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बिम्मी शर्मा, बीरगंज , ८ मार्च | आंचल मतलब नारी या नारीत्व का प्रतीक । पर यह प्रतीक धीमे–धीमे मैला हो रहा है । नारी सृष्टि की गरिमा है पर उसी की सृष्टि को उसका नाम नहीं मिलता । वह नौ महीने गर्भ में रख कर बच्चा जनमाती है वही बच्चा उसके नाम से नहीं समाज के निर्धारित खांचे मे फिट हो कर पिता के नाम से जाना जाता है । उसको नागरिकता भी मां के नाम से नहीं पिता के नाम से मिलती है । और इसमें सहयोग कर रहा है हमारा संविधान और सरकार जो माता या पिता नहीं माता और पिता दोनों का नाम चाहिए नागरिकता में । नहीं तो कुछ कुठिंत दिमाग के सोच के हिसाब से तो यह देश ननिहाल बन जाएगा । इसीलिए तो सरकार अपने नौनिहालों को नागरिकता में अपनी मां के आंचल का छांया देना नहीं चाहती । भले ही मां का आंचल मैला हो जाए कोई बात नहीं ।

इस देश में संवैधानिक पदों में तीन देवियां विराजमान है पर घर और समाज की देवियों को वह बराबरी का हक और न्याय दिलाने में कोई पहल नहीं करती । यह तीन देवियां पत्थर की बुत की तरह है जो चढ़ावा और पूजा खुद तो स्वीकार करती हैं पर दूसरी देवियों को बांटती नही है । क्योंकि इस से उनकी सामाजिक मान प्रतिष्ठा में कमी हो जाएगी । १० साल पहले देश की राजधानी में हुई पत्रकार महिलाओं के एक सम्मलेन में मंच पर बैठी थी किसी एक एफएम की स्टेशन मैनेजर । उसे पूरे नेपाल में सिर्फ एक ही महिला स्टेशन मैनेजर है कह कर प्रचारित किया गया था । इसी अभिमान में वह फूल कर मंच पर बैठी हुई थी । जब बाद में मंच में बताया गया कि पश्चिम नेपाल में थारु जति की एक महिला भी वहां की किसी एफएम मे स्टेशन मैनेजर है । जब इन को स्टेज में बुलाया गया तब उन महिला का चेहरा देखने लायक था । क्योंकि उन का दर्प जो चूर–चूर हो गया था ।

पुरुष तो महिलाओं को जितना पीछे नहीं धकेलता उतना महिला खुद ही अपनी जाति को पीछे धकेल रही है । दामाद का ससुर और साले भले ही कोई अनबन न हो पर बहु अपनी सास या ननद को सह नहीं पाती । न सास और ननद को भी अपनी बहु और भाभी फूटी आंख सुहाती है । हमेशा एक दूसरे से शिकायत और नीचा दिखाने में इनका समय जाया होता है । जितना घर के वर्तन नहीं खट्कते होंगे उतनी घर की महिला एक दुसरे की आंखो में खट्कती है । पति अपनी मां के लिए ब्लाउज का कपडा भी खरीद कर लाए तो बहु दुर्योधन बन कर घर में महाभारत शुरु कर देती है । वह यह नहीं सोचती कि अपनी सास या किसी औरत का अपमान उसका खुद का अपमान है । क्योंकि वह भी तो कल माँ या सास बनेगी । पर औरत पति प्रेम में इतनी अंधी होती है कि उसे मां का प्रेम दिखाई नहीं देता ।

औरतों पर सामाजिक रूप से कितना अत्याचार होता है । अभी भी बहुत से घरों में बेटा और बेटी के बीच भेदभाव कायम है । देर रात कहीं अकेले वह जा नहीं सकती । रेप और किसी भी प्रकार की हिंसा में औरत के जान को ही खतरा है । वह सुंदर है तब भी और असुंदर है तब भी समाज की निगाह उसी पर टिकी रहती है । अपने शरीर पर जब औरत का हक नहीं है तो बाकी सारे हक मिलने पर भी तो वह अधूरी ही है । उसके शरीर का खरीद फरोख्त सब्जी मंडी में सब्जी की तरह किया जाता है । दुख और हैरानी की बात यही है की कभी कभार उस मंडी मे ग्राहकों से मोल मोलाई करने वाली भी औरत ही होती है । औरत किस–किस से बचे और कहां तक बचे जब उसकी अपनी ही कोख लात मार के उसे वृद्धाश्रम भेज देता है । एक औरत का दुख दूसरी औरत क्यों नहीं समझ पाती ?

अब तो नारी की महत्ता को पुरुषों ने ही चुनौती दे दी है । हाल के दिनों में सरोगेसी या भाड़े की कोख की मदद से कई प्रसिद्ध पुरुषों ने एकल पिता बनने के अपने सपने को पूरा किया है । वह कुंवारे भले न हो पर शादीशुदा नहीं हैं और बिना पत्नी या मां के सरोगेट मदर के सहयोग से पिता बनने का गौरव हासिल किया । इन पुरुषों को किसी ने नहीं पूछा कि इस बच्चे की मां कौन है ? पर यही काम अगर सरोगेट फादर के मदद से औरत करे तो उसे चरित्रहीन माना जाता है । समाज उससे झट से उस बच्चे के पिता का नाम पूछेगा । उस एकल मां से पैदा हुए बच्चे को देश की नागरिकता मिलने में कठिनाई होगी । यहां पुरुष जाति से प्रतिस्पर्धा की बात नहीं है । बात तो समाज के उस सोच की है जो मर्द और औरत के लिए बनाए गए अलग–अलग नियम से है ।

महिलाएं भी पुरुषों से प्रतिस्पर्धा करेगी उनके शराब और सिगरेट पीने से । मर्द अगर अंडर वेयर पहन कर चलेगा तो औरत भी वही पहनने की आजादी को ही नारी स्वतंत्रता समझती है । देर रात तक डिस्को में धुत हो कर बैठना या चार प्रेमी बना लेना ही औरत की आजादी नहीं है । समाज में सदियों से हो रहे भेदभाव को अंत कर के औरत को बराबरी का हक दिलवाना ही असली आजादी है । औरतों के प्रति कुठिंत सोच, घिसेपिटे नियम, उनकी तरफ उठने वाले हेय और सहानुभूति की वेधती दृष्टि को ही तो बदलना आज की चुनौती है । पर औरत खिड़की और दरवाजे की तरह अपनी आंख और होंठ में काजल और गाढे रगं की लिपिस्टिक लगा कर किसी पांच सितारा होटल में नारी अधिकार के नाम पर नारी दिवस के दिन जाम टकराने को ही अपनी असली आजादी मानती है । कितनी दयनीय सोच है ?

मात्र हर जगह या हर पद में आरक्षण मिलने से ही औरतों को उनका अधिकार नहीं मिल जाता । अभी भी गाँव, देहात में किसी गरीब की बेटी दहेज की अग्नि में स्वाहा हो जाती है । किसी बुढी, गरीब और अकेली महिला को डायन का आरोप लगा कर अपने ही घर से बेदखल किया जाता है । अपने दर्जनों बच्चो को पाल पोस कर बड़ा करने वाली मां को बच्चों के घर के आगंन में एक पेड़ के जितना भी जगह नहीं मिलती और जीवन के संध्या बेला में वह वृद्धाश्रम में पनाह लेती है । क्या इस से औरतों का आंचल मैला नहीं हो रहा है । यह आंचल मैला इसी लिए हो रहा है कि शासक और शासित दोनों का मन मैला हो गया है । शासक जब शोषक बन जाता है तब कहां मिलता है कोई अधिकार ?

मां के रूप में औरतों को थोड़ा, बहुत सम्मान मिलता भी है । पर बांकी और रूप में उसकी भूमिका को अभी भी समाज ने स्वीकार नहीं किया है । जिस देश में राष्ट्रपति और प्रधान न्यायाधीश महिला होने के बाद भी संविधान में बच्चे को अपनी मां के नाम से नागरिकता मिलने की व्यवस्था पर मौन साधा गया है उस देश की महिलाओं को चुल्लु भर पानी में डूब मरना चाहिए । या तो महिला इन्ही तीन देवियों को अपने अधिकार का प्रयोग करते हुए औरत को समान अधिकार दिलवाएं नहीं तो उन्हे इस पद में बने रहने का कोई अधिकार नहीं हैं । क्योंकि इन तीन देवियों के कारण देश का गर्व मैला न हो जाए ? इसी लिए सब मिल कर प्रण करे महिला को महिला की गरिमा प्रदान करे उसे “मैला” न होने दें । जब किसी भी महिला का आंचल मैला हो जाता है तो देश का अस्तित्व मैला हो जाता है । (व्यंग)



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