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जितना हो सके सभी को प्यार करो ।
यहाँ तक कि दुश्मनों में भी प्यार को ढूँढ कर देखो



कृष्णजंग राणा

हिमलिनी, अंक अक्टूबर 2018 । अपने समय के चिर–परिचित मेडिकल डॉक्टर हैं– डॉ कृष्णजंग राणा । आप जिन्दगी के ८७ वसंत को देख चुके है । आपके पिता का नाम भगवत जंगबहादुर राणा और माता का नाम मिनकुमारी राणा है । आज की नई पीढ़ी, जो राणा जी को जानते हैं, उनमें से अधिकांश लोग आपको साहित्यकार के रूप में जानते हैं, एक अच्छे गजलकार मानते हैं । पर उनकी जीवनी की ओर अगर हम नजर डालें तो यह पता चलता है कि राणा वह शख्स हैं, जिनके पूर्वजों का इतिहास नेपाली राजनीतिक इतिहास से भी जुड़ा हुआ है । नेपाल के इतिहास में शाह और राणा ऐसे खानदान हैं, जिसकी चर्चा के बगैर नेपाल का इतिहास अधूरा है । जी हां, राणा खानदान के इतिहास को जाने या लिखे बिना नेपाल के इतिहास की जानकारी पूरी नहीं हो सकती है । नेपाल के इतिहास में दो व्यक्तियों पर नेपाल के इतिहास का आधार टिका हुआ है, वो हैं पृथ्वीनारायण शाह और जंगबहादुर राणा है । नेपाल के इतिहास में तत्कालीन समय में राजाओं को श्री ५ और राणा प्रधानमन्त्रियों को श्री ३ के रूप में जाना जाता है । डा. राणा श्री ३ जंगबहादुर की पाँचवी पीढी के सन्तान हैं । हमारे इतिहास के इन्हीं पन्नों से आबद्ध शख्शियत डा. राणा का जीवन–सन्दर्भ आपके समक्ष आपकी ही जुबानी प्रस्तुत है–
पारिवारिक पृष्ठभूमि
मैं नेपाल के चिर–परिचित राणा खानदान से जुड़ा हुआ आदमी हूँ । तत्कालीन श्री ३ जंगबहादुर राणा मेरे ही वंशज हैं । उनकी ५वीं पीढ़ी का मैं सन्तान हूँ । जंगबहादुर के बेटे जगतजंग उनके बेटे राजजंग, उनके बेटे भगवतजंग थे । भगवतजंग मेरे पिताजी हैं ।
इतिहास देखें तो पता चलता हैं कि नेपाल का राणा खानदान खून से भरा हुआ था । श्री ३ बनने के लिए भाई–भाई के बीच दुश्मनी होती थी । जंगबहादुर के बडेÞ बेटे जगतजंग, जो मेरे दादा जी के पिता थे । भाई–भाई के बीच के झगड़ों में ही उनकी हत्या हुई । जगतजंग के सबसे बडेÞ बेटे युद्धप्रताप को भी मार दिया गया । ऐसी ही अवस्था में राणा खानदान के कई सदस्य नेपाल से पलायन कर गए, और ऐसे में ही हमारे दादा जी राजजंग राणा करीब १८ साल की उम्र में यहां से सन् १८८५ में भाग कर भारत के अयोध्या चले गए थे । अयोध्या के राजा ने उनको शरण दिया । दादा जी जब १९१८ में वापस लौटकर नेपाल आए, उस समय मेरे पिता जी की उम्र करीब १९ साल की थी । यानी काफी साल तक मेरे दादा और पिता जी भारत में शरणार्थी के रूप में रहे हैं । जब यहां की स्थिति बेहतर हुई तो वो लोग वापस आए और नेपालगंज में रहने लगे ।
मैं नेपालगंज में पैदा हुआ हूं । उस समय हम ५ भाई थे । मैं नम्बर ३ में आता हूं । उस वक्त लोग सोचते थे कि यह लोग तो राणा खानदान से हैं । उन लोगों की दृष्टि में हम लोग बहुत बड़े आदमी थे । लेकिन हमारी घर की स्थिति उतनी अच्छी नहीं थी । मेरे पिता जी छोटे–छोटे काम किया करते थे । यहां तक कि जंगलों में जा कर लकड़ी कटवा कर बेचते थे, फिर पिता जी ने स्थानीय मिल में एकाउन्ट का भी काम किया ।
मेरी शिक्षा और डॉक्टर बनने का खयाल
मैं शायद ८–१० साल का था । मेरे पिता जी, डाबर डाक्टर एस के वर्मा (कलकता) से दवा मंगाते थे और लोगों को मुफ्त बाँटते थे । पिता जी का यह कार्य मुझे बहुत अच्छा लगता था । इसीलिए मैं अपने नाम के आगे ‘डाबर डॉक्टर एसके वर्मा लिमिटेड कलकत्ता’ लिखता था । अर्थात् मेरा पूरा नाम ‘डाबर डॉक्टर एसके वर्मा लिमिटेड कलकत्ता कृष्णजंग राणा’ होता था । लेकिन उस समय मुझे डाक्टर क्या होता है, पता नहीं था । तब भी मैं अपने नाम के आगे उल्लेखित शब्द रख लेता था । आज ये याद करता हूं तो मुझे हंसी आती है । मुझे लगता है कि मेरे अवचेतन मस्तिष्क में यह अंकित था कि मुझे भविष्य में डाक्टर बनना है और वह शायद उसकी शुरुआत थी, जिसकी वजह से मैं डाक्टर शब्द की ओर आकर्षित हो रहा था और जो भविष्य में मुझे चिकित्साशास्त्र से जोड़ने वाला था ।
उस समय नेपालगंज में कुछ भी नहीं था, सड़कें नहीं थीं, स्कूल नहीं थे । उसी समय एक सरकारी स्कूल खुला । उस स्कूल में दो शिक्षक थे, जो भारत से आए । उनके सही नाम मुझे याद नहीं लेकिन एक को हम लोग ‘ढुनमुन मास्टर’ बोलते और दूसरे को ‘भैया जी’ । शायद ६–७ साल की उम्र में मैं स्कूल में भर्ना हुआ था । स्कूल में ३ कक्षा तक ही पढ़ाई होती थी । हम लोगों ने देखा कि स्कूल में १ क्लास, २ क्लास और ३ क्लास है ! लोग ३ क्लास खत्म होने के बाद फिर १ क्लास, २ क्लास… पढ़ते थे ! उस समय मुझे लगा– ‘अच्छा ! संसार में सिर्फ ४ ही क्लास होते हैं, जहां टीचर हम लोगों को ३ क्लास से आगे पढ़ने ही नहीं देते हैं । अगर पढ़ने देते तो हम लोग भी टीचर बन सकते हैं ।’ अर्थात् ३ क्लास खतम होने के बाद भी अभिभावक बच्चे को स्कूल भेजते थे, हम लोग जाने के लिए बाध्य थे । उस समय हम लोगों को सुनने में आया कि बिल्ली अपना सब गुण अपने बच्चे को नहीं सिखाती है । यही बात सुनकर हम लोगों को लगता था कि उसी तरह हमारे मास्टर साहेब भी हम लोगों को ३ क्लास से और आगे बढ़ने ही नहीं देते हैं ।
कुछ साल के बाद वहां एक दूसरा स्कूल खुला । मुझे ४ क्लास में एडमिसन होने का मौका मिल गया । ६ महीने के बाद मेरा नाम ५ क्लास में लिखवाया गया । ७ क्लास तक मैंने वहीं पढ़ाई की । उसके बाद नेपालगंज से मैं बहराइच हाइस्कुल भारत (युपी) चला गया । १० क्लास तक वहां पढ़ा । उसके बाद ही मेरे दिमाग में आया कि मुझे डाक्टर बनना है । तब मैं गणित और विज्ञान में ज्यादा ध्यान देने लगा । लखनऊ स्थित क्रिश्चियन कॉलेज में एडमिसन होकर बायोलॉजी अध्ययन करना शुरु किया । सामान्यतः बायोलॉजी इसीलिए लेते हैं कि या तो आप डाक्टर बने या फारिस्टर में जाए, या एग्रीकल्चर में जाएँ । उस समय इञ्जीनियरिङ में जानेवाले विद्यार्थी विशेषतः मैथमेटिक्स लेते थे । सन् १९५२ में मैंने क्रिश्चिन कॉलेज से १२ क्लास पास किया । उसके बाद मुझे लखनऊ स्थित मेडिकल कॉलेज में मेडिकल अध्ययन के लिए सीट मिल गयी । और मैं डाक्टर बन ही गया । बाद में मैंने कलकता यूनिवर्सिटी से डी.पी.एच. और क्यालिफोर्निया (अमेरिका) से पी.एच.डी किया । और आपने काम के सिलसिले में तमाम डिप्लोमा कोर्स करता रहा । जमेका से मलेरियोंलोजिस्ट, फिलिपिन्स से इप्पीडिमियोलोजिस्ट, जेनेभा से एडवान्स इपीडेमियोलोजिस्ट और बाद में ब्रिटेन (लंडन) से हेल्थ प्यानिंग किया ।
मेडिकल ऑफिसर के पद पर पाल्पा में
मैं शुरु से ही अन्तरमुखी स्वभाव का विद्यार्थी था । ज्यादा लोगों से बोलना और घुलना मिलना मुझ से नहीं हो पाता था । मुझे कुछ ज्यादा ही चोट भी लगती थी । एक तरह से मैं ‘भोला’ टाइप का विद्यार्थी रहा । जिसे देखो, वही मुझे धकेल देता था, किसी से झगड़ा नहीं करता था । मैं नेपाल के राणा खानदान से जुड़ा हुआ व्यक्ति हूं, इस बात का प्रभाव कहीं भी मेरे व्यक्तित्व में नहीं था, एक सामान्य घराने का स्वभाव ही मुझमें था ।
सन् १९५७ में मैंने मेडिकल कॉलेज से अपना अध्ययन पूरा किया । उसके बाद तत्कालीन सरकार ने एक मेडिकल ऑफिसर के रूप में मुझे पाल्पा भेज दिया । यह मेरी पहली पोस्टिंग थी । जब मैं पाल्पा जिला अस्पताल में पहुँचा तो वहां कुछ भी नहीं था । अस्पताल के रूप में एक मकान था, उसमें ३ दीवारें थीं, एक दीवार गिरी हुई थी । इस तरह का अस्पताल देखकर मुझे आश्चर्य लगा । यहां बैठ कर मुझे क्या करना है ? शुरु में तो मुझे कुछ भी पता नहीं चला ।
उसी समय राजा महेन्द्र का वहाँ आना हुआ । राजा महेन्द्र से मैंने बात की । उन्होंने कहा तुम यंग जेनरेशन के हो, तुम ही कुछ करो । मैंने कहा कि मैं क्या करूँ ? खुले आसमान के नीचे बैठकर मैं नाखून से ऑप्रेशन नहीं कर सकता हूँ ! शायद राजा महेन्द्र मेरी बात से प्रभावित हो गए थे, बावजूद इसके खास सहयोग नहीं मिला । बाद में मैंने स्थानीय वासियों का सहयोग लेकर अपने ही खर्च में वहां एक लम्बी–सी झोपड़ी बनाई, जहां उपचार के लिए आए लोगों को रखा जा सके ।
शायद सन् १९५८ की बात है । मैं पाल्पा में ही था, गांव में कालरा (हैजा) फैल गया । गांव के लोगों में आतंक मचा हुआ था । उपचार के लिए अस्पताल में कुछ नहीं था । सारे बीमार लोगों की आखेंं पीली हो गई थी । मुझे लगा कि अब मैं मरीजों को नहीं बचा पाऊंगा । लेकिन जब मैंने ‘ड्रिप’ देना शुरु किया तो सभी की आंखे धीरे–धीरे लाल होने लगी । उस वक्त मेरे मुंह से निकल गया– ‘ओ माई गॉड ! मैंने जितना पढ़ा है, वह सब वसूल हो गया ।’ शायद वह मेरी जीवन की पहली और सबसे बड़ी खुशी थी । मैने सोचा कि मैंने कम से कम १६–१७ लोगों को बचाया है, इससे बड़ी बात और क्या हो सकती है !
मलेरिया उन्मूलन में सक्रियता
मेरे खयाल से मैं सिर्फ १०–११ महीने ही पाल्पा में रहा । उसके बाद मैं मलेरिया उन्मूलन केन्द्र (काठमांडू) में आ गया । उस समय पूरे विश्व में मलेरिया उन्मूलन संबंधी अभियान संचालित हो रहा था । नेपाल के अधिकांश जिला मलेरिया से प्रभावित थे, विशेषतः तराई–मधेश के जिला अत्याधिक प्रभावित थे । अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग से नेपाल में भी मलेरिया उन्मूलन अभियान संचालित था । सभी देशों का एक ही उद्देश्य था– मलेरिया पूर्ण रूप में अन्त हो सके । मैं उसी अभियान में सक्रिय रहा । क्षेत्रगत प्रमुख, आंचलिक प्रमुख, डिप्यूटी ऑफिसर, ऑफिसर होते हुए मैं उस संस्था में चीफ ऑफिसर तक बन गया । यूं कहे तो मेरा सम्पूर्ण जीवन मलेरिया उन्मूलन के लिए ही समर्पित रहा ।
अपने कार्यकाल में मैं पूर्व मेची से लेकर पश्चिम महाकाली तक पहुँचा हूं । हमेशा मेरी एक ही जिम्मेदारी रहती थी– मलेरिया उन्मूलन के लिए कुछ करना । आवश्यक औषधि लेकर गांव–गांव और जंगल के भीतर तक घूमना पड़ता था । मेरे खयाल से मलेरिया प्रभावित ऐसा कोई भी जिला नहीं है, जहां मैं नहीं पहुँचा हूं । अमलेखगंज, वीरगंज, विराटनगर, नेपालगंज जैसे मुख्य शहरों में मैंने खुद नेतृत्व कर मलेरिया उन्मूलन के लिए काम किया है । अधिकांश गांव के ९० प्रतिशत से अधिक लोग मलेरिया से संक्रमित होते थे । सब का पेट फुला हुआ रहता था । उन लोगों का उपचार करना मेरी जिम्मेदारी रहती थी । मैं खुद भी मलेरिया से संक्रमित व्यक्तियों में से एक था । शायद ६ साल की उम्र में मुझे मलेरिया हुआ था, १४ वर्ष तक मैं मलेरिया से सफर करता रहा । अर्थात् ८ साल तक मैं मलेरिया का मरीज रहा ।
मेरे सम्पर्क में आनेवाले लोगों में से मलेरिया प्रभावित अधिक लोग कैलाली–कञ्चनपुर, झापा और चितवन के थे । मेरे खयाल से सबसे ज्यादा मलेरिया प्रभावित व्यक्ति चितवन के निवासी थे । उस समय मैं अमलेखगंज में रहता था । उपचार के लिए चितवन जाना पड़ता था । मलेरिया प्रभावित लोगों को उपचार के लिए वहां एक डेभलपमेन्ट ऑफिसर भी रखा गया था । मलेरिया के डर से ही चितवन में लोग नहीं रहना चाहते थे । जब मलेरिया विरुद्ध अभियान शुरु होने लगा, तब से वहां मानव बस्ती शुरु होने लगा । मेरे देखते ही देखते वहां गांव बन गया, आज तो चितवन एक शहर हो चुका है ।
मैंने अपने देश में करीब १५ साल काम किया । इसके बाद मुझे विश्व स्वास्थ्य संगठन में काम करने का मौका मिला । यहाँ पर भी मैं मलेरिया उन्मूलन÷कंट्रोल के ही काम में था । इस सिलसिले में मेरी पोस्टिंग इन्डोनेसिया, बंगलादेश तथा भारत में हुई । उसी दौरान मैंने ४०–५० देशों में भ्रमण किया और वहां पर भी मलेरिया के मरीजों की सेवा रकता रहा ।
जीवन के प्रति मुझे कोई भी पश्चाताप नहीं है । अपने सेवा काल में मेडिकल ऑफिसर के रूप में मैंने जो करने के लिए सोचा था, मुझे लगता है कि उससे भी ज्यादा किया हूँ । सबसे अधिक खुशी की बात तो यह है कि मैं अपने जीवन के प्रति सन्तुष्ट हूँ । मेरे खयाल से मैंने अपने जीवन में कोई ऐसी गलती भी नहीं की है, जिस को लेकर मुझे पश्चाताप हो ।
भरापूरा परिवार
आज मेरा परिवार भरापूरा, सम्पन्न और खुशहाल है, साथ में मेरी पत्नी शान्ता है, जो इस परिवार की सफलताओं की बराबर की हिस्सेदार रही है । मेरे चार बेटे हैं– बरदान, अभिमान, विज्ञान तथा अनुदान । चारों ही शिक्षित, सम्पन्न तथा खुशहाल हैं, मैंने हमेशा यही चाहा था कि मेरे बेटे मुझसे ज्यादा शिक्षित हो, ज्यादा सम्पन्न हों और ऊपरवाले की कृपा से ऐसा ही हुआ है ।
मेडिकल सेक्टर में अपेक्षित सुधार नहीं हो रहा है
मेरे जमाने में मेडिकल सेक्टर की अवस्था जैसी थी, उसमें कुछ सुधार तो हुआ है, लेकिन जितना होना चाहिए, उतना नहीं हो पाया है । हां हॉस्पिटल और स्वाथ्य चौकी की संख्या में वृद्धि हुई है, लेकिन हॉस्पिटल में जो सेवा–सुविधा मिलनी चाहिए, वह नहीं है । हॉस्पिटल, मेडिकल कॉलेज तथा क्लिनिक शहर केन्द्रीत है । लेकिन रियल पॉपुलेशन गांव में हैं, पहाड़ो में हैं । वे लोग स्वास्थ्य सेवा से आज भी वंचित हैं, गुणस्तरीय स्वास्थ्य सेवा उन लोगों की पहुँच में आज भी नहीं है । काठमांडू के अलावा पोखरा, नेपालगंज जैसे शहरों में भी ह‘स्पिटल तो खुला है, लेकिन वह पहाड़ के लोगों के काम में नहीं आ रहा है । पहाड़ में आज भी ऐसे गांव है, जहां रहनेवालों को हस्पिटल पहुँचने के लिए ३–४ दिन पैदल चलना पड़ता है, तो स्वास्थ्य सेवा कहां सर्वसुलभ हो पाया है ?
आज मैं सुन रहा हूं कि मेडिकल शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा को सर्वसुलभ बनाने के लिए डा. गोविन्द केसी आन्दोलित हैं, उनके नेतृत्व में आन्दोलन हो रहा है । लेकिन इसके बारे में मुझे ज्यादा पता नहीं है, क्योंकि आज तो मैं इस क्षेत्र से बाहर हो चुका हूँ, २७ साल से मैं रिटायर्ड जीवन जी रहा हूँ । रिटायर्ड जीवन के बाद मैं सामाजिक सेवा और साहित्य में ज्यादा सक्रिय रहा हूँ । तब भी इतना तो कह सकता हूँ कि स्वास्थ्य सेवा आज भी आम लोगों की सहज पहुँच में नहीं है ।
मेरी साहित्यिक यात्रा
मैं बगैर काम के नहीं रह सकता हूं । जब मैं रिटायर्ड हो गया तो सामाजिक सेवा की ओर सक्रिय हुआ । हार्टक्लब, टोल सुधार समिति जैसी अनेक संस्था स्थापित कर उस में सक्रिय रहने लगा । मैं हार्ट पेसेन्ट हूँ, मेरा दो बार बाइपास हो चुका है और ६ ‘स्टेण्ट’ लगे हुए हैं । रिटायर्ड होने के बाद भी जब मैं सक्रिय रहा तो मेरे बच्चे कहने लगे कि आप क्यों इतना काम करते हो, आप ऑलरेडी रिटायर्ड आदमी हो ! उन लोगों ने मुझे काम करने ही नहीं दिया । उसके बाद मैं क्या करुं ? इसीलिए साहित्य लिखना शुरु किया ।
साहित्य के प्रति मेरा झुकाव पहले से ही था । शुरु–शुरु में मैंने नेपाली में ही लिखा । लेकिन मुझे हिन्दी में लिखना सहज लगता है । क्योंकि नेपाली तो मैंने पढ़ा ही नहीं है । हमारे समय में हिन्दी में ही पढ़ाई होती थी । मैंने तो हिन्दी और अंग्रेजी में पढ़ाई की है । मेरी १९ पुस्तकें प्रकाशित हैं, २०वीं कृति की तैयारी हो रही है । प्रकाशित १९ पुस्तकों में से १० पुस्तकें नेपाली में हैं और ९ पुस्तकें हिन्दी में । मेरी जो भी नई किताबें है, वह सब हिन्दी में हैं और सब गजल । मैं विशेषतः गजल लिखना पसन्द करता हूँ । साथ में गीत और कविता भी लिखता हूँ । कथा और उपन्यास जैसे पद्य साहित्य में मेरी कलम नहीं चली है ।
मैं भगवान को नहीं मानता
आम लोग भगवान को जिस तरह मानते हैं, उस तरह मैं भगवान को नहीं मानता हूँ । मेरे खयाल से गणेश, विष्णु, महादेव जैसे भगवान इस दुनियां में नहीं हैं । लेकिन कोई ऐसी शक्ति है, उसको मैं मानता हूँ । ऐसी शक्ति, खुद मेरे अन्दर है और आप के अन्दर भी है । अर्थात् हर प्राणी के अन्दर वह पावर है, जो अदृश्य है । उसको मैं नमन करता हूं ।
मैं अपने परिवार के सदस्य और हर कोई से कहता हूँ कि संसार में कोई भी पूर्ण नहीं होता हैं । जो जितने भी ज्ञान से परिपूर्ण और बुद्धिजीवी क्यों नहीं कहलाए, वह भी अपूर्ण ही होते हैं । अर्थात् हर व्यक्ति अपूर्ण है । दूसरी बात यह भी कहता हूँ– हर व्यक्ति पूर्वाग्राही होते हैं । इसीलिए तुम किसी से बात करो या विचार–विमर्श करो, उसमें झगड़ने की बात नहीं है । क्योंकि यह दो चीजे ऐसी हंै, जो हर व्यक्ति और हर जगह पाई जाती हैं । व्यक्ति, व्यक्ति से पूर्वाग्रही होते हैं । देश, देश से पूर्वाग्रही होता है । धर्म, धर्म से पूर्वाग्रही है । हिन्दू कहता है कि मैं अच्छा हूं, मुस्लिम कहता है कि मैं अच्छा हूं । इसीतरह जात, जात से पूर्वाग्रही है । यहां तक कि मां–बाप भी पूर्वाग्रही होते हैं । बेटे बाप पर और बाप बेटे पर पूर्वाग्रही हैं । सुक्ष्म रूप में अध्ययन किया जाए तो यह भेद स्पष्ट रूप में दिखाई देता हैं । इसीलिए हर व्यक्ति को यह सोचना चाहिए कि ‘जो मैं सोचता हूँ, वह सब–कुछ सत्य हैं’ ऐसा नहीं है । अगर हम लोग इस सत्य को जानते और मानते हैं तो हमारे बीच आपसी दुश्मनी कम हो जाती है । हो सकता है कि मेरा यह कथन किसी को पसन्द ना हो । लेकिन मैं हर लोगों को यही सिखाता हूं, अर्थात् प्यार सिखाता हूँ । प्यार ही शान्तिपूर्ण जीवन के लिए एक मात्र मार्ग है ।
आज की नई पीढ़ी
हर आदमी में सिर्फ दो चरित्र होते है– सद्गुण और दुर्गुण । आज की नई पीढी भौतिकता के साथ–साथ दुर्गुण की ओर ज्यादा आकर्षित हैं । दुर्गुण का मतलब काम, क्रोध, मद्, मोह ईष्र्या, द्वेष, छल–कपट आदि है । सद्गुण में प्रेम, मोहब्बत, प्यार, दान, दया, करुणा, परोपकार, क्षमा, आदर जैसी भावनाएँ आती हैं । आज हर व्यक्ति पैसे के लिए लालची हो रहा हंै । ‘प्रेम’ का मतलब भी वे लोग सिर्फ दो विपरीत लिंगी के बीच होनेवाला आकर्षण अर्थात् ‘सेक्स’ को समझते हैं । लेकिन प्रेम का मतलब यह नहीं है । मेरी अधिकांश रचना प्यार पर ही आधारित है, अपनी रचना में मैंने प्यार का बयान किया है । लेकिन वह सेक्स के प्रति आकर्षित नहीं है । एक बाप अपने बेटे से प्यार करता है, बेटा बाप से प्यार करता हैं । एक लड़का, दूसरे लड़का और लड़की से आदर करता है तो, वह आदर भी प्यार ही है । हां, औरत और मर्द के बीच जो आकर्षण होता है और आपस में प्यार करते हैं वह भी प्यार का ही एक हिस्सा है । प्यार अहसास है, पवित्र भावना है उसे सिर्फ सेक्स तक सीमित नहीं किया जा सकता है । इसीलिए कहा होगा– ‘लव इज गॉड, गॉड इज लव ।’
जीवन की खोज
जीवन को मैंने बहुत ही नजदीक से देखा है, जिया है और भोगा है । जीवन तो बस, सुख–दुःख का ही मेला है । बचपन में मैंने तमाम शारीरिक कष्टों को भोगा है और मानसिक दुखों को झेला है । जब मैं २ साल का था तो मैं छत से गिर गया था और ४–५ दिन बेहोश पड़ा था, जीने की आश नहीं थी । ८ साल की उमर में सर में बहुत गहरी चोट आई और मैं महीनों कष्ट झेलता रहा, १० साल की उमर में मुझ पर बाघ ने आक्रमण किया था और मेरे पीठ में घाव बना दिया था । पेड़ो से गिरा हूँ, तालाब में डूबा हूँ ।
इसी बीच हम ४–५ बच्चों के पालन–पोषण और पढ़ाई के लिए संघर्ष करते हुए अपने माता–पिता को दुःख देखकर हम बच्चों का मन रोता था । जवानी के दिनों में लगा– जीवन तो सुखों का सागर है, खुशियों का झरना है । अब जीवन के इस उत्तरार्ध में लगता है कि जीवन तो एक सपना था– यादों की पिटारी सी, अतृप्त प्यास अथवा बैराग का सम्मिश्रण–सा । हम तो कुछ नहीं करते । समय, स्थिति परिस्थिति सब को नचाती ही रहती है । इसीलिएजीवन क्या है, यह कहना बहुत ही मुश्किल है । मैं भी यही चीज खोज रहा हूं कि जीवन है क्या आखिर ? इसीलिए मेरी २०वीं कृति का नाम ही ‘तलाश’ है । जीवन क्या है ? इसका ठोस जवाब तो मेरे पास भी नहीं है, लेकिन इतना तो बता सकता हूँ कि अगर हम चाहते हैं तो जीवन को सुखी और खुशी बना सकते हैं । खुद का जीवन खुशी और सुखी बनाना चाहते हैं तो सबसे पहले दूसरों को, चरा–चर जगत को प्यार करने की कला सिखाना जरुरी है । खुद से और दूसरों से प्यार करने से ही जीवन खुशी और सुखी हो सकता है । प्यार से सिर्फ अपनाें को ही नहीं, दुश्मनों को भी जीता जा सकता है । मैंने बहुत जगह कहा है–
जितना हो सके सभी को प्यार करो ।
यहाँ तक कि दुश्मनों में भी प्यार को ढूँढ कर देखो
प्रस्तुतिः लिलानाथ गौतम



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