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शान्ति सदा की कोकिल आवाज भी अमान्य क्योंकि वह मधेशी रंगरूप में थी : कैलाश महतो


कैलाश महतो, पराशी | जंगली अवस्थाओं को पार करते करते मानव लगातार कुछ न कुछ सिखता गया, विकास और प्रगति करता रहा । मानव ने आदिम कालों के जीवन को सहज बनाने के लिए अनेक रास्तों को अख्तियार कर विकास की नवीनम् रुपों को खोजा जो कालान्तर में सभ्यता कहलाया । उसी क्रम में सरल एवं सहज जीवन जीने के लिए उसने कुछ सूत्र प्रतिपादन किया, कुछ नियम कानुन बनाये और जीवन को परिष्कृत बनाया । वहीं से संस्कृति शुरु होती है । संस्कृति वास्तव में सिखा हुआ व्यवहार है ।
टायलर के अनुसार ः– संस्कृति समग्र में एक संकुलित व्यवहारिक सम्पति है, जिसमें ज्ञान, विश्वास, कला, नीति, नैतिकता, शिक्षा, कानुन, रीतिरिवाज तथा अन्य आदतों का संगम होता है, जिसमें व्यक्ति समाज का सदस्य होने का हक और हैसियत प्राप्त करता है ।
संस्कृति अच्छाईयों से जुडा होता है । संस्कृत शब्द से बना शब्द संस्कृति में प्रकृति और नीति दोनों का मिलन होता है । संस्कृत का मतलब ही मानव निर्मित कृत होता है । यह विकृति के ठीक उल्टा होता है । जैसे, भूख लगने पर खाना खाना प्रकृति है । घर में बने खाना को आपस में बाँटकर खाना और प्रेम से सबको खिलाना संस्कृति है । मगर सारा खाना स्वयं खा जाना या अच्छा भाग खुद के लिए रखकर बेकार के भागों को दूसरों को सौंपना विकृति है । वह संस्कार भी नहीं हो सकता । संस्कार का अर्थ “सम्” है । “सम्” अर्थ “सम्यक”् ‐अच्छा) और “कार” का अर्थ “कृति” है । अच्छे कार्य को ही संस्कार कहा जाता है ।
कला से ही कलाकार बनता है । कला मानव भावों को व्यतm करने का एक परम् अभिव्यक्ति है । भारतीय उपमहाद्वीप के संस्कार में कला का सबसे पहला प्रयोग ऋग्वेद में हुआ है । कभी कभी इसे शिल्प भी कहते हैं । किसी न किसी रुप में कला सबके पास होता है । मगर कोई उसे व्यतm कर देता है तो किसी को इसका आभासतक नहीं हो पाता । वेदों को मानें तो अनेक कलाओं के कारण ही आज का मानव जीवन सार्थक है । सारे विज्ञान कला पर ही नाच रहा है ।
अनेक कलाओं में गायन कला भी एक महत्वपूर्ण कला है । गीत भी एक विज्ञान है । इसे गाता सब है । गाना सब चाहता है । सुनता सब है । इसे सुनना सब चाहता है । मगर इसको गाने की कला सबमें नहीं होती । इसको सुनकर समझने की कला भी सब में नहीं होती । गीत गाना और गीत में प्राण वायु भरना दो अलग अलग बातें हैं । गीत, गजल या कविता तबतक किसी कागज पर लिखे हुए काले अक्षर, शब्द या पढने योग्य वाक्य ही हैं जबतक उसे कोई अपने लयों में बाँध न दें, उसमें जान भर न दें, उसमें जादु कर न दें, उसमें अपने आवाज के तरङ्गों को लहरा न दें । लेकिन लय, तरङ्ग व रिद्म् को संस्कृतियों के अनुसार मान्यता मिलती हैं ।
इस संसार में हम मानव ही अपने जीवन को प्रेम नहीं करते, बल्कि यहाँ के सारे प्राणियों में अपने जीवन के प्रति उतना ही मोह और प्यार है । और वह प्यार इसलिए होना चाहिए कि सिर्फ मानव के जीवन में ही संगीत व गीत नहीं, अपितु सारे प्राणियों में जीवन आनन्द के लिए कोई न कोई गीत और संगीत हैं जो हम नहीं समझते । हमारे भी गीत और संगीतों को वे नहीं समझते । इसी को लोक भाषा में कहते हैं “बाँसुरी से संगीत बजाये, भैंस करे पगुराई ।” जाहेर सी बात है कि मानव होकर भी हम सारे मानवों के गीत और संगीतों को नहीं समझ पाते । क्योंकि एक जापानी का गीत हमारे लिए एक कोलाहल के आलावा और कुछ नहीं हो सकता । एक बंगाली का गीत एक अमेरिकन के लिए एक आवाज से ज्यादा और कुछ नहीं । उस अवस्था में मैथिल गायिका शान्ति सदा की कोकिल आवाज को एक नेपाली गायन परीक्षण मण्डल ने भी बस् एक आवाज ही सुना, कला नहीं देखा, भाव को नहीं जाना, संस्कृति को नहीं पहचाना । गौर करने बाली बात यह है कि शान्ति सदा जिस हावभाव में मैथिली अपने गीत को गायी थी, वह गीत मैथिल समाज के लिए गहना है, उनकी आवाज में वो सारी कान्तियाँ हैं, जो एक गायक में होता है । मगर उसका भाव नेपाली संस्कुति के भितर जकडे हुए निर्णायक मण्डलों ने नहीं समझ पाये । वहाँ और भी बहुत सी बातें मायने रखने बाली हैं ।
सही में कहा जाय तो गायन मण्डल परीक्षण समूह का भी खास ही कोई दोष नहीं होना चाहिए । कारण स्पष्ट है कि वे मैथिली भाषा, संस्कृति, भावना, आकांक्षा, मर्म, पीडा और वेदनाओं को समझ ही नहीं पाये । दूसरा, वे नेपाली बाहेक अन्य भाषाओं को राष्ट्रिय मञ्चों पर अधिकारी बनाना नेपालीपन को चुनौती के समान लेते हैं । उसमें भी उस क्षेत्र का भाषा जिस भाषा के लोग नेपाली राज्य को पानी पिलाता रहता है, तवाह करता रहता है, को प्रतिष्ठा देना तो अपने दुश्मन को अपने गोद में खेलाना जैसा ही है ।
एक बात सत्य है जिसका अपना देश नहीं, उसका अपना भेष भी नहीं । जिसका शासन नहीं, उसका अपना भाषा भी नहीं । गुलामों का कोई देश नहीं होता । जब देश नहीं तो उसका और उसके भाषा और संस्कृतियों का सुरक्षा कौन करेगा ? वहाँ उसके भाषा, संस्कृति, संस्कार, कला, साहित्य और विधा का कोई सम्मान होना अकबर के जैसे आकाश में कहल बनाने जैसा ही होगा ।
मञ्च पर गीत गाती शान्ति सदा किसी गायक से कम नहीं लगती । उसमें हर वो कला, संवाद की क्षमता, अभिव्यक्ति की निखार और व्यक्तित्व की गुंजनइस मौजूद रहा । वो बडे अरमान से अपने और अपने भाषा, साहित्य, कला और रंग को नेपाली मानकर नेपाली सम्मान पाने की ख्वाहिस रखी थी । मगर उनका वह गीत ने नेपाली संस्कृति को नहीं छुआ, न राज्य ने उस संस्कृति को अपना संस्कृति मानी । मगर उस गायन परीक्षक मण्डल ने एक काम की । उसने शान्ति सदा का जात और समुदाय पूछा । जब उन्होंने बताया कि वो मधेशी मिथिला क्षेत्र के फलााँ समुदाय से सम्बन्ध रखती है, तो बडे प्यार से उन्हें उनके उपर रहे शोषण, विभेद और भेदभावों के प्रति सहानुभूति दर्शाये । बेचारी शान्ति सदा और उनके परिवार को उनके उस सहानुभूति को पाकर ही खुश होना पडा । आखिर शान्ति सदा को उसने कमसे कम मञ्च पर चढने तो दिया । मधेशी बडे लाल लोग तो वह भी मौका नहीं देते ।
जब शान्ति जी ने अपना जीवनी सुनायी, सासु माँ और पति का प्रशंसाा की, उस गायन मण्डल को उनके संघर्षों पर गर्व हुआ । उनके सासू माँ के बातों पर तालियाँ बजायी, उनके श्रीमान् के सहयोगों को सराहना की, शान्ति की साहस और धैर्य का प्रशंस हुआ । मगर उनके गीत का, गीत में रहे उनके भावनाओं का, उनके अद्वितीय गायन कला का स्थान देना मुनासिव नहीं समझा गया । कारण वो मधेशी रंग रुप से थीं । उनका गीत मैथिली था । राज्य के आतंक विरुद्ध के हर आन्दोलन उसी मैथिल लोगों ने की है । राज्य उसी मैथिली भाषा में गाली और शिकायत सुनता रहा है । राज्य के लिए तो सिर्फ मैथिल, भोजपुरे, अवधि, कोचे, मेचे, सन्थाल, सत्तार, धिमाल, बाँतर, थारु, मुस्लिम आदि ही शत्रु नहीं हैं, बल्कि उसके भाषा और संस्कृतियाँ भी उसका सरदर्द हैं । उसमें भी जब मधेशी सान्तवना, प्रशंसा, पुलपुलाहट, सहानुभूतियों से ही खुश और सन्तुष्ट हो जाते हैं तो फिर उसे राज्य का और अवयवों में सहभागी क्यों करायें ? आखिर उसके बडे बडे क्रान्तिकारी नेताओं का चरित्र भी तो वैसा ही है ! इसिलिए शान्ति सदा की कोकिल आवाज को भी अमान्य होना पडा ।

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