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नेपाल की परराष्ट्र नीति विगत से वर्तमान – श्यामनन्द सुमन

हिमालिनी अंक जुलाई 2018 ।किसी भी देश की परराष्ट्र नीति का मुख्य उद्देश्य उस देश की राष्ट्रीय हित की रक्षा एवं उसके सम्मान का सम्वद्र्धन ही होता है । राष्ट्रीय हित का मतलब राष्ट्र का स्वतन्त्र अस्तित्व, सार्वभौम सत्ता की प्रत्याभूति, भौगोलिक क्षेत्र की अखण्डता और राष्ट्रीय नीति स्वतन्त्र रूप में तय करने की क्षमता समझना चाहिए । इन उपलब्धियों या उद्देश्यों को किस तरह हासिल किया जाए यह उस समय की परिस्थितियां, देश में शासन करनेवाले राजनेताओं के संस्कार, विचार और व्यवहार पर निर्भर करता है । इसके साथ ही देश की आन्तरिक अवस्था अर्थात् ऐतिहासिक, सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक जनसंख्यात्मक तथा विकास के अन्य परिसूचक के भी नीतिगत रूप से उस लक्ष्य को परिभाषित, परिमार्जित एवं परिष्कृत करती है । कहा भी जाता है कि किसी भी देश की परराष्ट्र नीति उस देश की गृह नीति का विस्तृतिकरण होता है और कोई भी राष्ट्र अपने परराष्ट्र नीति के बिना जीवित नहीं रह सकता ।
नेपाल की परराष्ट्र नीति के सन्दर्भ में पृथ्वीनारायण शाह द्वारा राष्ट्रीय एकीकरण के समय से ही विकसित विभिन्न पस्थितियों के अनुसार परिष्कृत, परिमार्जित एवं परिलक्षित होता रहा है । जिस तरह आन्तरिक एवं बाह्य राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक तथा अन्य परिस्थितियां बदलती गई, उसी तरह समय सापेक्ष नीतिगत निर्णय भी होता रहा । उदाहरण के लिए एक सन्दर्भ उल्लेख किया जा सकता है । सन् १७९९ में तत्कालीन शाहवंशीय राजा रण बहादुुर शाह अपने गद्दी को त्याग कर गेरुवा वस्त्र धारण किया और अपने को ‘स्वामी महाराज’ घोषित कर ‘काशी बास’ के लिए बनारस में रहने लगे । उस समय भारत कम्पनी सरकार अर्थात् ब्रिटिश सरकार के अधीन में शासित था । अतः कम्पनी सरकार ने ही ‘स्वामी महाराज को संरक्षण दिया और उन्हीं के जरिए से नेपाल में भी अपना प्रभाव बढाने की कोशिश किया । बनारस में स्वामी महाराज के खर्चे के लिए नेपाल के पूर्व तराई से मालपोत आदि से जो रकम उठाया जाता था, सो कम्पनी सरकार को दिया जाने लगा । कम्पनी सरकार उसी समय से नेपाल दरबार में अपने सम्पर्क बढाने के लिए विभिन्न प्रपञ्च रचने लगी । बनारस में उस समय रण बहादुर शाह के साथ रह रहे राजगुरु गजराज मिश्र नेपाल दरबार में आकर कम्पनी सरकार राजनीतिक रूप से काफी मजबूत स्थिति में रहने की वजह से नेपाल प्रवेश में कोई बाधा उत्पन्न न करते हुए मित्रवत व्यवहार करने की सलाह दी । इसी सिलसिले में सन् १८०१, अक्टुबर ३० तारीख के दिन पटना में कम्पनी सरकार से हुई समझदारी के अनुसार नेपाल सरकार की तरफ से पूर्वी तराई की आमदनी से जो रकम कम्पनी सरकार को दिया जाता था, उसकी माफी हो गई और नेपाल की सुरक्षा की जिम्मेदारी कम्पनी सरकार ने स्वीकार कर ली । इसके साथ–साथ नेपाल में अपना प्रभाव और प्रभुत्व बढ़ाने के लिए काठमांडू में ब्रिटिश रेजिडेण्ट रखने के लिए नेपाल को राजी करवाया । तदनुरूप सन् १८०२ के अप्रैल में कप्तान विलियम नक्स कम्पनी सरकार का ‘रेजिडेण्ट जेनरल’ बनकर काठमांडू आए । इस हिसाब से सन् १८१६ में हुए सुगौली सन्धि के पहले से ही नेपाल अग्रेजों के प्रभाव क्षेत्र में आ गया था । उस समय नेपाल की सुरक्षा और परराष्ट्र नीति में भी ब्रिटिश प्रभाव चल रहा था । इस समय तक भारतीय उप–महाद्वीप में कम्पनी सरकार और गोरखाली आर्मी मुख्य पावर थे और नेपाल की सीमा पश्चिम में सतलज नदी (अभी का पंजाब) और पूरब में सिक्किम तक फैला हुआ था । नेपाल के इस फैले हुए भौगोलिक क्षेत्रफल से कम्पनी सरकार खुश तो नहीं थी, फिर भी नेपाल में अपना प्रभाव बढ़ाकर तिब्बत के साथ व्यापार बढ़ाना चाहता था । इसलिए नेपाल दरबार से अपना मित्रवत व्यवहार कर अपने रेजिडेण्ट को काठमांडू में रखने की योजना बनाया । इस तरह नेपाल को बिना ‘फिल’ कराए अंग्रेज अपने ‘प्रोटेक्टेड’ राज्य के रूप में नेपाल को समझ चुका था । अतः उसे नेपाल को कोलनी के रूप में भी लेने की आवश्यकता नहीं रही । कोलोनाइज करने से दायित्व भी बढ़ता ओर कोई ज्यादा फायदा भी नहीं था । वही दूसरी ओर नेपाल की सारी रिसोर्सेज पर ब्रिटिश का पहुँच थी ही । आवश्यकता थी– सिर्फ इस बात की कि नेपाल अपने एक फिक्स सीमा में रहकर अंग्रेजों के हित में भी काम करता रहे । इसलिए एक ब्रिटिश रेजिडेण्ट की व्यवस्था की गई, जो समय समय पर नेपाल सरकार के सम्पर्क में रहकर ब्रिटिश ‘इन्ट्रेस्ट’ का काम कर सके । कोलोनी बनाने से सारी परिस्थितियां जटिल हो जाती और उस समय विशेष फायदा भी नहीं होता ।
वह समय यूरोप में फिक्स्ड सीमा में राष्ट्रों को रहने की मानसिकता हो गई थी । लेकिन नेपाल आर्मीं उस समय अपने साम्राज्य को फैलाना चाहता था । अनेक कारणों में यह भी एक कारण था– सन् १८१४–१६ के एंग्लो–नेपलिज वार का । गोरखाली सेना पश्चिम में सतलत नदी को पार करने की कोशिश में था और यह बात ब्रिटिश को बिल्कुल ही स्वीकार्य नहीं थी । उसी समय अवध राज्य के कुछ हिस्से को गोरखाली सेना ने जीत लिया था और अवध के नबाव से टैक्स लेना चाहता था । यह भी ब्रिटिश को गंवारा न था और अवध प्रोटेक्टरेट टेरिटोरी होने से अवध के बचाव में ब्रिटिश को आना ही था । अतः गोरखा की सेना के बढ़ते कदम को रोकना कम्पनी सरकार के लिए अत्यावश्यक हो गया था । ताकि दक्षिण एसियाली राष्ट्रों में फैलाव हो रहे ब्रिटिश प्रभाव को कोई धक्का न लगे । फिर क्या था, नेपाल–ब्रिटिश वैमनस्यता और दुश्मनी एक फुलफ्लेज्ड वार में बदल गया, जो दो सालों तक चला । इस युद्ध में उपरोक्त बातों के अलावा आर्थिक कारणों की भी प्रभुख भूमिका रही । तिब्बत के साथ व्यापार करने की जो ब्रिटिश चाहत थी, वह पूरी नहीं हो रही थी । इससे ब्रिटिश भीतर से चिढे हुए थे और तिब्बत और दक्षिण एसिया के करीब–करीब सभी ट्रान्स हिमालयन रास्ते नेपाल के क्षेत्र से ही गुजरता था । और नेपाल का तिब्बत के साथ अपना व्यापार ब्रिटिश के हक में नहीं था । उस समय नेपाल ऊन, टिम्बर, मेडिसिनल प्लान्ट, कपुर आदि का बड़ा व्यापारी था । यहां तक कि तिब्बत और भारतीय महाद्वीप में कई जगह नेपाली सिक्के भी चलते थे । व्यापार बढ़ाने के सिलसिले में अंग्रेजों ने अपने कई डेलिगेसनों को नेपाल सरकार में भेजा । लेकिन दरबार ने उनकी बातों को नहीं माना । इससे भी कम्पनी सरकार नेपाल को नीचा दिखाना चाहती थी । सन् १७९२ में विलियम कर्कपातृक, सन् १७९५ में मौलवी अब्दुल कादर और १८०१ में नौक्स के नेतृत्व में डेलिगेसन नेपाल सरकार में आया था । उन सभी प्रस्तावों को नेपाल सरकार ने एक सिरे से खारिज कर दिया । विभिन्न चरणों की वार्ताओं से जब बात नहीं बनी, तब अन्त में अंग्रेजों ने अपनी सम्पूर्ण शक्ति से नेपाल के साथ पूर्ण लड़ाई (१८१४–१६) की । जिसमें नेपाल की हार हुई और सुगौली सन्धि जैसी शर्मनाक सन्धि में नेपाल को हस्ताक्षर करना पड़ा । भौगोलिक क्षेत्र के हिसाब से करीब नेपाल का आधा हिस्सा ब्रिटिश के अधीन चला गया और सिर्फ पहाड़ी भाग ही नेपाल में रहा । और नेपाल भी एक तरह से ब्रिटिश प्रोटेक्टरेट जैसा ही हो गया ।
सुगौली सन्धि संबंधी कागजात ब्रिटिश ने दिसम्बर १८१५ में ही नेपाल सरकार के पास भेजा था । पर यह नेपाल के लिए अपमानजनक जैसी होने की वजह से स्वीकार्य नहीं था । खासकर भौगोलिक क्षेत्रफल में तराई का भूभाग ब्रिटिश राज्य में मिलाने की बात थी । उस सन्धि को नेपाल सरकार द्वारा हस्ताक्षर कर समय सीमा पर नहीं लौटाने से अंग्रेज नाराज होकर पुनः युद्ध की धमकी दी । इस तरह नेपाल द्वारा मार्च १८१६ में रैटिफाई कर सन्धि को लौटाया गया । साथ ही नेपाल दरबार ने अपनी नाराजगी के साथ मैत्रीपूर्ण आग्रह के द्वारा तराई क्षेत्र लौटा देने को कहा । नेपाल के इस मित्रवत व्यवहार के कारण ब्रिटिश ने एक ‘मेमोरेण्डम’ के जरिए तराई के कोशी से राप्ती तक के भूभाग को दिसम्बर १८१६ में नेपाल को लौटा दिया । इसके बदले ब्रिटिश, जो २ लाख रूपये नेपाल सरकार को दे रहा था, वह नहीं देने की शर्त को लागु किया ।
सुगौली सन्धि के पश्चात नेपाल की परराष्ट्र नीति सन्धि के बाद जो भौगोलिक क्षेत्र मिला, उसी की सुरक्षा में तल्लीन हो गया । इस सन्धि के अनुसार नेपाल अपने वैदेशिक सम्बन्ध का विस्तार खुद ही नहीं कर सकता था । अगर अत्यावश्यक हुआ तो उसे ब्रिटिश सरकार की अनुमति लेने की बात सुगौली सन्धि के दफा नं. ७ में उल्लेख किया गया । दफा ७ में उल्लेख मिलता है कि नेपाल किसी भी ब्रिटिश अन्य युरोपियन और अमेरिकन नागरिक को अपने सर्भिस में नहीं रख सकता है और कभी जरुरत हुआ तो ब्रिटिश सरकार से परमिशन और सलाह लेनी होगी ।
नेपाल के वर्तमान भौगोलिक क्षेत्र के निर्धारण में एक और घटना का महत्वपूर्ण योगदान रहा । सन् १८५७ में भारत में रहे भारतीय सेना (तत्कालीन ब्रिटिश सेना) के कानपुर छावनी में सैनिक विद्रोह, जिसे ‘आर्मी म्युटिनी’ कहा जाता है, हुआ । जो अग्रेजों के खिलाफ था । और यह विद्रोह दिल्ली सहित अन्य स्थानों में फैलने लगा था, जो अंग्रेजों के प्रयास से खत्म नहीं हो रहा था । अतः ब्रिटिश सरकार सैनिक विद्रोह को दबाने के लिए अपने सहयोगियों के खोज में थी । उस समय नेपाल सुगौली सन्धि के मुताबिक और अंग्रेजों के साथ परराष्ट्र नीति के सञ्चालन में प्रभाव के कारण नेपाल सरकार को आग्रह किया । उस समय नेपाल के तत्कालीन प्रधानमन्त्री एवं सेनाध्यक्ष होने के नाते जंगबहादुर राणा करीब २० हजार (कई ३० हजार भी है) सैनिकों के साथ अपने ही कमाण्ड में अंग्रेजों के सहयोग के लिए सैनिक विद्रोह को दबाने के इरादे से भारत गए । गोरखाली सैनिकों की सहयोग से अंग्रेजों ने सैनिक विद्रोह पर काबू पा लिया । इससे ब्रिटिश सरकार काफी प्रभावित और खुश हुई । इसी खुशियाली में बिटिश सरकार ने राप्ती नदी से लेकर महाकाली नदी तक का तराई क्षेत्र सन् १८६० में नेपाल को लौटा दिया । इस क्षेत्र को अभी भी नयां मुलुक कहा जाता है । और नेपाल के जिलों के हिसाब से बांके, बर्दिया, कैलाली और कंचनपुर जिला इसमें शामील है । अतः इस नयां मुलुक के साथ सुगौली सन्धि का क्षेत्र ही नेपाल का परमानेन्ट टेरोटेरी बनके रह गया और उसकी रक्षा करना नेपाल के गृह और परराष्ट्र नीति का मुख्य आधारशिला अभी भी कायम है ।
सुगौली सन्धि से पहले कहा जा सकता है कि नेपाल की आन्तरिक और परराष्ट्र नीति विस्तारवादी थी । तत्कालीन गोरखा के राजा पृथ्वीनारायण शाह और उनके उत्तराधिकारी नेपाल के अन्य २२–२४ से राज्यों में अपना प्रभुत्व बरकरार रखकर काठमांडू भी जीत कर पूर्व में तिस्ता, पश्चिम में सतलज, उत्तर में भोट (तिब्बत) से लेकर दक्षिण में गंगा के मैदान तक अपने राज्य की सीमा बढ़ा चुका था । ऐसे क्रियाकलाप को निश्चित रूप से क्षेत्रीय बिस्तारवाद की नीति के अन्तर्गत ही लिया जा सकता है । फिर भी अपने राज्य के सीमाना को बढ़ाना उस जमाने में समय सापेक्ष और सान्दर्भिक प्रयास ही कहा जा सकता है । उस समय नेपाल और ब्रिटिश इस्टइण्डिया कम्पनी ही नहीं, बल्कि विभिन्न एशियन और युरोपियन देशों में भी इसी नीति के अन्तर्गत सीमाओं का निर्धारण हो रहा था । अर्थात् वह जमाना ही क्षेत्रीय विस्तारवाद का था । और नेपाल भी इस क्रियाकलाप में अछूता नहीं रह सका ।
जो भी हो, सुगौली सन्धि के पश्चात् अपने विस्तारवादी नीति को त्यागकर सन्धि के द्वारा निर्धारित भौगोलिक क्षेत्र की रक्षा और ब्रिटिश इण्डिया के साथ सुमधुर सम्बन्ध रखना ही नेपाल की परराष्ट्र नीति का मूल आधार बन गया । उसी समय में कोतपर्व से राणा शासकों (जंगबहादुर राणा से शुरु हुआ राणा शाही) का उदय हुआ । वैसे राजतन्त्र तो रहा ही, पर असली शासन व्यवस्था राणाओं के हाथ में आ गया और वह भी पारिवारिक शासन व्यवस्था (हेरिडेटरी ओलिगार्की) के अन्तर्गत । १०४ वर्ष के इस शासन व्यवस्था के सम्पूर्ण समय में ब्रिटिश भारत को खुश रखकर नेपाल के तत्कालीन भौगोलिक अखण्डता की रक्षा करना ही नेपाल की परराष्ट्र नीति का प्रमुख दायित्व रहा । समय के इस कालखण्ड की परराष्ट्र नीति को सकारात्मक और नकारात्मक दोनों पहलूओं के पक्ष–विपक्ष में बहस किया जा सकता है । पर विस्तृत बहस करना, इस लेख का अभिप्राय नहीं है । संक्षेप में अगर सकारात्मक रूप से देखा जाए तो सुगौली सन्धि के बाद अपने भौगोलिक अखण्डता अक्षुण्ण रखने के लिए ब्रिटिश इण्डिया के साथ मात्र मैत्री सम्बन्ध कायम रखना नेपाल की बाध्यता थी । अगर ऐसा नहीं होता तो ब्रिटिश के साथ पुनः युद्ध की स्थिति आ सकती थी । और हो सकता था, नेपाल का निर्धारित अपना क्षेत्र और हिस्सा भी खोना पड़ सकता था । नकारात्मक इस तरह की इस नीति से नेपाल की सार्वभौमिकता पर ही प्रश्नचिन्ह खड़ा हो गया था । यहां तक कि नेपाल के आन्तरिक मामला में भी ब्रिटिश प्रभाव को महसूस किया जा सकता था । फिर भी राणाओं के इस नीति अर्थात् मैत्री सम्बन्ध के वजह से नेपाल ने नयां मुलुक प्राप्त किया और सन्धि द्वारा सीमित भूगोल की रक्षा कर सका ।
नेपाल की आन्तरिक राजनीति और परराष्ट्र नीति का आधुनिक कालखण्ड सन् १९५० से शुरु होता है । एक व्यापक प्रजातान्त्रिक देशव्यापी आन्दोलन के परिणाम स्वरूप १०४ वर्ष का राणा शासन का अन्त हुआ । सन् १९४७ में भारत ब्रिटिश से स्वतन्त्र हुआ था, जिसका सीधा असर नेपाल के प्रजातान्त्रिक आन्दोलन पर भी पड़ा । सन् १९५० में भारत का प्रत्यक्ष सहयोग और सद्भाव के साथ ‘दिल्ली सम्झौता’ का कार्यान्वयन हुआ और नेपाल में जहानियां शासन के बदले प्रजातान्त्रिक शासन व्यवस्था का आगाज हुआ । नेपाल और स्वतन्त्र भारत के बीच १९५० की शान्ति एवं मैत्री सन्धि जो नेपाल के तत्कालीन प्रधानमन्त्री और भारत के काठमांडू स्थित राजदूत के हस्ताक्षर से सम्पन्न हुआ था, जो भारत के पक्ष में ही रहा । इस सन्धि से भारत, नेपाल को अपने सुरक्षा छाता के अन्तर्गत समझने लगा और उसी हिसाब से नेपाल के आन्तरिक मामलों में भी हस्तक्षेप करने लगा । जब कि ब्रिटिश भारत नेपाल को चीन (तिब्बत) और भारत के बीच एक बफर स्टेट के रूप में देखा करता था । पर उपरोक्त सन्धि के तहत नेपाल को एक स्वतन्त्र, सार्वभौम राष्ट्र का दर्जा तो दिया, पर अपना नीतिगत प्रभाव को नहीं छोड़ा । खासकर भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन में नेपाली राजनीतिक नेता, जैसे विश्वेश्वर प्रसाद कोइराला, मनमोहन अधिकारी सहित अन्य नेताओं के सहयोग और सक्रिय भूमिका के बदले भी नेपाल के प्रजातान्त्रिक आन्दोलन में भारत ने भी सक्रिय सहयोग किया और इसके लिए नेपाल, भारत के प्रति अनुग्रहित था । अतः १९५० की सन्धि असमान होते हुए भी नेपाल को मानना पड़ा । इस पर अब काफी सवाल उठे हैं और इस सन्धि के पुनरावलोकन द्वारा संशोधन या खारिज कर समान अधिकारवाला दूसरी सन्धि की बात उठी है । करीब दो वर्ष पहले नेपाल और भारत के प्रयास से प्रबुद्ध समूह नाम की एक संयुक्त समिति बनी, जो इस संबंध में अपनी राय देगी और दोनों सरकार उस पर अमल करेगी । इस प्रयास को नेपाल की परराष्ट्र नीति की सफलता के रूप में समझा जा सकता है ।
सन् १९५० में राणा शाही खत्म होने के साथ ही नेपाल दुनियां के सामने खुले रूप में आया और अपने स्वतन्त्र परराष्ट्र नीति के अन्तर्गत संसार के अन्य देशों के साथ सम्पर्क और सम्बन्ध को बढ़ाया । कई देशों के साथ द्विपक्षीय कूटनीतिक सम्बन्धों के साथ साथ संयुक्त राष्ट्रसंघ समेत अन्य अन्तर्राष्ट्रीय तथा क्षेत्रीय संगठनों के साथ अपने सम्बन्धों का विस्तृतीकरण कर अपनी सक्रिय सहभागिता का परिचय देता रहा । जहां तक भारत के साथ–सम्बन्ध का सवाल है, तो राजा महेन्द्र ने १९६० में अपने आम निर्वाचित संसद और सरकार को भंग कर अपना प्रत्यक्ष शासन द्वारा अपने सम्बन्ध को पुनर्भाषित करने की कोशिश किया । इस समय भारत के साथ अभी तक के विशिष्ट और घनिष्टतम परराष्ट्र नीति को सरकारी स्तर में परिवर्तन का चिन्ह दिखने लगा । उस समय राजा महेन्द्र ‘चाइना कार्ड’ खेलने की कोशिश कर भारत को उसी के समदूरी में रखना चाहा । परिणामस्वरूप भारत के साथ सम्बन्धों में ठंडापन आया । फिर भी इसका असर सरकारी स्तर में मात्र दिखा और जनस्तर का सम्बन्ध सौहार्दपूर्ण ही रहा । राजा महेन्द्र और वीरेन्द्र के करीब ३० साल के प्रत्यक्ष पंचायती व्यवस्था में नेपाल को अन्तर्राष्ट्रीय जगत में अपना अलग पहचान और सहभागिता द्वारा स्वतन्त्र एवं सार्वभौम परराष्ट्र नीति का परिचय देता है । वहीं इस कालखण्ड में भारत के साथ सरकारी स्तर में ‘लभ एण्ड हेड’ का मिश्रित नीति ही रही । इस समय में चीन और भारत को समदूरी में रखते हुए चीन के साथ राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक सहयोग का विस्तृतीकरण और परिमार्जन दिखता है । जो भी हो, यह नीति सरकारी और औपचारिक स्तर में दिखता था । पर भारत के साथ आर्थिक निर्भरता और जनस्तर की घनिष्टता में कोई खास असर नहीं पड़ा ।
नेपाल की आन्तरिक राजनीतिक दमन, चीन के साथ सामरिक महत्व के बढ़ते सम्बन्ध, भारतीय सुरक्षा इन्ट्रेस्ट की अवहेलना, भारत के साथ जनस्तर के विशेष एवं घनिष्ट सम्बन्ध की अनदेखी, अन्ध राष्ट्रवाद एवं सरकार की अदूरदर्शी परराष्ट्र नीति के कारण ही पंचायती व्यवस्था का अवसान हुआ । सन् १९८८–८९ में भारत द्वारा अघोषित एक तरह की नाकाबन्दी से नेपाल की आर्थिक–सामाजिक जीवन बहुत ही दुःखदायी हो गया था । उस समय भारत के सम्मानित उच्च पदस्थ एवं असरदार राजनेताओं के नेपाली राजनीतिक पार्टियों के साथ प्रजातान्त्रिक एवं सम्वेदनशील सम्बन्ध और सहयोग के फलस्वरूप नेपाल में पुनः प्रजातान्त्रिक वातावरण का उदय हुआ । बहुलवाद के सिद्धान्त पर आधारित बहुपार्टी राजनीतिक व्यवस्था का पुनस्र्थापना हुआ । जिससे लोकतान्त्रिक आन्दोलन भाग–२ भी कहा जाता है । इसके बाद नेपाल की परराष्ट्र नीति में भी सरकारात्मक परिवर्तन और प्रभाव रहा । खासकर भारत के साथ एक बार फिर अन्यन्त सौहार्दपूर्ण एवं मधुर सम्बन्ध की स्थापना हुई और दोनों देशों के बीच सघन सहयोग की शुरुआत हुई । साथ ही अभी तक जो नेपाल की परराष्ट्र संबंधी नीति निर्धारण एवं संचालन राजदरबार (नारायणहिटी) से होता, वह अब सिंहदरबार (नेपाल सरकार) द्वारा संचालित होने लगा, जहां एक ओर १९९० के नये संविधान को संसार का उत्कृष्ट संविधान कहा गया, वही राज्य संचालन के आन्तरिक एवं बाह्य परिप्रेक्ष में अनेक प्रकार की विषमता और विरोधाभास उत्पन्न होने लगा । उस समय नेपाल की परराष्ट्र नीति ‘स्टेटसको’ में चल रहा था । लेकिन आन्तरिक राजनीतिक परिस्थिति अन्तरद्वन्द्व और संघर्ष में चला गया । एक तरफ बहुदलीय प्रजातन्त्र का पुनरुत्थान हुआ, लेकिन दूसरी तरफ राज्य संचालन में नेताओं की अदूरदर्शिता, सत्तामोह, पदलोलुपता और भाइभतीजावाद अपने चरम पर आ गया । कोई भी सरकार अपनी समयावधि नहीं चल रही था । यहां तक कि जो प्रजातान्त्रिक आन्दोलन के विरुद्ध लड़ा था, सत्ता का बागडोर उन्ही भ्रष्ट नेताओं के हाथों में जाता रहा । यह वही समय है, जब आन्तरिक राजनीतिक विद्वेष के कारण माओवादी का जनआन्दोलन हुआ, तथा राजा वीरेन्द्र की सपरिवार हत्या हुई । इस अत्यन्त भयावह स्थिति में नेपाल कमजोर होने से अन्तर्राष्ट्रीय जगत से शक्तिशाली राष्ट्रों का खेल शुरु हो गया । इस समय में नेपाल की परराष्ट्र नीति में गम्भीर ह«ास आया और परराष्ट्र नीति सम्बन्धी सम्वेदनशीलता पता नहीं कहॉ खो गयी । सबकुछ नेताओं के व्यक्तिगत ‘ह्वीम’ में चलने लगा । परराष्ट्र सम्बन्धी एकल राष्ट्रीय समझदारी तथा नीतिगत निर्णय का सर्वथा अभाव रहा । फिर दरबार हत्याकाण्ड के बाद राजा ज्ञानेन्द्र का उदय, उनका सत्तामोह और तदनुसार के तानाशाही व्यवहार ने तत्कालीन परिस्थितिओं को और विकराल और भयानक बना दिया । फलस्वरूप तत्कालीन परराष्ट्र नीति भी अछुता नहीं रह सका । इसी समय माओवादी और बहुदलवादी राजनीतिक पार्टियों के बीच समझदारी हुआ और दिल्ली में १२ बुँदे सहमति में हस्ताक्षर हुआ । अतः एक बार पुनः जनआन्दोलन (जनयुद्ध) के तहत राजा ज्ञानेन्द्र के तानाशाही शासन के खिलाफ अभियान जारी रखा और अन्ततः नेपाल में राजतन्त्र का विधिवत अन्त हुआ । यहां स्मरणीय घटना यह है कि माओवादी और अन्य ७ राजनीतिक पार्टियों के बीच १२ बुँदे समझदारी कराने में भारत प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से पूर्ण संलग्न रहा और इसी भूमिका के चलते तत्कालीन परराष्ट्र नीति में भारत अपना प्रभाव और दृष्टिकोण रखता रहा । नेपाल भी अपनी भारत प्रति के परराष्ट्र नीति में सद्भाव ही रखा है ।
नेपाल में पूर्ण प्रजातन्त्र की स्थापना का अभिष्ट करीब ६० साल की जनता की प्रत्यक्ष संघर्ष और जनआन्दोलनों के जरिए सन् २०१५ में पूरा हुआ । इस समय जनता से निर्वाचित जनप्रतिनिधियों द्वारा संविधानसभा मार्फत नेपाल का नयां संविधान बना । नये संविधान के निर्माण के समय भारत, चीन, अमेरिका और युरोपियन युनियन के देशों ने प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से अपने दृष्टिकोणों को रखता रहा । खासकर भारत ने तो कुछ ज्यादा ही अपनी सरोकार और दृष्टिकोण रखने की कोशिश की । नेपाल ने इसे अपने आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप माना और भारतीय दृष्टिकोण दरकिनार करते हुए अपने संविधान को जारी किया । इस समय भारत के साथ नेपाल की परराष्ट्र नीति में कुछ शिथिलता रही । इसी समय मधेश आन्दोलन का दौर था जब नाकाबन्दी हुई और इसका सारा दोष नेपाल ने भारत को दिया । यह समय नेपाल सरकार और नेपाली जनता के लिए बहुत ही कष्टप्रद रहा । फिर समय सापेक्ष के तरीके से दोनों देशों के राजनेताओं की मजबूरी और समझदारी साथ साथ बढ़ती गई और दोनों के प्रयास से फिर एक बार परराष्ट्र नीति की गाड़ी पटरी पर आ गई और सम्बन्धों में आत्मीयता और गर्माहट संकेत मिलने लगे । यहां एक बात और गौर करने की है कि भारतीय अघोषित नाकाबन्दी के समय चीन ने अपनी उदारता दिखाई और नेपाल भी चीन के साथ अपने सम्बन्धों को और करीब लाया । दोनों देशों में समझदारी बढ़ी और सहयोग का दायरा बढ़ा । इन दोनों पडोसियों के साथ नेपाल के परराष्ट्र नीति की शाख और सम्मान बढ़ा । नेपाल की चाहत ‘समृद्ध नेपाल, सुखी नेपाली’ को दोनों ने समझा और उसी के तहत सहयोग और सहकार्य के संबंधों की उँचाई की तरफ नेपाल की परराष्ट्र नीति बढ़ती जा रही है । आशा है कि भविष्य में नेपाल अपने नए संविधान को कार्यान्वयन करते हुए अपनी परराष्ट्र नीति को भी नये सूझबूझ और परिपक्वता के साथ पड़ोसी राष्ट्रों सहित अन्तर्राष्ट्रीय जगत के अन्य देशों के साथ सम्मानित एवं समान सम्बन्धों का विकास करेगा । खासकर जब अब नेपाल में आम निर्वाचित पाँच वर्ष के लिए स्थायी सरकार बनी है । अभी के प्रधानमन्त्री कपीशर्मा ओली जी की सुझबूझ और दूरदृष्टि से दोनों पड़ोसी भारत–चीन के साथ एक ऐसी केमेस्ट्री का विकास हुआ है, जो नेपाल के विकास अभियान में एक अहम् और सकारात्मक भूमिका निभाएगी । इसको नेपाल की परराष्ट्र नीति की सफलता माननी चाहिए ।



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