Fri. Mar 29th, 2024

भारत सत्‍य की जीत चाहता है या सिंह ताकत की जीत ?एबीपी नियुज से साभार

विशेष: नेपाल केवल एक मोहरा या चीन का पूरा ‘गुलाम’! क्या है प्रधानमंत्री मोदी का ‘Mission Impossible’

नेपाल को भारत अपना छोटा भाई भी मानता रहा है. हमेशा उसके साथ खड़ा रहा है लेकिन प्रधानमंत्री मोदी की तमाम कोशिशों के बावजूद नेपाल चीन की जेब में चला गया है और भारत की अखंडता पर चोट करने के दुस्साहस पर उतर आया है.

एबीपी न्यूज़Last Updated: 20 May 2020 03:26 AM (IST)

नोट:- (भारत की मीडिया में कुछ प्रश्न उठने लगें हैं जिसे नेपाल में भी जानना जरूरी है हिमालिनी की ओर से यह साभार प्रस्तुति है एबीपी नियुज से)
विशेष: नेपाल केवल एक मोहरा या चीन का पूरा 'गुलाम'! क्या है प्रधानमंत्री मोदी का 'Mission Impossible'

नई दिल्ली: पिछले 5 सालों से प्रधानमंत्री मोदी की प्राथमिकता वाले देशों में सबसे ऊपर नेपाल का नाम आता है. नेपाल को भारत अपना छोटा भाई भी मानता रहा है. हमेशा उसके साथ खड़ा रहा है लेकिन प्रधानमंत्री मोदी की तमाम कोशिशों के बावजूद नेपाल चीन की जेब में चला गया है और भारत की अखंडता पर चोट करने के दुस्साहस पर उतर आया है.

जिस नेपाल में प्रधानमंत्री मोदी भक्त की हैसियत से जाते हों, जिस नेपाल को भारत कामयाब देखना चाहता है, वो नेपाल चीन की कठपुतली क्यों बनता जा रहा है. जिस नेपाल से भारत का हिमालय गंगा जितना संबंध हो, उस नेपाल में चीन की भक्ति देशभक्ति कैसे बन गई. जिस नेपाल की संप्रभुता का भारत पूरा सम्मान करता हो, वो कैसे चीन के आगे खुद को गिरवी रखता जा रहा है. नेपाल, जिसे भारत ने अपना छोटा भाई माना, वो नेपाल भी यकीन दिलाता रहा कि भारत उसका बड़ा भाई है और इसी भाईचारे की वजह से हर मुसीबत में भारत नेपाल के साथ खड़ा रहा लेकिन नेपाल का वो भाईचारा, वो भरोसा क्या सिर्फ दिखावा था? क्या नेपाल भी चीन की तरह सिर्फ अपने फायदे के बारे में सोचता है? कैसे नेपाल की वजह से मोदी का मिशन इम्पॉसिबल कहा जा रहा है? ये सवाल नेपाल की नई हरकत के बाद उठे हैं और इस हरकत के पीछे भी कोई और नहीं बल्कि चीन है.

130 करोड़ हिंदुस्तानियों के दिल में तीन मानचित्र शूल की तरह चुभ रहे हैं. ये नेपाल का नया राजनीतिक नक्शा है जिसमें उसने लिपुलेख और लिम्पियाधुरा कालापानी को अपने नक़्शे में शामिल किया है. बात यहां नक्शे से ज्यादा तरीके की है जिस नेपाल को प्रधानमंत्री मोदी ने अपनी प्राथमिकता बताया, वो नेपाल आज क्यों जहरीले तीर छोड़ रहा है. नेपाल का नया नक्‍शा जारी करने के बाद नेपाल के प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली ने संसद में भारत पर ‘सिंहमेव जयते’ का तंज कसा. ओली ने इशारों ही इशारों में भारत पर ताकत का इस्‍तेमाल करने का आरोप लगाया और कहा कि भारत के राजचिन्‍ह में ‘सत्‍यमेव जयते’ लिखा हुआ है यानि ‘सिंहमेव जयते’.

दरअसल नेपाली पीएम का मतलब ये है कि भारत सत्‍य की जीत चाहता है या सिंह ताकत की जीत चाहता है. नेपाली प्रधानमंत्री ने कहा कि उनका मानना है कि ‘सत्‍यमेव जयते’ होगा। ओली ने कहा कि भारत के साथ दोस्‍ती को गाढ़ा करने के लिए ऐतिहासिक गलतफहमियों को दूर करना जरूरी है.नेपाल सीधे सीधे भारत पर ताकत की धोंस दिखाने का इल्जाम लगा रहे हैं. भारत को सत्यमेव जयते का मतलब समझा रहे हैं. यही नहीं वो दोस्ती के लिए ऐतिहासिक गलतफहमियों को दूर करने की बात कह रहे हैं. नेपाल के प्रधानमंत्री भारत के खिलाफ ऐसे आरोप तब लगा रहे हैं, जब चीन नेपाल की पहचान माउंट एवरेस्ट को हड़पने निकल पड़ा है, उसका नाम माउंट एवरेस्ट की जगह कोमोलांग्मा शिखर बता रहा है.

सवाल ये है कि जिस चीन की नेपाल के एवरेस्ट पर बुरी नजर हो, वो चीनी ड्रैगन का विरोध करने की जगह भारत पर ताकत के इस्तेमाल का आरोप क्यों लगा रहा है. इसे समझने के लिए पहले नेपाल के इस ताजा राजनीतिक मैप को दोबारा से देखना होगा जिसे नेपाल की कैबिनेट ने मानसरोवर की नई सड़क के उद्धाटन के लिए दस दिन बाद जारी किया है.

दरअसल कैलाश मानसरोवर जाने के दो रास्ते हैं. पहला रास्ता उत्तराखंड के पिथौरागढ़ से होकर है. जिसमें 85% यात्रा भारतीय इलाके में होती है. दूसरा रूट सिक्किम के नाथूला होकर है, जिसे पूरा करने के लिए श्रद्धालुओं को 80% सफर चीन में करना होता है. भारत ने पिथौरागढ़ वाले रास्ते में निर्माण कार्य किया है, उसी से नेपाल को ऐतराज है. ये सड़क कालीपानी के करीब से होकर जाती है. जो एक ट्राई जंक्शन है. मतलब जहां पर भारत, नेपाल और चीन मिलते हैं. नेपाल इस क्षेत्र को अपना बताता है जबकि यहां पर भारतीय सेना की अहम चौकी है जो तिब्बत में चीनी सेना के बुरांग अड्डे का जवाब है.

कालापानी इलाके की सबसे ऊंची जगह है, जो भारत को चीन पर बढ़त दिलाती है. भारत को ये डर है कि अगर उसने ये पोस्ट छोड़ी तो चीन यहां चला आएगा लेकिन नेपाल के कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं ने भारत के इस कदम का संसद से सड़क तक विरोध किया, जो सरासर गलत है. जबकि नेपाल यह भी कहता आया है कि वो अपनी धरती या सीमा भारत के विरोध में किसी को प्रयोग नही करने देगा लेकिन आज लिपुलेख और लिम्पियाधुरा कालापानी पर नेपाल का विरोध पूरी तरह से राजनीतिक है. ऐसा इसलिए भी है क्योंकि जिस रोड को लेकर नेपाल का ऐतराज है उस प्रोजेक्ट पर काम बहुत पहले से चल रहा था और नेपाल ने तब विरोध नहीं किया. जानकार मानते हैं कि नेपाल के पीएम जानबूझकर राजनीतिक फायदे के लिए भारत विरोधी भावनाएं भड़का रहे हैं. पिछले कुछ दिनों से नेपाल के सत्ताधारी दल में खटपट चल रही है, प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली और पुष्प कमल दहल के बीच तलवारें खिचीं हुई हैं, दहल केपी शर्मा ओली को पीएम पद से हटाना चाहते हैं.

नेपाल की राजनीति में माओवादियों का बोलबाला है जो चीन की कम्युनिस्ट पार्टी को अपना आदर्श मानती है. सत्ता के लिए नेपाल के दो बड़े कम्युनिस्ट नेताओं ने नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी बनाई. केपी ओली प्रधानमंत्री बने तो पुष्प कमल दहल के हिस्से में पार्टी आई लेकिन अब इन दोनों नेताओं में छत्तीस का आंकड़ा हो गया है, केपी शर्मा ओली को दहल पीएम पद से हटाना चाहते हैं. ऐसे में नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी टूट सकती है. अगर ऐसा होता है तो नेपाल में चीन का असर कम हो सकता है, जो चीन को किसी भी तरह से मंजूर नहीं है. इसीलिए इस महीने नेपाल में चीन की राजदूत ने नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी के सभी बड़े नेताओं को बुलाकर मध्यस्थता की और उन्हें तुरंत मतभेद सुलझाने को कहा. हैरान कर देने वाली बात है कि किसी देश की सत्ताधारी पार्टी के मतभेद को किसी बाहरी देश के राजदूत ने सुलझाया हो लेकिन ये सबकुछ नेपाल में हो रहा है जो ये बताने के लिए काफी है कि नेपाल में चीन की कितनी तूती बोलती है.

चीन के इशारे पर चलने वाले नेपाली नेताओं के लिए भारत विरोध सस्ती राजनीति का सबसे बड़ा हथियार बन चुका है. नेपाली पीएम केपी शर्मा ओली भी भारत विरोध के हथियार से अपने राजनीतिक प्रतिद्वंदी पुष्प कमल दहाल को मात देना चाहते हैं. केपी शर्मा ओली को लगता है कि कालापानी का मुद्दा उठाकर वो लोकप्रियता हासिल करके सभी सियासी चुनौतियों का जवाब ढूंढ सकते हैं. नेपाल में ये सब तब हो रहा है जब पीएम मोदी पहली बार प्रधानमंत्री बनने के बाद से नेपाल को साथ लाने की भरपूर कोशिश कर रहे हैं और उसे हर संभव मदद का भरोसा दिला रहे हैं. साल 2014 से प्रधानमंत्री मोदी अब तक नेपाल का 4 बार दौरा कर चुके हैं. वहीं 4 बार नेपाल के पीएम भारत आ चुके हैं. भारत की इतनी कोशिशों के बावजूद, प्रधानमंत्री की इतनी पहल के बावजूद नेपाल चीन के रंग में क्यों रंगता जा रहा है इस सवाल के जवाब में जानकार कहते हैं कि नेपाल में चीन के बोलबाले के पीछे उसका बढ़ता निवेश है. 2015-16 में चीन ने नेपाल में 404 करोड़ का निवेश किया, जो 2016-17 में बढ़कर 540 करोड़ रुपये और फिर 2017-18 में 3032 करोड़ रुपये हो गया. यही नहीं, चीन वन बेल्ट वन रोड के तहत नेपाल में 56820 करोड़ रुपये की लागत का रेल लिंक बनाने जा रहा है. रेल ही नहीं चीन नेपाल के हर क्षेत्र में तेजी से पैर पसारता जा रहा है जिसका खामियाजा भारत को कालापानी जैसे विवाद के रूप में भुगतना पड़ रहा है क्योंकि चीन के सत्ताधारी दल पर भारत के खिलाफ भावनाएं भड़काने का भारी दबाव है, ताकि चीन भारत को परेशान कर सके.


नेपाल के पूरी तरह से चीन की जेब में चले जाने के सामरिक जोखिम भी हैं क्योंकि हिमालय का छोटा सा देश नेपाल भारत और चीन के बीच एक बफर की तरह काम करता है. नेपाल तक अगर चीनी सेना की दखल हो गई तो फिर लाल सेना की पहुंच उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, बिहार जैसे हिंदी राज्यों तक हो जाएगी. जंग की हालत में ये बहुत घातक हो सकता है, इसीलिए एक्सपर्ट मानते हैं कि सरकार को नेपाल को लेकर दोबारा से रणनीति बनानी चाहिए. नेपाल का चीन की तरफ जाना पिछली सरकारों की भी गलतियों का नतीजा है, जिन्होंने छोटे लेकिन अहम पड़ोसी के साथ उपेक्षा का व्यवहार किया और इसी का फायदा चीन ने उठाया, लेकिन अब वक्त आ गया है कि पिछली गलतियों से सबक सीखते हुए भारत नेपाल को समझाए, जिससे कालापानी जैसे विवाद दोबारा खड़े न हों.

उम्मीद की जानी चाहिए कि जो काम प्रधानमंत्री मोदी अपने पहले कार्यकाल में न कर पाए वो उसे अपने दूसरे कार्यकाल में जरूर पूरा करेंगे. मोदी अपने मिशन इम्पॉसिबल में जरूर कामयाब होंगे.



About Author

आप हमें फ़ेसबुक, ट्विटर और यूट्यूब पर फ़ॉलो भी कर सकते हैं.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Loading...
%d bloggers like this: