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नेपाल को पृथ्वीनारयण शाह ने जिता वा अंग्रेजों ने जिताया ? कैलाश महतो

कैलाश महतो, परासी | एड्मण्ड बर्क ने दुनियाँ के सारे इतिहासों को गलत और मनगढन्त दस्तावेज बताया है । उनके घर के पिछे मृत एक आदमी के मृत्यु पर दिखे चश्मदीद गवाहों के बीच मतान्तर को देखते हुए सारी उम्र लगाकर उनके द्वारा पूर्ण होने जा रहे अपने विश्व इतिहास के किताब को ही उन्होंने फाड डाली ।

जर्मन प्राध्यापक डा.एच.जी बेहर, ईष्ट इण्डिया कम्पनी और गोर्खा राज्य के बीच हुए लण्डन के आर्काइव में सुरक्षित गोप्य सम्झौतों के दस्तावेज, क्याप्टेन किनलक के निजी डायरी, अंग्रेज जनरल अक्टरलोनी के जीवनी, अंग्रेज क्याप्टन सिअन के डायरी, सम्वत् १८१७ में उनके डायरी में व्यतm लर्ड हेस्टिंग्स् के तथ्यों से प्रमाणित यही होता है कि सम्वत १७६६ मार्च १७ के दिन तत्कालिन नेपाल के किर्तीपुर, १७६८ के दिन काठमाण्डौ, सम्वत १७६८ अक्टूबर ६ के दिन ललितपुर और सम्वत १७६९ नोवेम्बर १२ के दिन भतmपुर को गोर्खा द्वारा जिते जाने की जो इतिहास खडे किये गये हैं, वे बिल्कुल गलत, बेबुनियाद, मनगढन्त और भ्रामक ऐतिहासिक पन्ने हैं ।

नेपाल के वास्तविक इतिहास को राजा महेन्द्र ने नेपाली इतिहासकारों से बदलवाकर अपने पूर्खों की जादुयीय महिमा और बहादुरी को दिखाने का काम किया है । वास्तविक इतिहास को छुपाया गया है ।

वास्तविकता यही है कि सम्वत १७१६ तक गोर्खा नरेश तथा पृथ्वीनारायण शाह के पिता नरभूपाल शाह इतने गरीब थे कि नेपाल और नेपाल बाहर के अन्य राजाओं के तरह ही चाँदी के राजगद्दी पर बैठ नहीं पा रहे थे । उनका सिंहासन मिट्टी का हुआ था जो उनको हमेशा अन्दर से कचोटता रहता था । वे चाहते थे कि वे भी चाँदी के आसन पर बैठें । मगर हैसियत नहीं थी । अपनी आर्थिक हैसियत को सुधारने और सम्पन्न होने के लिए उन्होंने कई सम्पन्न राजाओं और धनाढ्यों के घरानों में शादियाँ भी की । मगर हालात में जब कोई सुधार न आयी तो उन्होंने रणनीति परिवर्तन करते हुए अपने पुत्र पृथ्वीनारायण शाह के उचित शिक्षादीक्षा के नाम पर काठमाण्डौ, पाटन और भतmपुर के राजाओं से पत्र मार्फत विन्ती की । काठमाण्डौ ने पृथ्वीनारायण को नुवाकोट में शिक्षा देने की बात की और पाटन ने कोई जबाव ही नहीं दी जबकि भतmपुर के राजा रणजित मल्ल ने अपने धार्मिक स्वाभाव के कारण सम्वत १७३२ में उन्हें अपने ही दरबार में अपने बच्चों के साथ ही समान व्यवहार, लाडदुलार और सर्व रेखदेख में श्क्षिादीक्षा देने की व्यवस्था की । राजमहल से लेकर सैन्य, आर्थिक और हथियारीय अवस्था समेत के बारे में उनसे कुछ भी छुपाया नहीं गया । अपने ही बच्चे के तरह उन्हें पालन पोषण और शिक्षादीक्षा दी गयी । इधर नरभूपाल शाह काठमाण्डौ और पाटन से अपमान महशुश कर बदला लेने के फिराक में रातदिन बेचैन थे ।

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गरीबी किसी किसी को तीक्ष्ण बुद्धि दे देती है । भतmपुर दरबार में रहते हुए पृथ्वीनारायण शाह ने दरबार, उसके शान शौकत, शतिm, हथियार, सैन्य और आर्थिक क्षमता आदि के बारे में सारी जानकारियाँ ले चुका था । पाँच वर्ष भतmपुर दरबार में रहे पृथ्वीनारायण ने अपने पिता का अपमान का बदला लेने और गोर्खा राज्य बिस्तार हेतु काठमाण्डौ के नुवाकोट पर सम्वत १७४४ में किसान के भेष में आक्रमण्म की । मगर नुवाकोट पर हुए प्रथम आक्रमण से लेकर सम्वत १७६४ तक कुछ लुटपाट करने के आलावा लगातार मल्ल राजाओं से वे हारते रहे । अन्त में पृथ्वीनारायण ने मल्ल राजाओं को एक छलपूर्ण शान्ति प्रस्ताव भेजकर नेपाल मार्ग से भारत में रहे मुगलों और तिब्बत बीच चल रहे व्यापार नाकाओं पर नाकाबन्दी करने लगे । तबतक उनके पास अत्याधुनिक हथियारें मौजुद हो चुकी थीं । यह देखकर मल्ल राजाओं को ताज्जुब हुआ कि एक निर्धन गोर्खा के पास इतने आधुनिक हथियार आये कहाँ से ?

वास्तव में लडाई लडने के सारे खर्च और हथियार भारत में रहे तत्कालिन बेलायती शासकों ने उन्हें उपलब्ध कराया था जिस सम्झौता का मूल दस्तावेज इष्ट इण्डिया कम्पनी सम्बन्धि आर्काइव आज भी लण्डन में सुरक्षित है । उस गोप्य सम्झौता पत्र में गोर्खाली प्रतिनिधी और बेलायत के तरफ से क्याप्टेन सिअन ‐ऋभबलभ) की संयुतm हस्ताक्षर है । उस सम्झौता के अनुसार गोर्खालियों को ईष्ट इण्डिया कम्पनी की सरकार सम्पूर्ण सैन्य और रणनीतिक सहयोग और सल्लाह देने, और उसके बदले गोर्खा को नेपाल के मार्ग से तत्कालिन मुगल शासकों और तिब्बत बीच चल रहे व्यापारिक नाकाआों को ध्वस्त करना था । बेलायती शासन यह चाहता था कि उस व्यापारिक नाके को प्रयोग कर या उसे ध्वस्त कर व्यापारिक फायदे बेलायत ले सकें ।

लण्डन में सुरक्षित दस्तावेज के अनुसार बेलायत ने गोर्खा को ८ सौ थान अत्याधुनिक राइफल और एक्कीस बेलायती सैन्य सलाहकार सहयोग किया था । उन्हीं हथियारों और सैन्य सलाहकारों के बल पर गोर्खा को बारम्बार मात दिए किर्तिपुर को सम्वत १७६६ में जितने में पृथ्वीनारायण शाह सफल हुए । दो तिहाई किर्तिपुरियों को शाह ने मार डाले और बाँकी बचे नेवारों के नाक और ओठ काटे ।

किर्तिपुर की विभत्स कारनामों के बाद मल्ल राजाओं की जब निन्द उडी तो काठमाण्डौ के विद्वान् राजा जयप्रकाश मल्ल ने इष्ट इण्डिया कम्पनी सरकार को एक मार्मिक पत्र लिखते हुए सैन्य सहयोग की अपिल की । राजा जयप्रकाश मल्ल के पत्र अनुसार कम्पनी सरकार ने सम्वत १७६७ सेप्टेम्बर के अन्त में क्याप्टन किनलक के नेतृत्व में २,५०० सैनिक जवान का एक प्रभावशाली सैन्य टुकडी काठमाण्डौ के लिए भेजी । लेकिन वह भी एक छल था । कम्पनी सरकार ने राजा जयप्रकाश मल्ल को मानसिक रुप में हतोत्साहित करने का योजना बनाया था । उस सैनिक टुकडी का सहकार्य गार्खाली सैनिकों से कराया गया था । योजना के मुताबिक काठमाण्डौ को सहयोग करने जा रही बेलायती सैनिकों ने सेप्टेम्बर २६ के दिन गोर्खाली सैनिकों से काठमाण्डौ के पास लडने और उस लडाई में बुरी तरह हारने का अफवाह फैलाया । साथ ही गोर्खा सैनिकों से बेलायती सैनिक जित पाना मुश्किल होने का भी प्रचार किया गया ।

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बेलायती सहयोग का भरोसा खत्म होने के बाद जयप्रकाश मल्ल ने धार्मिक आस्था का सहारा लेते हुए एक ज्योतिषी के अनुसार सम्वत १७६८, सेप्टेम्बर १३ के दिन सारे जनता और सैनिकों के साथ शराब के नशे में कुमारी माता की पूजा अर्चना के साथ धुमधाम से इन्द्र जात्रा मना रहे थे । इस बात की जानकारी ले चुके गोर्खालियों ने अचानक चारों तरफ से हथियारलैश होकर आक्रमण कर बैठे । लोगों में हाहाकार और अफरातफरी मच गयी । जयप्रकाश मल्ल अपने रानियों के साथ रथ से छलांग लगाते हुए पाटन दरबार में जाकर शरण ले ली और काठमाण्डौ को गोर्खा ने कब्जा कर ली । उसी साल के जाडे मौसम में गोर्खा ने ललितपुर को भी कब्जा कर ली । अब सारे मल्ल राजायें भतmपुर दरबार में एकत्रित थे ।

गोर्खालियों के षड्यन्त्र और क्रुरता से वाकिफ भतmपुर दरबार ने देश के प्रतिरक्षा के लिए सशतm मजबूत सुरक्षा व्यवस्था कर ली जिसको जानकर भतmपुर पर आक्रमण करने की साहस गोर्खा में नहीं था । गोर्खा ने इस बात की जानकारी जब बेलायती सरकार को दी तो भतmपुर को चारों तरफ से नाकाबन्दी करने की सलाह मिली । उसके सलाह अनुसार गोर्खा सैनिकों ने तीन वर्षोंतक लगातार नाकाबन्दी करती रही । तीन साल के लम्बे नाकाबन्दी से भतmपुर भी तवाह हो गयी । खाद्यान्न अभाव और अन्य आवश्यक चीजों के लिए हैरान लोगों के कारण दरबार के एक ल्याइते सन्तान ने रात के समय में दरबार का मूल द्वार खोल दिये । उस अचानक खुले द्वार के रास्ते एकाएक गोर्खाली सैनिक भतmपुर दरबार के मूल शयन कक्षों में प्रवेश कर सारा चीज कब्जा कर लिये । सारे लोगों को बन्दी बना लिये । पृथ्वीनारायण शाह को पालनेपोषने, शिक्षादीक्षा देने, लाडप्यार करने बाले राजा रणजित मल्ल का पृथ्वीनारायण शाह ने हत्या तो नहीं की, मगर उनके दोनों आँखें फोडकर उन्हें बनारस भेज दिये । जयप्रकाश मल्ल ने आत्महत्या कर ली । ललितपुर का राजा रहे तेजनरसिंह मल्ल पृथ्वीनारायण से एक शब्द भी बोलने से परहेज करते रहे । उन्हें पृथ्वीनारायण ने एक शव रखे जाने जैसे ईंटा के च्याम्बर में बन्द कर उसमें रहे एक छोटे से छिद्र से सुक्खा खाना दिया जाने लगा । जब भोजन करना बन्द हुए मालुम पडा तो उस छिद्र को बाहर से बन्द कर दिया गया । यह सब क्याप्टन सिअन के सलाह अनुसार ही किया गया था । उसके बाद विकास का हर काम, खेतीपाती करने, पढने लिखने, विद्यालय खोलने, शिक्षादीक्षा लेने देने एवं अंगभंग भौतिक संरचनाओं समेत को मरम्मत करने में रोक लगा दी गयी ।

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क्याप्टन सिअन ने पृथ्वीनारायण से कहा था कि नेपाल का जनता काफी मेहनती, इमानदार और संघर्षशिल है । ये जनता काफी खतरनाक भी है । अगर इन्हें इनके कृषि, शिक्षादीक्षा, व्यापार और कला के क्षेत्र में आगे बढने से न रोका गया तो इनपर शासन करना नामुमकिन है । इन्हें शताब्दियों तक शासन सत्ता से दूर रखने के लिए इन्हें सैन्य बल से भी दूर रखना होगा । नेपाल गोर्खा उपनिवेश के अधिन में आते ही मुगल और तिब्बत बीच का व्यापार चौपट हुआ और सम्वत १७७८ में मुगल साम्राज्य को भी बेलायती शासन को स्वीकार करना पडा ।नेपाल को कब्जा करने के उन्माद में गोर्खाली लोग इतना बहकने लगे कि अब वे पहाडी इलाकों को निषेधित क्षेत्र घोषण करते हुए जब बेलायत और चीन के अधिकार क्षेत्रों समेत में दखलअन्दाजी करने लगे तो अंग्रेजों ने एक तरकीब निकालते हुए उन्माद से भरे गोर्खा जवानों को ज्यादा पैसे और सुविधा के नाम पर ब्रिटिश सेना में भर्ति कर राज्य बिस्तार के कामों से उनका ध्यान भंग किया ।

बेलायती जनरल अक्टरलोनी ने सम्वत १७८९ के अपने एक किताब में लिखा है, “हमें गोर्खाली सेना को कहीं न कहीं उलझाना होगा ता कि उसका दिमाग नेपाली राज्य बिस्तार से अलग हो जाये ।”

लर्ड हेस्टिंग्स् ने सम्वत १८१७ में अपने एक डायरी में लिखा है, “नेपाल में शान्ति लाने के लिए गोर्खाली सेनाओं को कहीं न कहीं व्यस्त रखना होगा, और वो भी उसके देश से बहुत दूर ।”

बेलायती शासकों के ही अनुच्छेदों से क्या यह प्रमाणित नहीं होता कि नेपाल को किसी पृथ्वीनारयाण शाह ने नहीं जिता, अंग्रेजों ने जिताया है ?

‐फरक फरक इतिहासकारों ने कुछ ऐतिहासिक घटनाओं की तिथियाँ फरक फरक लिखी हैं ।

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