“गधाजात्रा”
व्यग्ंय( बिम्मीकालिंदीशर्मा
मल्ल राजाओं नें नेपाल में गाय जात्रा की शुरुवात की थी । पर अब गाय कोई नहीं बनना चाहता या बनाना नहीं चाहता । इसीलिए देश में और संसद में गधों की भरमार इतनी हो गई है कि गाय की जगह पर गधा जात्रा मनाना पड़ रहा है । पहले यह जात्रा रक्षाबंधन नारियल पुर्णिमा के अगले दिन पड़ता था पर अब बारहो महीने और हर दिन कभी गाय की, कभी भैंस की तो कभी गधे की जात्रा कहीं न कहीं निकल रही है । इन जात्राओं की वजह से कभी सड़क जाम होता है तो कभी दिमाग जाम । लोकतंत्र में गाय हासिए पर चला गया है और गधों के पौ बारह हो गया है ।
इसीलिए चारों तरफ नजर घुमाईए सब जगह गधे ही गधे नजर आएँगे । यह गधे भले ही मुँह से ढेचूं, ढेंचू न करें पर ईन की सोच और कार्य शैलीढेचूं, ढेंचू तरह का ही होता है । आखिर में यह गधे बेचारे अपने नेता नाम के मालिकों के नजरिया और सोच का बोझा जो दिमाग में हमेशा ढोते रहते हैं । कोई शरीर से गधा है तो कोई दिमाग से । पर सभी गधे ही है । इसीलिए तो सरकार को मालिक मान कर उस का कहा मानते हैं और सत्ता के झूठ का बोझा अपने पीठ पर ढोते रहते हैं ।
अभी संसद में दो तिहाई गधों का राज है । पर यह गधे अपने पीठ पर लदे सम्पन्नता के बोझ से उन्मत्त हो गए हैं इसी लिए अपने मुखिया धोबी का कहा नहीं मान रहे हैं । इन दो तिहाई गधों को उनसे चौगुने गधों ने आंख बंद कर के वोट दे कर जिताया था कि वास्तविक गधों कि स्थिति में सुधार होगा । पर हुआ उल्टा संसद में जीत कर गए और जिन्होने दो तिहाई गधों कि मदद से सरकार बनाया उन्होंने सडक में चर रहे गधों के सिर पर सौ गुना ज्यादा कर का बोझा लाद दिया है । जिस से यह बेचारे चल नहीं पा रहे हैं । हमारे देश की अवाम भी गधा ही तो है जो सरकार का कुड़ा करकट अपने सिर पर ढो रही है ।
चाहे राणा शासन हो या पंचायती राज हो, बहुदल, गणतंत्र या लोकतंत्र हो । हर तंत्र ने देश की अवाम को गधे से ज्यादा नहीं समझा है । ईसी लिए तो इस देश में गायजात्रा से ज्यादा गधा जात्रा हीं ज्यादा फबता है । वैसे भी सदियों से गायों की जात्रा कर के उनका फालुदा बना दिया है सब ने । अब गायों को भी तो आराम करने देना चाहिए । वह बेचारे थक गए हैं हर साल जात्रा में शामिल हो कर । गाय हमारी माता है भी कहते हो और उसी माता की जात्रा निकाल कर बेइज्जती भी करते हो । ऐसा भी कहीं होता हैं । कभी, कभी भैंसो को भी मौका देना चाहिए जात्रा करने के लिए । आखिर में इस देश के पहले राष्ट्रपति भी भैंसपति ही थे, उनको भैंस बहुत ही प्रिय थी ।
सड़क में किसी विविआईपी का प्रोशेसन चलता है तब इस देश की अवाम गधा बन जाती है और घटों तक उस विविआईपी के कारण जाम में फंसती है पर भी मुँह से उफ तक नहीं करती । ईसी गधे रुपी अवाम के पीठ पर सरकार जब महंगाइ का कोडा मारती है । वह कुछ देर हिनहिनाती है पर फिर चुपचाप महंगाई का बोझा अपने पीठ पर सह लेती है । आखिर में गधा करेगा भी तो क्या ? वह घोड़े की तरह दूलत्ती मार भी नहीं सकता । गधे बेचारे का जन्म तो सिर्फ बोझा ढोने के लिए ही हुआ है । जब देश में इतने सारे गधे हैं तो फिर गायजात्रा मनाने का क्या तुक है ?
गधाजात्रा मनाओ और गधे की शान बढाओ । वह बेचारा हर दिन तो बोझा ढो ढो कर कुबड़ा हो ही चुका है । साल में एक दिन तो गधे की जात्रा मना कर गधा और देश का मान बढाओ । अन्तराष्ट्रीय रुप में भी हमारी छवि या पहचान एक गधे से ज्यादा की नहीं हैं । ईसी लिए तो वैदेशिक रोजगार में ईन की बडी मागं हैं । ईसी लिएअब से गायजात्रानहीं गधाजात्रामनायाजाएऔर गधे किआन, बानशानको बढाया जाए । क्यों किहम कर और महंगाई की मार से दिखने में भले ही ईसान जैसे हो पर सोच और कार्यशैली मे हम सब गधे ही हैं । इसी लिए तो सत्ता का विरोध नहीं करते बस ढेंचू, ढेंचू करते हैं । क्योंकि गधे की तरह हमारे सिर में भी सिंग नहीं हैं, और जो है वह भी गायब हो जाता है । इसी लिए बंदर भले ही हमारे पूर्वज रहे हो पर वर्तमान और भविष्य हमारा गधा ही है । ईसी लिए कोई हमको गुस्से से गधा कह कर डांटे तो हमे बुरा नहीं मानना चाहिए बल्कि उस का शुक्रिया मानना चाहिए कि उस ने कम से कम गधा तो समझा । आखिर में वह भी तो एक गधा है ।