इसी तरह धीरे-धीरे ख्वाहिशें ख़त्म होती हैं, इसी तरह धीरे-धीरे मरता है आदमी : अमरजीत कौंके
धीेर-धीरे

अमरजीत कौंके
इसी तरह धीरे-धीरे
ख्वाहिशें ख़त्म होती हैं
इसी तरह धीरे-धीरे
मरता है आदमी
इसी तरह धीरे-धीरे
आँखों से सपने
सपनों से रंग ख़त्म होते
रंगों से ख़त्म होती है दुनिया
सफ़ेद कैनवस पर
काली चिड़ियाँ
मृत नज़र आती हैं
इसी तरह धीरे-धीरे
इबारतें कविताओं में
सिमटतीं कविताएँ
पंक्तियों में सिकुड़तीं
पंक्तियाँ शब्दों में लुप्त होतीं
और शब्द शून्य में खो जाते
इसी तरह धीरे-धीरे
इन्तज़ार करते आँखों में
इन्तज़ार ख़त्म होता
तड़पते-तड़पते होठों का
लरजना भूल जाता
छुअन को ललकते पोरों से
कम्पन गायब हो जाता
इसी तरह धीरे-धीरे
घर इन्सान को खा जाते
दीवारें उसकी मज़बूरी बन जातीं
रिश्ते जो उसके पाँव की बेडियाँ होते
आदमी उन्हें पाजेब बना कर
थिरकने लगता है
इसी तरह धीरे-धीरे
व्यवस्था के खिलाफ़
जूझता आदमी
व्यवस्था का अहम्
हिस्सा बन जाता
रंगों की दुनिया में
मटमैला-सा रंग बन जाता
और कैनवस से
एक दिन लुप्त हो जाता
इसी तरह धीरे-धीरे
सोचते-सोचते आदमी
जड़ हो जाता है एक दिन
पता ही नहीं चलता कब
कोई उसके हाथों से क़लम
कोई कागज़ छीन कर ले जाता
इसी तरह धीरे-धीरे
एक कवि
कवि से कोल्हू का बैल बन जाता
और आँखों पर पट्टी बांध कर
मुर्दा ज़िन्दगी की
परिक्रमा करने लगता। -अमरजीत कौंके