प्रभु चरणों में, प्रीति घनी थी; छोड़ राज को, संन्यासी बन; चले, विभीषण ।
गंगेश मिश्र
भक्ति-भाव में, कमी नहीं थी;
प्रभु चरणों में, प्रीति घनी थी;
छोड़ राज को, संन्यासी बन;
चले, विभीषण ।
हर्षित मन, जीवन धन ले के;
राज-वस्त्र, तिलाञ्जलि दे के;
छोड़ के भाई; आतातायी;
चले, विभीषण ।
मगन प्रेम में, आकुल-व्याकुल;
भाव-विभोर, हृदय शंकाकुल;
दरस को आतुर, डरते मन से;
चले विभीषण ।
दुत्कार दिया,अपमान किया;
रावण नें, घोर अन्याय किया;
पर भेद खोल, भेदी उपमा ले;
चले, विभीषण।
कुलवंश, नाश का कारक भी;
स्वीकार्य भला, होता है कभी;
थे भक्त भले, पर हुए कलंकित;
चले, विभीषण।