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अमेरिका का बनियागिरी और पुतिन के दादागिरी में फंसा यूक्रेन : कैलाश महतो

कैलाश महतो, पराशी | रुस और यूक्रेन युद्ध के उपर विश्व ही नहीं, बौद्धिक और विश्लेषक समाज भी दो गूटों में खडे हैं । रुस पक्षधरों को माने तो उनका तर्क है कि कोई भी देश अपने सुरक्षा चुनौती को अपने आसपास खडा होने देने पर परहेज नहीं कर सकता । वही बात रुस के साथ भी लागू होने के कारण नाटो, यूरोपियन यूनियन और अमेरिकी शक्ति को यूक्रेन द्वारा उसके सीमातक न्यौता देना रुस के लिए परहेज से बाहर होना स्वाभाविक है । दूसरे तर्क को माने तो उस समूह का भी तर्क गलत नहीं हो सकता जो यह कहता है कि स्वतंत्र एक देश अपने सुरक्षा और लाभ के लिए अपने सुविधा अनुसार के देश या समूहों से एकता, गठबंधन या सहकार्य करने को स्वतंत्र है और उसके स्वतंत्रता पर किसी अन्य देश द्वारा अवरोध करना गलत है जो यूक्रेन करना चाहता है ।
जग जाहेर है कि बाक़ी पड़ोसी देशों की तरह यूक्रेन और रूस के बीच साझी विरासत का इतिहास है, जो दोनों को जोड़ने के साथ-साथ एक ढंग से अलग भी करती है. यूक्रेन की कहानी *९वीं* सदी में मौजूदा यूक्रेन की राजधानी कीव से शुरू होता है । कीव प्रथम स्लाविक साम्राज्य की राजधानी मानी जाती है  । इस राज्य का गठन स्क्याण्डेनेवियन क़बीले ने किया था जो स्वंय को रूस कहा करता था । यही महान मध्याकालीन राज्य बाद में कीवियन रूस कहलाया । रूस और यूक्रेन दोनों का जन्म इसी महान साम्राज्य से हुआ है । १२वीं सदी में मॉस्को की स्थापना हुई  । तब ये शहर कीवियन रूस साम्राज्य का उत्तर-पूर्वी सरहद था ।
इतिहासकारों के अनुसार इस साम्राज्य में ओर्थोडॉक्स क्रिश्चियन धर्म का बोलबाला था । सन् 988 में कीव सम्राट व्लादिमीर प्रथम (सेंट व्लादिमीर स्वयातोस्लाविच द ग्रेट) ने इस मत को अपनाया था । व्लादिमीर प्रथम ने मध्यकालीन रूस राज्य का विस्तार मौजूदा बेलारूस, रूस और यूक्रेन से लेकर बालटिक सागर तक किया था । १७वीं सदी में लिथुयानिया-पोल्याण्ड के राष्ट्र मंडल और रूस के ज़ार सम्राटों के बीच हुए युद्ध ने डनाइपर नदी के पूर्व के सारे इलाक़े रूस के नियंत्रण में चले गये । मौजूदा यूक्रेन जहाँ हैं, उसके मध्य और उत्तर पश्चिमी इलाके में १७वीं सदी में एक राज्य था, जिसे साल १७६४ में रूस की साम्राज्ञी क्याथरीन द ग्रेट ने अपने में विलय कर ली थी । उन्होंने पोल्याण्ड के अधिकार वाले यूक्रेन के इलाक़ों पर भी अधिकार हासिल कर लिया था ।
१८वीं सदी के तीसरे पल में पश्चिम के कई देशों में राष्ट्रवाद की लहर उठी । इसका असर पोल्याण्ड से लेकर ऑस्ट्रिया तक दिखाई दी । इस दौरान यहाँ कई लोगों ने रूस के लोगों से अलग दिखाई देने के लिए ख़ुद को *यूक्रेनी* बताना शुरू किया । लेकिन २०वीं सदी में रूस की क्रांति ने सोवियत संघ का गठन कर दिया । दूसरे विश्व युद्ध के बाद सोवियत नेता जोसेफ़ स्टालिन ने पोल्याण्ड से पश्चिमी यूक्रेन का अधिकार भी हासिल कर लिया ।
सन् १९५० के दशक में मॉस्को ने क्रिमिया को यूक्रेन के हवाले कर दिया । ये सोवियत संघ का ही हिस्सा था । इस फ़ैसले के बाद भी वह रूस से गहरे सम्पर्क में कायम रहे और ब्लैक सी में रूस का जो बेड़ा था, वो सांकेतिक रूप से इसकी पुष्टि करता था । सोभियत सरकार ने यूक्रेन पर रुस का थप ज़ोरदार प्रभाव डालने की कोशिश की । कई बार यूक्रेन को इसकी बड़ी कीमत भी चुकानी पड़ी थी ।
सन् १९३० के दशक में सोवियत संघ का हिस्सा रहे यूक्रेन के लाखों लोग स्टालिन की ओर से जबरन थोपे गए अनेक दबावों तले अकाल की मृत्यु वरण की । इसके बाद स्टालिन ने वहाँ बड़ी संख्या में सोभियत लोगों को बसाया । हालाँकि, सांस्कृति रूप से सोवियत संघ ने यूक्रेन पर कभी आधिपत्य साबित नहीं कर सका । यूनिभर्सिटी कॉलेज ऑफ़ लण्डन में यूक्रेनियन स्टडीज़ के प्रोफ़ेसर डाक्टर एण्ड्रयू विल्सन का कहना है, “यूक्रेन को एक क्षेत्र या एक पहचान में बाँधने के बजाय एक *’उलझी पहेली’* की तरह देखना ज़रूरी है ।” १३वीं सदी में रूस राज्य के कई सूबों पर मंगोल साम्राज्य का कब्ज़ा हो गया था । लेकिन १४वीं सदी में कमज़ोर होते मंगोल राज का फ़ायदा मॉस्को और लिथुयानिया नाम की दो सूबों ने प्राप्त किया । इन दोनों ने रूस को आपस में बांट लिया ।
भाषाविदों के अनुसार रसियन भाषा में *”यूक्रेन”* का अर्थ *”सुरक्षा घेरा”* या *”बफ्फर जोन”* माना जाता है । बेलारुस, क्रीमिया, पोल्याण्ड, हंगेरी, स्लोभाकिया, रोमानिया, रुस और काला सागर के मध्य यूक्रेन को रसिया अगर अपना रक्षा कवच मानता है तो फिर यह यूक्रेन के स्वतन्त्रता के खिलाफ माना जायेगा । उस अवस्था में यूक्रेन अपने को एक स्वतंत्र राष्ट्र नहीं कह सकता । कूटनीतिक रुप से भी यह बात मान्य नहीं होनी चाहिए कि कोई एक देश अपने किसी पड़ोसी मुल्क को उसके स्वीकारोक्ति के बगैर अपना सुरक्षा घेरा मानकर उसकी स्वतंत्रता पर अंकुश लगा दें । हाँ, उस अपने पड़ोसी मुल्क को अपने विश्वास में लेकर आपसी सहमति के आधार पर एक दूसरे के सुरक्षा समेत के लिए यह किया जा सकता है कि आपस के सुरक्षा पर चौकसी अपनाये ।
इस तर्क पर यूक्रेन अगर गलत है कि सन् १९९१ में सोवियत संघ से अलग होने के बाद सन् १९९७ में सम्पन्न रुस-यूक्रेन सहमति के विपरीत यूक्रेन ने यूरोपियन यूनियन या नेटो से सम्बन्ध स्थापित करना गलत है तो फिर रुस और संसार को भी यह समझना होगा कि आखिर यह नौवत ही क्यों आई ? रुस द्वारा क्रीमिया को अपने में मिलाना सहमति के विपरीत है या नहीं ?
भारत से विभक्त पाकिस्तान और भारत रस्सा कस्सी के बीच तेल मसाले लेकर पहुँचने बाले अमेरिका और चीन के तरह ही रुस और यूक्रेन के विवाद में रस लेने टपके अमेरिका, यूरोप, यूरोपियन यूनियन और नेटो देशों ने जो गंभीर स्थिति पैदा किये हैं, उस पर गंभीर होने की जरूरत है । अपने मनसा को पूरा करने हेतु यूक्रेन को उकसाने बाले अमेरिका और नेटो देशों ने यूक्रेन को बुरी तरह बर्बादी के आग में झोंक डाला है । इसका खामियाजा रुस और यूक्रेन दोनों को लम्बे अरसों तक भुगतना तय है ।
दुनियां को इस बात से ज्ञात होना जरुरी है कि अमेरिका एक व्यापारिक देश है । बनियागिरी उसका धन्धा है । अपने आर्थिक फायदे और सामरिक रूप से सर्व शक्तिशाली कहलाने का उसका उंघा भूख है । इसी अपने भूख और अस्मिता को कायम रखने हेतु अपने समकक्ष में उभरे रुस के आर्थिक और सामरिक शक्तियों को नष्ट करने हेतु उसने यूक्रेन को रुस के साथ युद्ध करने के लिए उसे हर सहयोग करने, उसके साथ युद्ध लड़ने तथा आर्थिक व सैन्य सहयोग करने का झांसा देकर यूक्रेन को उकसाकर वह पीछे हट गया है । अब, जब रुस के साथ यूक्रेन भीड गया है, तब अमेरिका और नेटो देशों ने *”रुस की परेशानी और यूक्रेन की तवाही”* देखने में मजा ले रहे हैं ।
दर असल, अमेरिका ने बडी चतुराई से रुस और यूक्रेन को एक‌ आपस में भीडाकर एक का जमीनी स्तर नष्ट करने में और दूसरे का आर्थिक और सामरिक शक्ति बर्बाद करने के अपने योजनाओं के सफलता पश्चात संसार का सर्व शक्तिशाली देश का तक्मा बरकरार रखने का दांव खेला है । अमेरिका के इस रहस्यमयी योजना को न तो रुस ने, न यूक्रेन ने समझ पाया है ।
लोगों को भले ही यह लगता हो कि रुस या चीन के सामने अमेरिका कमजोर या उनसे ज्यादा शक्तिशाली नहीं हो सकता, अमेरिका ने विगत के दो विश्व युद्ध और उसके बाद के शीतयुद्धों समेत में वही किया है, जो उसने आज कर रहा है रुस और यूक्रेन के साथ । तरीके मात्र अलग है । उसका उद्देश्य वही वर्षों पुरानी है : दो को लडाओ, अपना सामान बेचो और अन्त में थके हुए योद्धाओं के बीच घुसकर महावली होने का खिताब जितो ।
समरण रहे – जैसे पाकिस्तान और यूक्रेन अमेरिका, चीन, भारत, अमेरिका, रुस और नेटो देशों का शिकार हो रहे हैं, नेपाल भी अमेरिका और चीन तथा उनके एमसीसी और बीआरआइ का शिकार होना निश्चित है ।

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