Thu. Mar 28th, 2024

कोरोना शदी”….आने वाली पीढ़ियाँ इस विषाणु का शुक्रिया जरूर अदा करेंगी : रीमा मिश्रा”नव्या”

जी हाँ बिल्कुल वैसे ही जैसे हर अच्छाई में कुछ बुराई छिपी होती है वैसे ही कोरोना भारत के लिये कुछ अच्छाई भी ले कर आई है।



सुलग गई…??? खैर आपकी गलती नही है। दाल फ्राई खाने वाले बड़ी की सब्जी खाने को मजबूर हों तो सुलगना लाजमी है। पहले एक गिलास ठंडा पानी पी लीजिए फिर आगे बढ़ते हैं। और हाँ फ्रीज का नही, गले मे खसखसहाट होते ही कोरेन्टीन वाले पकड़ के ले जाते हैं।

चलिए शुरू करते हैं…

कोरोना ने न सिर्फ़ भागती ज़िंदगी पर एक ब्रेक लगाया है, बल्कि थोड़ा पीछे भी धकेल दिया है, उस दौर में जहाँ दुनिया तो यही थी, पर हमारी मानसिकता और समाज अलग हुआ करते थे…।

पड़ोसी के दु:ख हमारे लिए भी दु:ख और चिंता का विषय हुआ करते थे। हम उनकी ख़ुशहाली और सलामती की कामना करते थे। आज कोरोना के संक्रमण फैलने के डर से ही सही, हम अपने साथ-साथ पड़ोसियों के लिए भी प्रार्थना कर रहे हैं कि उन्हें यह रोग न छुए।

एक ऐसे दौर में, जब अगल-बग़ल के फ़्लैट में रहने वालों के बारे में जानना दुनिया का सबसे निरर्थक काम माना जाने लगा था, हम अचानक यह जानने को उत्सुक हो गए हैं कि वहाँ विदेश से तो कोई नहीं आया, वे मुंबई-केरल से घूमकर तो नहीं आए, उनके यहाँ कोई खाँस-छींक तो नहीं रहा!

घरेलू कर्मचारी “नौकर” बनकर रह गए थे, उन्हें छोटी-सी बात या ज़रूरत के चलते थोड़ी ज़्यादा छुटि्टयाँ माँगने पर हटा दिया जाता था। आज हम घरेलू कामवालियों को सवैतनिक लंबा अवकाश दे रहे हैं। ठीक है कि उन्हें पुराने दौर की तरह परिवार का हिस्सा न मानने लगे हों, परंतु इतना तो समझ गए हैं कि हमारा स्वास्थ्य और सुख उनसे भी जुड़ा है।

पाप-पुण्य की चिंता किए बग़ैर किसी भी तरह धन जुटाने की होड़ के बीच पुरानी सीख समझ में आ गई है कि जो मौक़े पर काम आए, वही धन है, शेष व्यर्थ है। इसीलिए हम दाम की परवाह किए बिना, दुगने-तिगुने में अत्यावश्यक चीज़ें ख़रीद रहे हैं। साधनसंपन्न इटली के हश्र से यह सबक़ भी मिल चुका है कि पैसों से सबकुछ नहीं ख़रीदा जा सकता।

हमने ख़ुद को, और हद-से-हद अपने परिवार को ही पूरी दुनिया मान लिया था : पैसे कमाएँ, मज़ा करें और फ़्लैट का दरवाज़ा बंद करके अपने सीमित संसार में सिमट जाएँ। दुनिया जाए भाड़ में! और आज? हम भले ही घर में घुसे हैं, पर जानते हैं कि यह लंबे समय तक कारगर नहीं हो पाएगा। हमारे हृदय से यही कामना-प्रार्थना निकल रही है कि हमारे शहर ही नहीं, देश ही नहीं, दुनिया में कोई भी इस रोग की चपेट में न आए।

हमें पता चल चुका है कि परमसत्ता और प्रकृति के सामने कोई छोटा-बड़ा, साधारण-विशिष्ट नहीं है। सब बराबर हैं। यहाँ श्री मुकेश अंबानी भी थाली बजा रहे हैं। आलीशन घरों में रहने वालों को भी ख़तरा है और झुग्गी वालों को भी।

हम मितव्ययिता का महत्व भी समझ रहे हैं। चीज़ें जुटा तो ली हैं, पर यह तय नहीं है कि कब तक घर के भीतर रहना पड़ेगा, इसलिए चीज़ों के अधिकतम सदुपयोग और न्यूनतम उपभोग की मानसिकता के साथ काम हो रहा है।

आशा है, संकट टलने के बाद, जो देर-सवेर टलेगा ही, यह समझ क़ायम रहेगी और हम फिर 21वीं सदी के मॉडर्न लोग नहीं बन जाएँगे। यदि बदलाव स्थायी रहे, तो यक़ीन मानिए, आने वाली पीढ़ियाँ इस विषाणु का शुक्रिया अदा करेंगी।

रीमा मिश्रा “नव्या”
आसनसोल(पश्चिम बंगाल)

 



About Author

यह भी पढें   विद्युतीय चार्जिङ स्टेशन में निवेश बढ़ाने के लिए आग्रह
आप हमें फ़ेसबुक, ट्विटर और यूट्यूब पर फ़ॉलो भी कर सकते हैं.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Loading...
%d bloggers like this: