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विनोदकुमार विश्वकर्मा ‘विमल’, काठमांडू, 8 सैप्टेम्बर ।



आंकड़े बताते हैं कि पिछले २५ वर्षो में नेपाल ने शिक्षा के क्षेत्र में काफी तरक्की की है । मगर इस चमकते देश की सार्वजनिक शिक्षा व्यवस्था का एक स्याह पहलु भी है । साल १९९० से प्राथमिक स्कूलों में दाखिले की दर काफी बढ़ी है । ६४ सदी से बढ़कर यह साल २०१५ में ९६ फीसदी हो गई है । इतना ही नहीं, प्राथमिक और माध्यमिक स्तर पर लड़के–लड़कियों का अनुपात भी बढ़कर लगभग समान हो गया है, यानी लड़कों की तुलना में लड़कियां ज्यादा दाखिला ले रही हैं । मगर हमारे लिए अच्छी खबरों का अन्त यही पर हो जाता है । असल में स्कुल लिविंग सर्टििफकेट परीक्षा उत्तीर्ण करने वाले छात्रों का प्रतिशत ५० से भी कम है, जिसमें निजी स्कूलों के छात्र शामिल है । साल २०१५ में महज ४७.४३ फीसदी छात्रों ने स्कूल लिविंग सर्टिफिकेट की परीक्षा पास की । हालांकि इस साल ज्यादा छात्र सफल होते दिखे हैं, मगर इसकी वजह ग्रेडिंग सिस्टम की शुरुआत है ।

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नेपाल की मौजूदा शिक्षा व्यवस्था की नींव १९५० के दशक में पड़ी है, मगर अफसोस पिछले छह दशकों से अधिक समय के बाद भी बमुश्किल इसमें विकास हो पाया है । इस वर्ष जून में संसद ने आखिरकार एक विधेयक पारित किया, जो शिक्षा व्यवस्था का यर्कातरण करने और चरणबद्ध तरीके से स्कुल लिविंग सर्टिफिके को खत्म करने से जूड़ा था । ग्रेडिंग की व्यवस्था भी इस साल से शुरु की गई है । स्कूल लिविंग सर्टिफिकेट के इतिहास (८३ वर्ष) में यह सिस्टम लागू की गई है । मगर ये सारे विषय टोटके ही साबित हुए हैं । कक्षा एवं पठन–पाठन का तरीका बमुश्किल बदला है । छात्र साल के अन्त में होनेवाली परीक्षाओं के आधार पर ही आंते जाते हैं । चूँकि इसमें पिछले वर्षों के सवालों में ही थोड़ा बहुत फेरबदल करके केवल सवला तैयार किया जाता है, इसलिए जिन छात्रों को रटना आता है, वे इसमें बेहत्तर कर लेते हैं । और कई प्रयासों के बाद भी फेल रहने वाले छात्र पढ़ाई से तौबा कर लेते हैं । ये हालत तब है, जब सरकार शिक्षा पर काफी खर्च कर रही है । इस वर्ष भी ११६ अरब यानी कूल बजट का ११ प्रतिशत हिस्सा शिक्षा को दिया गया है । लिहाजा सार्वजनिक क्षेत्र की शिक्षा व्यवस्था को दुरुस्त करने के लिए ठोस प्रयास किए जाने की जरुरत है



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