अविस्मरणीय यात्रा वर्धा विश्वविद्यालय, महाराष्ट्र : अंशु कुमारी झा, फ़ोटो सहित

अंशु कुमारी झा, हिमालिनी अंक सितम्बर । यह सत्य है कि मानव जीवन एक यात्रा ही है जो जन्म से प्रारम्भ होकर मृत्यु पश्चात समाप्त हो जाती है । इन यात्रा के दौरान व्यक्ति को बहुत सारे सही तथा गलत क्रियाकलापों का सामना करना पड़ता है । लोग अपने जीवन काल में कुछ अच्छा काम भी करते हैं और कुछ गलत भी कर जाते हैं जिसका अनुभव हमारे मन मस्तिष्क में हमेशा ताजा ही रहता है । अगर हम लोकहित के लिए कुछ कर जाते हैं तो उससे हमारे मन को तुष्टि मिलती है, हमें वह कार्य हमेशा गौरवान्वित महसूस कराता है । अगर हम कुछ गलत करते हैं तो वह कार्य आजीवन हमें कचोटता रहता है । जो भी हो पर हमें सही या गलत का अनुभव अवश्य हो जाता है । इसी सन्दर्भ में मैं अपनी एक शैक्षिक यात्रा का अनुभव आप सभी से साझा करने जा रही हूँ ।

सर्वप्रथम मैं विवेकानन्द सांस्कृतिक केन्द्र, काठमांडू का हृदय से धन्यवाद करना चाहूँगी क्योंकि हमें भारतीय सांस्कृतिक संबन्ध परिषद, नई दिल्ली तथा महात्मा गाँधी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा के तत्वाधान में आयोजित शिक्षक अभिविन्यास कार्यक्रम में सहभागी होने का अवसर प्रदान किया । उक्त कार्यक्रम ७ अगस्त२०२३ से प्रारम्भ होकर १९, अगस्त २०२३ तक चला । इस १२ दिनों के शैक्षिक कार्यक्रम में २२ देशों से ३४ लोग सहभागी थे जिसमें नेपाल से भी दो लोगों को सहभागी होने का अवसर मिला था । सौभाग्य से मैं भी उन दो में से एक थी । इन १२ दिनों के दौरान हमने बहुत कुछ नया सीखा, नया देखा और नए लोगों से मित्रता भी हुई जो मेरे लिए नई उपलब्धि रही ।




७ अगस्त को कार्यक्रम में हिस्सा लेने के लिए हम काठमांडू से ६ अगस्त को ही सुबह ७ बजे घर से निकले । हमारी यात्रा इन्डिगो एयरलाइन्स से होने वाली थी, वहीं से मेरे लिए नया अनुभव प्रारम्भ हो जाता है । शाम को जब नागपुर एयरपोर्ट पहुंची तो वहाँ एक व्यक्ति दो कार्ड लेकर खड़े थे जिसमें महात्मा गाँधी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय लिखा हुआ था हम तुरंत समझ गए कि ये हमें ही लेने आए हैं । हम सकुशल विश्वविद्यालय पहुँचे । हमारे ठहरने का प्रबन्ध नागार्जुन अतिथि गृह में किया गया था जो विश्वविद्यालय के अन्दर ही था । मुझे २१६ नम्बर कमरे की चाभी दी गई । नई जगह, नए लोग सबकुछ नया था । मन जिज्ञासा से भरा हुआ था आखिर कल क्या सब होगा ? यही सब सोचते रात बीत गई । सुबह चिडि़यों की चहचहाहट से नींद खुली । फ्रेश होकर बाहर निकली तो विश्वविद्यालय का वातावरण मेरे मन को आकर्षित कर लिया । एक भी जगह या भवन ऐसा नहीं था जो बिना नाम का हो । सभी स्थानों का नाम हिन्दी साहित्यकार के नाम पर रखा गया था जो हमें सबसे अच्छा लगा । रिसेप्सन में बैठे कर्मचारी मुस्कुराते हुए सुप्रभात किया जो सच में बहुत अच्छा लगा । वहीं एक विदेशी साथी मिली जो इरान से आई हुई थी उनसे परिचय हुआ और साथ ही हमलोग चाय पीने कैंटिन की ओर बढ़े । वहाँ जाने के बाद और भी बहुत साथियों से परिचय हुआ । उद्घाटन कार्यक्रम १० बजे होने वाला था तब तक हम लोग परिचय के क्रम में ही थे । एकबार में तो किसी का नाम याद नहीं हो पाया, हाँ देश पता चल गया था । कुल २२ देशों से ३४ लोग उक्त कार्यक्रम में हिस्सा लेने वाले थे । कुछ साथियों का तो नाम उच्चारण ही करना मुश्किल हो रहा था, तो सब उसे उसके देश से ही बुला रहे थे । इसी तरह प्रथम दिन उद्घाटन सत्र के साथ ही एक कक्षा भी संचालन की गई । पहली कक्षा में सारे सहभागी बहुत ही कौतुहलता से उपस्थित हुए । शिक्षक को शांत होकर सुने । अब हम विद्यार्थी बन गए थे । १० से ५ तक हमारी कक्षाएं चलती रही । हरेक कक्षा हमें नए विषय, नए शिक्षक के साथ अभिभूत कराती । भारतीय परम्परा, संस्कृति, दर्शन, इतिहास, योग, व्याकरण इत्यादि विषयों का अध्यापन हुआ । पढ़ना और खाना । खाना का प्रबन्ध भी बहुत ही अच्छा था और खिलाने वाले भी बहुत ही अच्छे ।
१२ दिन की शैक्षिक अवधि में ही दो दिन हमें सांस्कृतिक भ्रमण के लिए महाराष्ट्र के औरंगावाद में अवस्थित अजन्ता, एलोरा, देवगिरी, तथा घृष्णेश्वर ज्योर्तिलिंग ले जाया गया । इन जगहों के बारे में हमने इतिहास में पढ़ा था । आंशिक जानकारियां थी पर करीब से देखने का एक अलग महत्व होता है । हम पहले एलोरा की गुफा गए । वहाँ बहुत भीड़ थी । पास लेकर प्रवेश करने की व्यवस्था थी । अन्दर जाने के बाद इतना अच्छा लगा बयाँ करना कठिन हो रहा है । सबसे पहले १६ नम्बर की गुफा में हमने प्रवेश किया क्योंकि वह गुफा कैलाश मन्दिर के कारण अत्यधिक महत्वपूर्ण है । एक ही पत्थर को काटकर उस मन्दिर का निर्माण किया गया है । गुफा की हरेक दीवार कारीगरी से परिपूर्ण है । मूर्तिकला का उस समय कितना महत्व था, वहाँ जाकर पता चलता है । बौद्ध, जैन और हिन्दु धर्म से सम्बन्धित वहाँ मूर्तियाँ है । विकिपीडिया के मुताबिक एलोरा या एल्लोरा (मूल नाम वेरुल) एक पुरातात्विक स्थल है, जो भारत में छत्रपति संभाजीनगर, महाराष्ट्र से ३० कि.मि. की दूरी पर स्थित है । इन्हें राष्ट्रकूट वंश के शासकों द्वारा बनवाया गया था । अपनी स्मारक गुफाओं के लिए प्रसिद्ध, एलोरा युनेस्को द्वारा घोषित एक विश्व धरोहर स्थल है ।
एलोरा भारतीय पाषाण शिल्प स्थापत्य कला का सार है, यहाँ ३४ “गुफÞाएँ” हैं जो असल में एक ऊर्ध्वाधर खड़ी चरणाद्रि पर्वत का एक फÞलक है । इसमें हिन्दू, बौद्ध और जैन गुफा मन्दिर बने हैं । ये पाँचवीं और दसवीं शताब्दी में बने थे । यहाँ १२ बौद्ध गुफाएँ, १७ हिन्दू गुफाएँ और ५जैन गुफाएँ हैं । ये सभी आस–पास बनीं हैं और अपने निर्माण काल की धार्मिक सौहार्द को दर्शाती है । पर वहाँ की सारी मूर्तियाँ खण्डित है । यह देख कर बहुत दुख लगा । पहले तो लगा कि बहुत पुराना होने के कारण सारे टूट गए हैं पर शिक्षकों से पूछने पर पता चला कि मुस्लिम शासन काल में इसे क्रुरता से तोडा गया है । आश्चर्य की बात तो यह है कि मूर्तियों में जो रंग भरे गए हैं वह भी अभी तक वैसे ही दिखते हैं । सच में वह स्थल विश्व का ही गौरव है ।
शाम होने लगी थी हम सभी घृणेश्वर महादेव दर्शन के लिए निकले । एलोरा के पास ही वह मन्दिर है । हमलोगों को अतिथि समझकर विशेष रूप से दर्शन कराया गया । बाबा की पूजा करके मन पवित्र हो गया । उसके बाद वहीं भोजन कर उस रात हम औरंगावाद में ही ठहरे । सुबह उठते ही देवगीरी, दौलतावाद और अजन्ता भ्रमण के लिए निकल पड़े । सबसे पहले देवगीरी गए जिसे बाद में तत्कालीन मुगल शासक ने दौलतावाद किला बना दिया था । यह किला पहाड़ी पर है । अभी भी वहाँ बहुत कुछ देखने को है । एक बहुत ऊँची मीनार अभी भी सही सलामत है । जल संचित करने के लिए जो पोखर बनाया गया था वह भी पुराने रूप में ही है । जब कुछ ऊपर चढ़ी तो वहाँ एक मन्दिर दिखा जिसमें भारत माता की सुन्दर प्रतिमा विराजमान थी । बहुत अच्छा लगा । वहाँ पुजारी से पूछने पर पता चला कि यहाँ शुरु से ही भारत माता का मन्दिर था परन्तु आततायियों ने तोड़कर अपना किला बनाया था, पर अभी भारत माँ की प्रतिमा स्थापित है ।
तब हम पहुँचे वहाँ से बहुत दूर अजन्ता की गुफाएँ । बहुत ज्यादा भीड़ थी वहाँ । वहाँ जाने के लिए चार किलोमीटर पहले ही व्यक्तिगत गाडी ले जाना निषेध है । चाहे कितना भी भीआईपी क्यों न हो सभी को कतार में लगकर महाराष्ट्र परिवहन में ही जाना पडता है । सबके लिए एक नियम देखकर बहुत अच्छा लगा । हम सारे लोग अन्दर गए । ऊँचे पहाड़ पर चढ़ने के कारण हमारे ग्रुप में से कुछ लोग नीचे ही रह गए । कुछ लोग बीच रास्ते तक पहुँचे पर कठिनाई होने की वजह से वहीं रुक गए । कम ही लोग २७ गुफाओं का दर्शन कर पाए । हरेक गुफा में बुद्ध भगवान की मूर्ति थी । विभिन्न गुफाओं में विभिन्न मुद्राओं में भगवान बुद्ध थे । अन्तिम गुफा में बुद्ध के शयनमुद्रा की मूर्ति है । वहाँ बहुत सुन्दर कलाकृतियाँ हंै । प्राकृतिक सुन्दरता से परिपूर्ण है वह घाटी । मन आनन्दित हो गया । थकान तो हुई पर कुछ पता नहीं चला । पुनः हमलोग विश्वविद्यालय वापस आए और फिर से पढ़ाई में लग गए ।
उसी दौरान संयोगवश १५ अगस्त अर्थात् भारत का ७७ वाँ स्वतन्त्रता दिवस पड़ा । हम बहुत उत्सुक थे स्वतन्त्रता दिवस मनाने हेतु । १५ अगस्त के दिन हम सबेरे तैयार होकर विश्वविद्यालय के प्रशासनिक मैदान में पहुँच गए थे । हम सारे विदेशी औपचारिक परिधान में थे । पुरुष कुर्ता पाजामा और महिलाएँ साड़ी पहनी हुई थी । यह देख वहाँ के शिक्षक, कर्मचारी बहुत खुश हुए । हमने बड़े ही हर्ष के साथ स्वतन्त्रता दिवस मनाया । झन्डा फहराने के बाद मिठाइयाँ मिली । हम मिठाई खाए और उस दिन भी हमें शैक्षिक भ्रमण पर ले जाया गया । गाँधी आश्रम, पवनार और रामटेक । गाँधी आश्रम पहुँचने के बाद ऐसा लगा जैसे गाँधी जी से साक्षत दर्शन हो रहा है । उनके आश्रम में वो सारी चीजें अभी भी यथावत हैं जिसका वे प्रयोग करते थे । उनका चरखा, उनका लालटेन, उनका टेलिफोन, उनकी लाठी, उनके नहाने की बाल्टी इत्यादि । उनके सामानों से पता चलता है कि उनका रहन सहन कितना साधारण था । वहाँ जाकर मन को बहत शांति मिली । गाँधी जी अपने जीवन काल का एक दशक वर्धा में ही बिताए थे । वर्धा को उन्होंने इसलिए चुना कि वह स्थान भारत का मध्य है । तत्पश्चात हम पवनार के लिए निकल पडे । विनोवा जी के आश्रम की तरफ । वहाँ भी उनकी बहुत सारी किताबें मौजुद है । बगल में एक बहुत बड़ा पोखर है जिसमें झरना की तरह पानी निकलता रहता है । वहीं बीच में एक मन्दिर भी है जहाँ लोग दर्शन के लिए आते रहते हैं । वहाँ से हम रामटेक राम दर्शन के लिए निकले । वह स्थान भी बहुत मनमोहक है । पहाड़ों से घिरा हुआ है । बीच में राम जी का मन्दिर है जो बहुत ही सुन्दर है । कहा जाता है कि राम जी जब वनवास जा रहे थे तो उस समय वहाँ अगस्त मूनि के आश्रम में वे ठहरे थे और अगस्त मूनि से भी कुछ अस्त्र शस्त्र उन्हें मिला था जो रावण बध में सहायक सिद्ध हुआ था । बहुत अच्छा लगा वहाँ जाकर, जय श्रीराम का नारा लगाकर ।
उसी दिन हम रात को वापस विश्वविद्यालय लौट गए थे । पुनः अगले सुबह से अध्ययन अध्यापन प्रारम्भ हो गया था । दक्ष प्राध्यापकों से हमें अध्यापन करवाया गया । सूक्ष्म से सूक्ष्म बातों का ज्ञान हुआ । हमें भी अपने देश का कुछ इतिहास और संस्कृति बताने का अवसर मिला । क्रमशः अब हमारी शैक्षिक अवधि समाप्त होने वाली थी । शुरु में तो घर की याद आई थी परन्तु जैसे–जैसे वहाँ से परिचित होती गई तो फिर कुछ दिन वहीं का हो के रह गई थी । जिसका आरम्भ होता है उसका अन्त भी तो निश्चित ही होता है तो हमारे शैक्षिक यात्रा का अन्तिम दिन अर्थात १९ अगस्त आ गया था । मन में कुछ अजीब सा हो रहा था । जो साथी बने थे सभी के चेहरे पर उदासी के भाव झलक रहे थे । उसी दिन हमारी परीक्षा ली गई । सभी को अपने ज्ञान के अनुसार ग्रेड देकर सर्टिफिकेट दिया गया । हमें प्रेम का प्रतीक देकर स–सम्मान विदाई किया गया । भारती सांस्कृतिक सम्बन्ध परिषद के महानिदेशक से हमारे अभिवृद्धि कार्यक्रम के बारे में कुछ देर चर्चा हुई । कार्यक्रम सफल रहा और हमारी यात्रा भी । हम आजीवन इस यात्रा के प्रति कृतज्ञ रहेंगे और उनके भी जिनकी वजह से यह यात्रा संभव हो पाई ।






