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सत्य और ईश्वर एक होने का कोई संभावना नहीं है : कैलाश महतो


कैलाश महतो ,परासी
“ईश्वर ने सारे समाज को कोंढ, गरीब, दरिद्र और भ्रष्ट बना दिया है ।”
हम यह नहीं जानते कि ईश्वर है या नहीं । वह होगा भी और नहीं भी । मगर यह धोखा जरुर है । ईश्वर बेइमानों का सबसे मजबूत संरक्षक है । सारे गोरख और काले धन्धे ईश्वर के नाम से ही होते हैं ।
बहुत बातें सत्य है । जीवन के रंग और संग है । सत्य दो किस्म के होते हैं ः प्राकृतिक और संस्कृत । संस्कृत सत्य के बिना हम जी तो सकते हैं । मगर दिक्कतें होती है; जैसै, कपडे, शिक्षालय, घर आदि । प्राकृतिक सत्य के बिना हम जी ही नहीं सकते; जैसे, खाना, पानी, हावा, आदि ।
सत्य और ईश्वर एक होने का कोई संभावना ही नहीं है । सत्य ईश्वर नहीं हो सकता । सत्य प्राकृत है, जबकि ईश्वर संस्कृत है । ईश्वर मानव निर्मित एक शक्ति है, जैसे विज्ञान परमाणु तथा न्यूक्लियर बम बनाता हैं, कम्प्यूटर बनाता है, रोबोट निर्माण करता हैं । सत्य से ईश्वर बनता है, ईश्वर से सत्य कभी निर्माण नहीं हो सकता । सत्य ही ब्रम्हाण्ड है और ब्रम्हाण्ड ही सत्य है । मानव निर्मित ईश्वर और धर्म से पहले भी सत्य और धर्म थे । प्रकृति ही सत्य थी और धर्म ही प्रकृति थी । आज भी है । मगर लोगों ने इसके साथ चालाकी की है, छल और बेइमानी की है ।
बुद्ध से उनके एक शिष्य पूछते हैं, प्रभु, “ईश्वर है या नहीं ?” जवाब में बुद्ध कहते हैं, “तुम्हें अगर लगता है तो, होगा, नहीं लगता है तो, न होगा । ईश्वर के बारे में आजतक मुझे कोई जानकारी नहीं मिली है । तुम्हें अगर कुछ पता चले तो मुझे भी बता देना ।”
गौर करें तो ईश्वर, भगवान्, प्रभु, अल्लाह, गड आदि सब सम्मानजनक शब्दे हैं जो किसी महापुरुष के सत्कर्म के बाद तत्कालिन समाज ने उनके नाम के साथ जोड दिए होंगे । करमचन्द गाँधी महात्मा नहीं थे । उन्होंने समाज और राष्ट्र के लिए महान् त्याग किया, और त्यागपूर्ण कामों के सम्मान में सुवासचन्द्र बोस ने उन्हें “महात्मा ”कहा जिसे समाज ने स्वीकार किया और उन्हें “महात्मा गाँधी” ही नहीं, अपितु “बापू” के नाम से भी उन्हें नमाजा गया । बुद्ध भी प्रभु या भगवान् नहीं थे, परन्तु उनके वे शिष्य जिन्होंने उन्हें कभी तिरष्कार किया था, ने उन्हें प्रभु नाम से बुलाये । ऐसा प्रतित होता है कि ये सारे शब्द विशेषण रहे होंगे जो कालान्तर में संज्ञा बन गये ।
मेरे पिता जी के देहान्त के बाद हिन्दु संस्कार के अनुसार तेरहवीं काम शुरु हुए । मेरे पिता जी ने अपने बाप दादों से पाये सम्पति बचाने के अतिरिक्त अपने कमाई से भी कुछ सम्पति जोडे । बडे भला आदमी रहे वे । जिन्दगी में कभी किसी से कोई बैर व झगडे नहीं किये । प्रतिष्ठित लोग रहे । उनके तेरहवीं के दिनों में उनका कर्म काण्ड कराने के नाम पर आने बाले कन्टाह ब्राम्हण ने जो हमारी दशा की, वो याद करने लायक है ।
वे ब्राम्हण हर शब्द व कर्म पर पैसे लिए । मृत शरीर को जलाने से लेकर निवृति पानेतक पैसा और दान दक्षिणा देने पडे । भोजन करने के लिए पैसे, हाथ धोने के लिए पैसे, किताब निकाले के लिए पैसे, किताब पढने के नाम पर पैसे, कुश निकालो तो पैसे, पहनो तो पैसे, मन्त्र पढे तो पैसे । हर चीज के लिए पैसे लिए गये । होते होते बारहवीं और तेरहवीं के दिनों में मेरे पिता जी के लिए दर्जनों के संख्या में दर्जनों प्रकार के पितल के वर्तनें, पिता जी को दुध दही खाने के लिए बाछी, सोने के लिए पलंङ्ग, तन्ना, तकिया, पहनने के लिए चप्पल, दाल चावल, सब्जी, दही, घी, लत्ते कपडे आदि सैकडों चीजें उपलब्ध करानी पडी । विरोध करने पर समाज के लोग भी हमारे विरोध में खडे होने लगते थे । साथ में लोगों को आधा दर्जन बार भोज खिलाने पडे । दश गाँवों के लोगों को बुलाकर उन्हें सभा की भोज खिलानी पडी । मान्यता यह कि भोज खिलाने से मृतात्मा को मोक्ष मिलती है । अभी भी पिता के काम से निवृत नहीं हो पाया हूँ । वर्ष दिन के बाद होने बाला वर्षी करना बाँकी है । जले हुए शरीर से लिए गये हड्डियों को गंगा में बहानी बाँकी है, जहाँ पंडितो की मार खानी है ।
संसार के कुछ चालाक लागों ने बडे चातुर्य से बाँकी के समाज को ठगने, शोषण करने और उल्लू बनाने का रोजगार बनाया । आश्चर्य की बात है वे कुछ लोग कैसे हजारों हजार साल के लिए अपने तथा अपने वंशजों के लिए बिना कोई परेशानी जीने के लिए रोजगार की व्यवस्था कर ली ? समाज भिखारी होने के बावजूद वे उन समाजों के खून और पसिने से हुए कमाइयों को लुटते आ रहे हैं । और बडी ताज्जुब होगी जब यह जानेंगे कि पंडितों ने कमाने के ये तरीके सिर्फ अकेले से नहीं, अपितु समाज के कुछ राजा महाराजा, मन्त्रीगण, प्रशासक, धनाढ्य और व्यापारीयों ने मिलकर बनाया है । इसमें सबसे सबका लेनदेन है । बाहरी रुप जो भी हों, अन्दर विचित्र का मेलमिलाप होते हैं । वे एक दूसरे के लिए ही काम करते हैं ।
इसके लिए लम्बी कसरत की गयी होगी । वर्षोंतक तरकीब निकाला गया होगा और उसीे क्रम में सबने मिलकर त्रास का एक कला निर्माण किया होगा । उसी के क्रम में उन्होंने ईश्वर, प्रभु, भगवान्, अल्लाह, भाग्य, किस्मत, स्वर्ग और नर्क जैसे काल्पनिक शक्ति और संसारों का जन्म दिया होगा । उन्हें शक्तिशाली बनाया होगा । लोगों में भ्रम पैदा किया गया होगा । लोगों के दिमागों में डर पैदा किये होंगे । उसके साथ ही भूत, प्रेत, देवी, देवता, राक्षस आदि का भी आविष्कार हुआ होगा । समाज में भेद और विभेदों का जन्म दिया होगा । मानव समाज को अनेकानेक जात, उपजात तथा जातियों में बाँटा गया होगा । वर्ण व्यव्स्था कायम की गयी होगी । उँचनीच तथा छुवाछुत की प्रणाली लादा गया होगा । समाज को इस तरह तोडा गया कि बहुल समाज के विरोध में होने बाले मानव विरोधी कार्यों के विरुद्ध लोग एकत्रित न हो पायें और उसका विरोध न हो पायें । न्यून संख्या के चालाक लोगों ने बहुल संख्या के लोगों से अनेक तरीकों से उनके कमाइयों को लुटकर वे धनाढ्य होते रहे, व्यापार करते रहे, राजा महाराजा बनते गये और बाँकी के बहुल लोग कमाई करने और किसी तरह जिन्दा रहने के आलावा बाँकी कुछ कर न पाये ।
उनको सत्य से दूर रखने के लिए उन्हें शिक्षा, ज्ञान और अध्ययनों से दूर रखा गया । कभी भूत प्रेत तो कभी धर्म के नाम पर तो कभी भगवान् के नाम पर उनका शोषण होता रहा ।
हम देखते हैं कि इंसान जैसे धूप, ठण्ड, पानी, जानवर या किसी प्राकृतिक या कृतिम आपदाओं से बचने लिए अपने इर्दगिर्द अनेक घेरा लगाते हैं, घर बनाते हैं, कपडे पहनते हैं, बाँध बनाते हैं, उसी तरह लोगों के दिल दिमाग में चालाक लोगों के द्वारा डाले गये डर, त्रास और लालच के कारण उनके द्वारा निर्मित ईश्वरों की पूजा करने, पंडितों को दान दक्षिणा देने, मालिकों का विश्वासपात्र बनने और कष्ट सहकर भी अगले जन्म में वर्तमान जीवन की फल पाने की कामनाओं से उनके प्रपञ्चपूर्ण सूत्रों में समाज बँध गये । आज भी समाज मोक्ष पाने के लिए बेताब है जो कहीं होता ही नहीं है ।
आज भी समाज उन चालाक लोगों के द्वारा उत्पादित ईश्वर और पंडितों के चालाकी से बाहर निकलकर उस सत्य के साथ जिने की कोशिश करें, जिनके बिना यहाँ कुछ भी संभव नहीं है, तो मानव समाज फिर से राम राज्य का या माक्र्स का अटोपिया का जीवन प्राप्त कर सकता है । क्योंकि राम का मतलब सबमें रमने बाला, सबके पास होने बाला स्थिति होता है । राम का अर्थ दशरथ पुत्र नहीं ।
कुछ लोग यह कह लेते हैं कि एक परिवार को एक अभिभावक चलाता है तो ईश्वर नहीं तो आकाश, पाताल और पृथ्वी को कौन चलाता है ? ब्रम्हमाण्ड कैसे चलता है ? तो हमें इस बात से वाकिफ होना चाहिए कि जो स्वयं से संचालित होता है, वहीं ब्रम्हाण्ड होता है । यहाँ केवल सजीव ही नहीं, निर्जिव भी अपना काम करता है । मानव निर्मित ईश्वर जब संसार में नहीं थे, तब भी ब्रम्हाण्ड थी । उसी ब्रम्हाण्ड के छोटे छोटे अंश में कुछ अच्छे लोग अवतरित हुए जो बडे काम किये । वे काम किये तो प्रकृति ने उन्हें कुछ दे दिए । सब कुछ वे भी नहीं ले पाये । आज भी वही हो रहा है । दान में कुछ नहीं मिलता, काम से मिलता है । जिसके बिना हम जी नहीं सकते, वही प्रकृति है । वही दाता है । वही परम् शक्ति है । पूजा उसकी होनी चाहिए बिना किसी मन्दिर और चर्च के । धन्यवाद उनका होना चाहिए जो हमारे लिए ही उगता है, डुबता है, बलता है, बहता है, चलता है, मन्दिरों में नहीं ।

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