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यहाँ दुर्याेधन की पूजा हाेती है

इस मंदिर में रखी है दुर्योधन की कुल्‍हाड़ी

उत्तराखण्ड राज्य, जिसे देवभूमि भी कहा जाता है, में दुर्योधन और कर्ण दोनों के मन्दिर स्थित है और यहां इनकी पूजा भी की जाती है. यह दोनों मन्दिर उत्तराखण्ड के उत्तरकाशी जिले में स्थित है। दुर्योधन का मन्दिर उत्तरकाशी के जखोली गांव में दुर्योधन का मन्दिर मौजूद है। हालाकि कुछ समय पहले ही इसे एक शिव मन्दिर के रूप में बदल दिया गया है। इस मंदिर में आज भी सोने की परत चढ़ी एक कुल्हाड़ी रखी है, जिसे लोग दुर्योधन का प्रतीक मानते हैं और उसकी पूजा भी करते हैं।

कर्ण का भी है मंदिर

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इसी मन्दिर से लगभग 50 किलोमीटर दूरी पर स्थित एक दूसरे गांव में दानवीर कर्ण का मन्दिर बना हुआ है। इन गांवों के लोग इन्हें अपना इष्ट मानते हैं। इसके साथ ही कर्ण की अच्‍छी आदतों को सम्‍मान देने के लिए गांव में दहेज प्रथा को बंद कर दिया गया है। धार्मिक अनुष्ठानों में किसी भी जानवर की बलि भी नहीं दी जाती है। महाभारत के पात्र कर्ण का ये मंदिर सारनौल गांव में है। यह मंदिर क्यों बने इसके पीछे भी एक कहानी है।

भुब्रूवाहन वाहन की वजह से होती है पूजा

दरसल सारनौल और सौर नाम के दो गांव की भूमि महाभारत काल के महान योद्धा भुब्रूवाहन की धरती मानी जाती है। ऐसी मान्‍यता है कि राजा भुब्रूवाहन कौरवों और पांडवों के बीच महाभारत युद्ध में कौरव सेना का हिस्सा बनना चाहते थे, किंतु उसकी शक्‍ति से भली भांति परिचित भगवान कृष्ण ने बड़ी ही चालाकी से भुब्रूवाहन का सिर उसके धड़ से अलग करके उन्‍हें युद्ध से दूर कर दिया। जब उसने श्री कृष्‍ण से युद्ध देखने की इच्छा जाहिर की तो उसकी योग्‍यता के चलते ये अधिकार देते हुए कृष्‍ण जी ने उसके सिर को एक पेड़ पर टांग दिया और उसने वहीं से महाभारत का पूरा युद्ध देखा। कहते हैं कि वो कौरवों की हार देखकर बहुत रोता था और दोनों गांवों के समीप जो नदी है वो भुब्रूवाहन के आंसुओं के कारण ही बनी थी। इसे तमस या टोंस नदी के नाम से जाना जाता है। इसी धारणा के चलते इस नदी का पानी पीने योग्‍य नहीं माना जाता। उत्तरकाशी के लोकगीतों में भब्रूवाहन के साथ दुर्योधन और कर्ण की प्रशंसा की जाती है और उन्हें देवताओं के समान पूजा जाता है।

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