदी से नेपाल की तर्राई के लोग भी गुजरते हैं। यह तर्क शत-प्रतिशत सही है। अतः क्यों नहीं नेपाल और भारत सरकार मिल कर इस समस्या का कोई स्थाई समाधान खोजें -” उनका आगे कहना था कि भारत सरकार नेपाल के महाराज ज्ञानेन्द्र और वहाँ की सरकार को यह समझाने में सफल हो जाए कि इस तरह के बडÞे डैम बनाने से नेपाल और उत्तरी बिहार दोनों का कायाकल्प हो जायेगा तो कोई कारण नहीं है कि नेपाल के महाराज और वहाँ की सरकार भारत के अनुरोध को टालें।
दरअसल, इस तरह के बयान कहीं न कहीं यह संकेत देते हैं कि इस पूरे मसले पर भारत सरकार की तरफ से ठीक तरह से कोई कोशिश नहीं हर्ुइ है जबकि भारत और नेपाल के बीच बात-चीत का सिलसिला १९४० के दशक से जारी है। १९३७ में अंग्रेजों के समय पटना में जो बाढÞ सम्मेलन हुआ था उसमें बिहार के तत्कालीन चीफ इंजीनियर कैप्टेन जी। एफ। हाँल ने जरूर यह कहा था, ” ! कोसी के ऊपरी क्षेत्र पर नेपाल का नियंत्रण है और बिहार सरकार के पास नदी को नियंत्रित करने के लिए असीमित साधन नहीं हैं। इस सम्बन्ध में यह भी प्रस्ताव किया गया है कि हमें नेपाल का सहयोग प्राप्त करना चाहिये। यह बहुत जरूरी भी है लेकिन मुझे ऐसे किसी सहयोग की उम्मीद नहीं है। उन्हें -नेपाल को) इस सम्मेलन में आमंत्रित किया गया था पर उन्होंने कोई भी प्रतिनिधि भेजने से इन्कार कर दिया। मेरा नेपाल सरकार के साथ नदी नियंत्रण और सीमा विवाद के मुद्दों पर कुछ वास्ता पडÞा है और मैं इसके अलावा कोई राय कायम नहीं कर सकता कि वह बिहार के फायदे के लिए अपने आपको कोई तकलीफ देंगे।’
यह भी सच है कि आजाद भारत में नेपाल के साथ कोसी परियोजना, गंडक परियोजना, पश्चिमी कोसी नहर तथा पंचेश्वर बांध और बराहक्षेत्र बांध की विस्तृत परियोजना रिपोर्ट जैसी योजनाओं को लेकर कई समझौते हुए मगर कहीं न कहीं कोई कमी जरूर है जिसकी वजह से कोई न कोई व्यवधान पडÞता है और रिश्तों में कोई गर्मजोशी नहीं दिखायी पडÞती। १९९६ में हर्ुइ पंचेश्वर बांध-संधि के अनुसार इस समय तक उस योजना का निर्माण कार्य पूरा हो जाना चाहिये था जो अब तक शुरू भी नहीं हुआ और न निकट भविष्य में इसके शुरू होने के कोई आसार ही नजर आते हैं। भारत और नेपाल सरकार के बीच बराहक्षेत्र परियोजना के डी। पी। आर। बनाने का पहला समझौता १९९७ में हुआ था और यह रिपोर्ट बनाने का काम अभी तक -जून २०१०) पूरा नहीं हुआ है।