Fri. Mar 29th, 2024

एबचबनचबउज क्तथभिेबचबउ ण्ण्घउचष्थबतamदयमथ त्भहतहिन्दू महिलाओं का महान पर्व ‘तीज’ सम्पन्न हुआ और इसके साथ ही खतम हुआ सम्भ्रान्त महिलाओं का पार्टर्ीीैलेसों, महँगे होटलों और रेष्टुरेण्टों में पार्टर्ीीा दौर। एक ऐसा व्रत जिस में निराहार रहते हुए भी पैर थिरकते हैं और होठों से संगीत फूटता है। संभवतः संदेश यह होता है कि पति की दर्ीघायु की कामना में भूखे रहते हुए भी चेहरे पर शिकन नहीं आती। इसे इस त्योहार का जादू ही कहा जाएगा कि परिस्थितियों की जटिलता और संवैधानिक-न्यायिक संस्थाओं के असहयोग के कारण समग्र रूप में अपनी असफलता का मर्सिया गाने वाले वर्तमान प्रधानमंत्री की पत्नी और एनेकपा मओवादी की वरिष्ठ नेत्री भी परम्परागत रूप में अपने पैरों को थिरकाती नजर आईं। ऐसे अवसर पर चेहरे पर मुस्कान लाजिमी थी। यद्यपि यह आस्था और विश्वास है कि प्रतिकूल परिस्थितियों में भी हमारी परम्पराएँ हमें खुशमिजाज रहने की सीख देती हैं। वैसे भी नेपाल सांस्कृतिक रूप से समृद्ध राष्ट्र है और मनुष्य के जन्म से लेकर मृत्यु तक के संस्कार नृत्य-संगीत से भरा पडÞा है। -सोहर से समदाउन तक की यात्रा में हमारा जीवन समाप्त होता है। इसलिए बात सिर्फमहिलाओं की ही नहीं, पुरुषों ने भी विपरीत परिस्थितियों में खुश रहने की कला विकसित कर ली है। शायद यही कारण है र्सर्ूय के अस्ताचल में प्रस्थान के बाद तथाकथित रूप में देश में मस्ती का वातावरण रहता है। अन्यथा हमारे राजनैतिक वृत्त में देश की समस्याओं के समाधान और सहमति के नाम पर अन्तहीन तीज की पर्ूव संध्या का समरूप भोजन और शब्दों का बिना ताल और लय नर्त्तन देखा जा रहा है, उस पर कब व्रि्रोह फूट चुका होता। लेकिन हमारी परम्परा सहनशीलता का पाठ हमें सीखाती है। इसलिए आमलोग सब कुछ सह कर भी चूप हैं, बिल्कुल खामोश…!
संविधान सभा के विघटन के चार महीने गुजर चुके लेकिन संवैधानिक और राजनैतिक रूप से देश अभी भी दिशाहीन अवस्था में है। यद्यपि ३ गते आश्विन को प्रमुख राजनैतिक दलों में एक सहमति हर्ुइ जिसमें नयी संविधानसभा के निर्वाचन में जाने का निर्ण्र्ाालिया गया। लेकिन इस निर्ण्र्ााको भी महत्वपर्ूण्ा नहीं माना जा सकता क्योंकि राष्ट्रीय सहमति की सरकार इसकी आवश्यक शर्त मानी गई और इस सहमति के लिए दलों के पास कोई निश्चित कार्ययोजना नहीं है। सबकी अपनी सोच और अपना स्वार्थ है। यह सच है कि विगत बैठक में निर्वाचन में जाने की सहमति तो हर्ुइ लेकिन किसके नेतृत्व में यह अनिणिर्त है। इसके अतिरिक्त और भी सवाल अनुत्तरित हैं कि आगामी संविधान सभा के सदस्यों की संख्या कितनी होगी, निर्वाचन के लिए संवैधानिक और कानूनी बाधाऔं को कैसे दूर किया जाएगा – प्रमुख विपक्षी दल राष्ट्रीय सहमति की सरकार बनने के बाद ही निर्वाचन की तिथि की घोषणा और इसके लिए आवश्यक संवैधानिक और कानूनी बाधाओं को दूर करने की बात कर रहे हैं जबकि सत्ता पक्ष समस्त विवादित बिन्दुओं पर सहमति की बात कर रहा है। इसलिए इस बैठक से जितनी उम्मीद जगी थी , सही मायने में उतनी आशा का वातावरण अभी भी नहीं बन पाया है।
आज दलों के बीच सहमति नहीं बन पा रही है। इसके पीछे के राजनैतिक मनोविज्ञान को हम समझ सकते हैं। इस देश ने और यहाँ की जनता ने लगभग ढार्Þइ दशक राजतंत्र की छत्रछाया में गुजारा है। कहना न होगा कि प्रजातांत्रिक अभ्यास भी यहाँ राजतंत्र के साए में पला-बढÞा। हमारे मौजूदा प्रजातांत्रिक अभ्यास के जिन तथाकथित महान नेताओं ने कभी राजदरबार में श्रद्धा से, भय से या स्वार्थ से सिर झुकाया आज की प्रजातांत्रिक प्रक्रिया में वे किसी न किसी रूप में नेपाली राजनीति के महाराज बनने की महत्वाकांक्षा पाले बैठे हैं। संघीयता से लेकर सरकार तक या अन्य विवादित मुद्दों पर जहाँ सहमति नहीं बन पा रही है, उसके पीछे मनोविज्ञान यही है। आज हमारे राजनैतिक वृत्त में दूसरों की बात न समझने की जो प्रवृत्ति है, अपनी बात को सर्वोपरि मानने की जो वृत्ति है और राष्ट्रीयता के नाम पर जनाकांक्षा को भी ठुकराने की मनोवृत्ति है, उसके पीछे यही महाराजापन है, जो व्यक्ति में सर्वोत्कृष्ट और र्सवशक्तिमान बनने का अहंकार भरता है। कहा जाता है कि जो व्यक्ति आर्थिक रूप से निचले वर्ग से ऊपर उठता है, वह क्रमशः सामन्ती मनोवृत्ति को अपनाता जाता है और इस क्रम में उसके शोषण का पहला शिकार उसी वर्ग के लोग होते हैं जिस वर्ग का केंचुल वह फेरता है। आज हमारी राजनीति लगभग इसी अवस्था में है।
ग्ाौरतलब है कि जनन्दोलन दो के बाद लगभग छः वर्षगुजर चुके और आज भी यह देश राजनैतिक अनिश्चितता से ही गुजर रहा है जबकि यह समय किसी भी राष्ट्र या राज्य के पुनर्निर्माण के लिए पर्याप्त नहीं तो कम भी नहीं होता। भारत के गुजरात और बिहार जैसे राज्य इस बात के बेहतर उदाहरण हो सकते हैं। लेकिन नेपाल के साथ दर्ुभाग्य यह है कि द्विस्तम्भीय प्रजातंत्र का फर्मूला यहाँ कारगर नहीं हुआ और महज सोलह वर्षों में इसने अपना दम तोडÞ दिया। इसी के समानान्तर देश में एक दशक लम्बा द्वन्द्व भी चला। इसके बाद जो राजनैतिक व्यवस्था देश को मिली और इस व्यवस्था ने जो सपना राष्ट्र के समक्ष प्रस्तुत किया वह अधूरा है और अपर्याप्त भी। संवैधानिक रूप से आज की स्थिति भी लगभग वैसी ही है, जैसी आज से छः वर्षपहले थी। राजसंस्था के बिखरने के बाद एक संविधान की तलाश यहाँ लगातार जारी है। इसके नाम पर जो राजनैतिक अभ्यास अब तक हुए हैं वे खोखले साबित हुए हैं और एक तरह से इसने आम लोगों के समक्ष अपनी विश्वसनीयता खो दी है। इसलिए हमारे राजनेता बातें चाहे जितनी लम्बी-लम्बी करें, राष्ट्रीयता और आदर्श की चाहे जितनी दुहाई दें मगर सच यह है कि एक तरह से यह राजनैतिक रूप से असफल पीढÞी है।
आज देश की राजनैतिक समस्याओं के समाधान के लिए चुनाव का विकल्प लगभग समस्त दलों ने स्वीकार कर लिया है। चुनाव संविधानसभा का हो या संसद का, इसकी संख्या और संरचना कैसी हो यह बाद का विषय है। सवाल यह है कि यह चुनाव किन मुद्दों पर लडÞा जाएगा – संविधान के नाम पर एक बार दलों ने अपनी असफलता का प्रमाण दे दिया है और आज फिर उसी मुद्दे को लेकर चुनाव में जाने को तत्पर हैं। निश्चित ही मुद्दे वही होंगे और चहरे भी वही। इसे हमारी राजनीति का बेहयापन नहीं तो और क्या कहा जाए। आज के राजनैतिक संक्रमण के काल में चुनाव चाहे संविधानसभा का ही क्यों न हो, उसे सत्ता की सीढÞी मान लिया जाए तो इस बात की क्या ग्यारेण्टी कि भविष्य में मौजूदा राजनैतिक परिदृश्य की पुनरावृत्ति नहीं होगी –
आज नेपाल में जो राजनैतिक अनिश्चितता देखी जा रही है उसका मूल कारण मूल्यों की टकराहट है। इस बात को हमें कबूल करना ही चाहिए कि जनन्दोलन-२ के बाद देश में नवीन राजनैतिक चेतना फैली है। इसलिए मौजूदा राजनैतिक दलों में जो विरोधाभास देखा जा रहा है, उसके मूल में यही नवीन और पारम्परिक राजनैतिक चेतना का टकराव है। यह सच है कि जिस राजनैतिक चेतना की लहर देश में व्याप्त है, उसे कभी राष्ट्रघाती और कभी विखण्डनवादी कहकर उसका मूल्य भले ही कम करने की कोशिश की जाए मगर इसके सम्बोधन के बगैर कोई भी राजनैतिक या संवैधानिक कदम अधूरा माना जाएगा। इस बात को हमारे राजनैतिक दलों को समझना ही चाहिए। अपनी जिद और अपना स्वार्थ का राग जब तक आलापा जाएगा तब तक देश को कोई भी दिशा नहीं मिलेगी, यह बात लगभग तय है।





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