भाषा पर विवाद से भाषा पर सुसंवाद अधिक उपयुक्त है : डा आसावरी बापट
काठमांडू, 14 सितंबर 022 । आज भारतीय दूतावास द्वारा हिंदी दिवस के अवसर पर एक भव्य कार्यक्रम का आयोजन किया गया। कार्यक्रम केप्रमुख अतिथि श्री. गिरीश चन्द्र लाल, माननीय पूर्व न्यायाधिश उच्चतम न्यायालय,थे तो अध्यक्षता डीसीएम श्री प्रसन्न श्रीवास्तव ने किया। विशिष्ट अतिथि डा श्वेता दीप्ति त्रिविवि तथा सच्चिदानंद मिश्र हिमालिनी से थे। श्री साहिल कुमार प्रमुख पीआईसी की विशेष उपस्थिति थी । तो कार्यक्रम संचालन श्री सत्येंद्र दहिया ने किया । इस अवसर पर स्वामी विवेकानंद संस्कृति प्रतिष्ठान के निदेशक डा आसावरी बापट जी ने हिंदी की वर्तमान स्थिति पर विस्तृत जानकारी दी । प्रस्तुत है स्वामी विवेकानंद संस्कृति प्रतिष्ठान के निदेशक डा आसावरी बापट जी द्वारा दिया गया भाषण का अंश ।
सा मां पातु सरस्वती
श्री अध्यक्ष जी, आज के हमारे प्रमुख अतिथि आदरणीय श्री. गिरीश चन्द्र लाल, माननीय पूर्व न्यायाधिश उच्चतम न्यायालय, नेपाल तथा श्री. सच्चिदानंद मिश्र, प्रबंध निदेशक हिमालिनी, डा श्वेता दीप्ति जी प्राध्यापक हिंदी विभाग तथा संपादक हिमालिनी सभा में उपस्थित सभी महानुभाव और हिंदी प्रेमियोंका सहर्ष स्वागत और सभी को हिंदी दिवस की हार्दिक शुभकामनाए।
भाषा अभिव्यक्ति का समर्थ माध्यम है। भाषा की समृध्दि से सभ्यता कि समृध्दि का परिचय होता है। भारत देश उसकी समृध्द भाषाओं के साथ साथ उसकी लिपियों की विविधता के लिए भी विख्यात है। हिंदी आज विश्व की सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा ओं में द्वितिय स्थान पर है। भारत में संस्कृत के र्हास के बाद हिंदी ही संस्कृत का पर्याय बनकर उभर आई थी।भारत में अरुणाचल, सिक्किम, बिहार, झारखण्ड, से सुदुर बलुचिस्तान तक हिंदी की विविध बोलिया बोली जाती है। इस प्रदेश मे बलुचिस्तान, खैबर पख्तुन, सिंध, पश्चिम और पूर्व पंजाब, जम्मू काश्मिर, राजस्थान, हरियाणा, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, छत्तिसगढ, मध्यप्रदेश इतना विस्तृत प्रदेश आता हे। हिंदी की ब्रज, अवधी, कन्नौजी, बुंदेली, राजस्थानी, छत्तिसगढी, मालवी ऐसी कई सारी भाषाए है। इन सारी बोलियों को लेकर हिंदी के साहित्य सागर में काव्य, तत्त्वज्ञान, नाटक, कथा, कादंबरी, विज्ञान कहा जाए तो जीवन को समृध्द करनेवाला अथांग साहित्य निर्माण हुआ है। और वो अत्यंत स्वाभाविक है जिस भाषा से हिंदी भाषा का उद्भव माना जाता है वो अत्यंत वैभवशाली भाषा देवभाषा संस्कृत से है। संस्कृत से हिंदी का प्रवास संस्कृत, पाली, प्राकृत, अपभ्रंश, अवहट्ट, और हिंदी ऐसा हुआ है। हिंदी को संस्कृत की बडी कन्या माना और देवभाषा का सरल रुप माना गया हैं।
भारत की स्वतंत्रता के वाद हिंदी के प्रसार के लिए राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा का गठन किया गया। इस समितिने सन 1953 में संपूर्ण भारत में प्रतिवर्ष 14 सितंबर को हिंदी दिवस मनाने का अनुरोध किया। आज हिंदी के लिए कार्य करनेवाले गुजराथ के दो महानुभावों का संस्मरण करना उचित है। उनका नाम है स्वामी दयानंद सरस्वती और उनके द्वारा संस्थापित संस्था आर्य समाज ने दक्षिण भारत मे विशेष रुप से आंध्र प्रदेश में हिंदी की स्थापना का कार्य किया था। दुसरे है गांधीजी। 1918 में गांधीजी ने घोषण की थी की हिंदी को भारत की राष्ट्रभाषा निश्चित करना चाहिए। उसके बाद कांग्रेस ने हिंदी में कार्य करना प्रारंभ किया। गांधीजी के इस प्रस्ताव के बाद कांग्रेस के सारे प्रस्ताव हिंदी मे आना शुरू हुवा। 1918 के बाद गांधीजी जहा गए उन्होने हिंदी में ही बात करना प्रारंभ किया।
सांस्कृतिक दृष्टी से एक होने वाले इस भारतवर्ष में भाषाओं को लेकर विवाद की परंपरा आधुनिक काल की है। इतिहास में इस तरह के विवाद नही थे उलटे भारत के कई सारे विद्वानों ने हिंदी की बोलीओं मे साहित्य रचना करके हिंदी को समृध्द बनाया है। जिस तरह स्वामी दयानंद और गांधीजी का उल्लेख अनिवार्य है वैसेही उनके भी पूर्व विविध प्रांतों के कई सारे संतों ने हिंदी में साहित्य निर्मिती की थी। हजार वर्ष पूर्व संस्कृत से जन्मी हिंदी भाषा में साहित्य निर्माण करने वाले संतों मे संत नामदेव, संत ज्ञानेश्वर और नानक देव का स्थान अग्रणी है। असम के भक्तिपंथ के जनक श्री. शंकरदेव ने कई सारी रचनाए हिंदी की बोली ब्रज भाषा में की है। श्रीमंत शंकरदेव के सारे नाटक ब्रज भाष में ही है। नानक देव और शंकर देव असम में मिले थे और उस समय उनमें संपर्क का माध्यम ब्रज भाषा ही था। शंकर देव के दामाद माधवदेव ने भी ब्रज भाषा में ही साहित्य निर्माण किया था। ब्रज भाषा का उल्लेख आ ही गया है तो एक नाम लेना उचित होगा वो है महाकवि कविराज भूषण… मूलतः उत्तरप्रदेश के कानपूर जिले के कविराज कुछ साल आग्रा में औरंगजेब के राजसभा मे थे। किंतु शिवाजी महाराज के पराक्रम को सुनकर महाराष्ट आए। उन्होने अलंकार शास्त्र पर एक ग्रंथ की रचना की जिसके नायक थे छत्रपति शिवाजी महाराज और काव्यग्रंथ का नाम था शिवराज भूषण। वो जमाना रिति काव्य अर्थात श्रुंगार रस प्रधान काव्य का होते हुए भी भूषण ने अपने परंपरा को तोडकर अपना काव्य वीररस में लिखा।
हिंदी में रचना करने वाले संतों की इस परंपरा मे संत नामदेव के साथ समर्थ रामदास जी का उल्लेख आवश्यक है। उन्होने उत्तर प्रदेश के लोकगीत चती गीत, फाग गीत, तथा अवधी गीतों मे गीत रामायण, ब्रज भाषा में कृष्ण लीला, पहाडी भाषा में शिवकाव्य की रचना की। इन हिंदी रचनाओं का कारण भी स्पष्ट था। महाराष्ट्र में अध्यात्म के माध्यम से प्रज्वलित राष्ट्रप्रेमी की ज्वाला को महाराष्ट्र के बाहर प्रज्वलित करना था। अतः 100 से भी अधिक हिंदी रचनाए स्वामी रामदास ने की थी।
इन सारे उदाहरणों को ध्यान में रखकर और इतिहास को समझकर अपनी प्रांतीय भाषा के साथ राष्ट्र की एक भाषा हो इसकी लिए हम सब ने कार्य करना चाहिए। विविध भाषा ओं का अध्ययन हमे उन्नत बनाता है। अतः भाषा पर विवाद से भाषा पर सुसंवाद अधिक उपयुक्त है।