कर आतंक से त्रसित है जनता अाैर सुविधा का सुख भाेग रहे प्रतिनिधि : श्वेता दीप्ति
मंहगाई और टैक्स के भार से कराहती जनता की आँखों के आँसू और सूखे होंठ और दिल की कड़वाहट सभी इनकी नजरों से ओझल है
डा.श्वेता दीप्ति, काठमांडू । कुछ महीने पहले जो जनता एक स्थाई सरकार प्राप्त होने और देश के विकास की कल्पना से खुशी मनाते नहीं थक रही थी, आज वही जनता सरकार के कर आतंक से त्रसित है । सामान्य जनता समझ नहीं पा रही कि वर्तमान सरकार किसका प्रतिनिधित्व कर रही है । क्या सरकार अपनी ही जनता की स्थिति से अनभिज्ञ है ? क्या सरकार को नेपाल की आम जनता की आमदनी का पता नहीं है ? विकास के नाम पर टैक्स का ठिकरा फोड़ने वाली सरकार क्या आम आदमी से जीने का हक नहीं छीन रही है ?
मंत्रालयों को तोड़कर नए मंत्रालयों का गठन करना और अपनी सत्ता की उमर बढाना और फिर उसी के पालन पोषण के लिए कर का भार निरीह जनता पर लादना यही है इस देश की विकास नीति । साइकिल चलाने पर टैक्स, फूटपाथ पर खोमचे लगाकर अपने परिवार का पोषण करने वालों से टैक्स, नाई से टैक्स, घास काटने वालों से टैक्स, हद तो तब हो गई जब जन्म पंजीयन में १००० रुपया का टैक्स, मरने के बाद भी टैक्स । हर ओर सिर्फ और सिर्फ टैक्स का भूत आम जनता के सर पर मंडरा रहा है ।
चना चटपटी बेचने वाले जो फुटपाथ पर भी सरक्षित नहीं हैं कि कब व्यवस्था के नाम पर उनके ठेले को तोड़ दिया जाएगा या भगा दिया जाएगा, ये वो भी नहीं जानते उनसे भी दैनिक कर की अपेक्षा । बड़े बड़े पार्लर के साथ ही सड़कों पर बाल काटने वाले नाई और चप्पल ठीक करने वाले नाइयों से भी दैनिक पचास रुपया का टैक्स वसूल करना यह कहाँ तक उचित है ? कई बार जिनके घरों में चुल्हे नहीं जलते उन्हें अनिवार्य रुप से सरकार को टैक्स देना ही होगा यह है स्थायी सरकार की विकास नीति । देश के विकास की नीति बनानी आवश्यक है किन्तु उस नीति का सर्वसाधारण पर कैसा असर हो सकता है क्या यह सोचने की जिम्मेदारी सरकार की नहीं है ? टोकड़ी मे साग बेचने वाली बूढी महिलाओं से २५ रुपया टैक्स जिनके साग कभी तो बिकते हैं कभी मुरझाकर फेके जाते हैं । उनपर टैक्स का भार क्या यह न्याय है ? जन्म बडे घरों में भी होता है और एक गरीब के घरों में भी क्या ये गरीब जन्मदर्ता के नाम पर १००० रुपया देने की स्थिति में होंगे ? खेत में बुआई करने की स्थिति है या नहीं या किसान इसके लिए क्यों असमर्थ हुआ यह न जान कर खेत खाली रखने के एवज में उनपर जुरमाना लगाना, यह है सरकार नीति ।
जिनके पास पैसा है वो कर छलते भी हैं और इससे बचने के सौ उपाय भी निकाल लेते हैं पर ये गरीब कहाँ जाएँगे ?क्या सरकार इनके लिए नहीं है ? अगर प्रतिनिधि यह कहते हैं कि कर नहीं तो विकास कैसे ? तो क्या उनसे जनता यह सवाल नहीं करेगी कि रोजगार के उपाय नहीं तो कर कहाँ से ? देश में न तो रोजगार की संभावना सरकार दे रही है न ही युवा पलायन को रोकने की कोशिश की जा रही है । उद्योग व्यवसाय बनाने या बढाने के लिए कोई पुख्ता नीति उनके पास नहीं है पर जनता के खून से देश को बढाने की या अपनी आय बढाने की नीति जरुर इनके पास है ।
एक दूसरी वजह कर नीति को लेकर यह भी हो सकती है कि सरकार संघीयता को कमजोर करना चाह रही है ताकि आम और भोली जनता इस निष्कर्ष पर पहुाचे कि उनके ऊपर कर का भार इस लिए बढ रहा है क्योंकि देश संघीयता में जा चुका है और यह सोच संघीयता के प्रति एक नकारात्मक प्रभाव डालेगी तब सरकार संघीयता के असफल होने का दावा करेगी । क्योंकि सभी जानते हैं कि संघीयता में देश का जाना वर्तमान सरकार को न तो पहले पसंद था और न आज पसंद है यह उनकी बाध्यता थी जिसे फिर से पूर्व स्थिति में लाने की कोशिश जरुर की जा रही है ।
देश को सुनहरे सपने बाँटने वाली सरकार आज उन्हीं आँखों में आँसू दे रही है । काश नेता अपनी सुविधा में कटौती करते और देश हित में सोचते । पर नहीं, अपनी सुविधाओं में बढोत्तरी के किसी अवसर को वो अपने हाथ से नहीं जाने देते । इस मसले पर उनकी एकता भी काबिले तारीफ है । चार पाँच साल की अवधि उनके लिए सिर्फ अपने कल को सँवारने के लिए होती है जहाँ तत्परता से वो संलग्न रहते हैं । बीमारी के नाम पर, विदेश यात्रा के नाम पर और भी न जाने कितने बहाने हैं राजकोष से फायदा लेने के लिए इनके पास किन्तु जिस जनता की वजह से इन्हें यह सुख हासिल होता है उनकी ही याद इन्हें नहीं आती । मंहगाई और टैक्स के भार से कराहती जनता की आँखों के आँसू और सूखे होंठ और दिल की कड़वाहट सभी इनकी नजरों से ओझल है । क्या सचमुच जनता बलि का बकरा बनने के लिए ही होती है ?