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कुमार सच्चिदानन्द
दो समानान्तर रेखाओं का मिलना जितना कठिन है, दो विपरीत दिशाओं का मिलना जितना कठिन है, धरती और आकाश का मिलना जितना कठिन है, उतना ही कठिन कभी माओवादी और मधेशवादी दलों का मिलना माना जा रहा था। लेकिन राजनीति में कुछ भी असंभव नहीं है और होनी भी नहीं चाहिए क्योंकि यह धर्म-साधना का क्षेत्र नहीं बल्कि लक्ष्य-साधना का क्षेत्र है। लक्ष्य के प्रति नैतिक रूप से समर्पित होना ही इस क्षेत्र की धर्म-साधना है। इन्हीं बातों को चरितार्थ करते हुए पिछले दिनों माओवादी और मधेशवादी दलों की सहमति, सहभाव और समन्वय से श्री बाबूराम भट्टर्राई के नेतृत्व में सरकार बनी जिसमें मधेशी दलों और उसके नेताओं की भूमिका न केवल व्यापक है वरन् महत्वपर्ूण्ा भी है। यह नवीन गठबंधन वर्त्तमान परिस्थितियों में महत्वपर्ूण्ा भी है क्योंकि अब तक की गणतांत्रिक राजनैतिक यात्रा में प्राचीन बनाम नवीन के द्वन्द्व की स्थिति देखी गई है और ये दोनों नवीन राजनैतिक शक्तियाँ हैं।
म्ााओवादी और मधेशी राजनीति की संयुक्त सरकार अभी देश में सत्तानशीं है और यह गठबंधन राष्ट्र में एक प्रभावी सरकार की तरह अपनी उपस्थिति दर्ज कर रहा है। संविधान सभा के निर्वाचन के बाद जो राजनैतिक शक्ति अब तक की परिस्थितियों में सरकार बनाने के लिए अपनी अनिवार्यता घोषित कर रही थी आज वह हाशिए पर है और एक नवीन राजनैतिक शक्ति के रूप में मधेशवादी दलों का उदय राजनैतिक रंगमंच पर हुआ है। यद्यपि यह शक्ति पहले भी थी लेकिन विभाजित रूप में होने के कारण अपनी सशक्त उपस्थिति नहीं दर्ज करा पा रही थी। समय-क्रम में हालात बदले हैं। टूटते-बिखरते हुए ये दल मधेशी मोर्चा के रूप में संगठित हुए हैं। कुछ ऐसे भी दल हैं जो इस मोर्चा में सहभागी नहीं हैं लेकिन माओवादियों से उनकी वैचारिक एकता पहले भी अनुभव की जा रही थी और आज भी है। इसके अतिरिक्त कुछ ऐसे भी मधेशवादी दल हैं जो मोर्चा में आबद्ध न होकर भी माओवादी सरकार कोे र्समर्थन के साथ-साथ इसमें अपनी सहभागिता दे रहे हैं। इसे माओवादी राजनीति की सफलता ही मानी जाएगी कि अब तक जो राजनैतिक चिंतन और विचारधारा उनकी मुखर विरोधी थी आज उनके साथ और र्समर्थन में खडÞी है। यद्यपि यह संगठित शक्ति आज सरकार चला रही है लेकिन दोनों अगर एक-दूसरे का विश्वास जीतने में सफल रहे तो भविष्य में नेपाली राजनीति की दिशा भी वे तय कर सकते हैं।
म्ााओवाद और मधेशवाद कभी एक दूसरे का प्रबल विरोधी माना जा रहा था। लेकिन समय के साथ-साथ सोच में भी परिवर्त्तन आया है और दोनों ही शक्तियाँ आज के सर्न्दर्भ में एक-दूसरे को समझने का प्रयास करने लगी है, इसलिए दोनों ही तरफ थोडÞा सा लचीलापन भी आया है। मौजूदा सरकार में गम्भीर जिम्मेवारियाँ मधेशी दलों को दी गई है और एक तरह से नेपाली राजनीति में मधेशवादी शक्तियों की महत्ता को स्वीकार की गई है और उन पर विश्वास भी किया गया है। मौजूदा सरकार के मंत्रीमंडल के सदस्यों और उनके विभागों को देखते हुए एक बात तो निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि केन्द्रीय राजनीति में मधेशवादी दलों ने अपनी सश्ाक्त उपस्थिति दर्ज करायी है और यह उनके संगठित अभ्यास का ही परिणाम है। इस राजनैतिक अभ्यास से यह संदेश भी सहज रूप में जाता है कि मधेश के मुद्दों के साथ न्याय करते हुए अगर वे संगठित रहते हैं तो उनके हितों की उपेक्षा किसी भी राजनैतिक दल के लिए सहज नहीं।
माओवादी और मधेशवादी विचारधाराओं में जब हम गहराते सम्बन्ध की बात करते हैं तो इनके बीच असहज रिश्तों की जमीन भी हमें पहचाननी चाहिए। यह सच है कि जब राष्ट्र माओवादी द्वन्द्व से प्रभावित था तो मधेश भी इससे पीडिÞत और प्रभावित हुआ, इस काल में जाने-अनजाने आमलोगों पर ज्यादितियाँ हर्ुइं जिनके कारण उनमें में आक्रोश बढÞता गया। पहले तर्राई-आन्दोलन से ही सोया हुआ मधेशी स्वाभिमान जगने लगा था, लेकिन इस बात से बेखबर माओवादी नेतृत्व राजधानी में इस आन्दोलन का अवमूल्यन करते रहे और एक तरह से मधेश में सुलग रहे असंतोष की आग को हवा देते रहे। इसलिए उनके विरुद्ध तर्राई में आक्रोश फूटा। इस बात को स्वीकार करते हुए भी कि मधेश के मुद्दों को राष्ट्रीय फलक पर उतारना माओवादियों के कारण ही संभव हो सका, मधेश और माओवादी आमने-सामने आ गए। लेकिन समय बदलता है, हालात बदलते हैं। बदली हर्ुइ हालात में दोनों ही शक्तियाँ एक दूसरे के साथ है, यह भावी राजनीति के लिए एक अलग संकेत है।
संविधानसभा के निर्वाचन के बाद दो नई शक्तियाँ नेपाली राजनीति के रंगमंच पर अवतरित हर्ुइ। शेष तो परंपरावादी थे। बदले हुए सन्दर्भों में नई चेतना के संवाहक इन्हें ही माना जा सकता है। शेष तो पुरानी स्वाद में इतना पगे हुए हैं कि या तो वे नएपन के खतरे को नहीं उठाना चाहते या पुराने का मोह नहीं छोडÞना चाहते। यही कारण है कि मधेश-आन्दोलन और मधेशियों के व्यापक संर्घष्ा शहादत के बावजूद मधेश के सर्न्दर्भ में उनकी नीतियाँ स्पष्ट नहीं हो पायी है और जो थोडÞा बहुत वैचारिक परिवर्त्तन उनमें आया है वह भी दबाब के कारण, न कि न्यायसंगत संवेदना या नवीन राजनैतिक चेतना के कारण। नए और पुराने, दोनों की जय मानने वाले इन पारम्परिक दलों को गुमाने के लिए भी बहुत कुछ नहीं। यही कारण है कि मधेश के मुद्दे पर बदली हर्ुइ हालात में भी वे दाता की हैसियत से बात करते हैं और इसके प्रति सम्यक् गंभीरता का अभाव देखा जा रहा है। यही कारण है कि इस नवीन गठबंधन को वे राष्ट्रघाती और राष्ट्रद्रोही तक की संज्ञा देने से नहीं चूकते।
यह सच है कि इस बार सरकार के मुद्दे पर एकीकृत नेकपा माओवादी ने नेपाल के दो पारम्परिक राजनैतिक शक्तियों को एक तरह से अँगूठा दिखला दिया लेकिन उतना ही सच यह भी है कि बिना इनके सहयोग और विश्वास प्राप्त किए संविधान की साधना नहीं की जा सकती है और ये दल संसद में माओवादियों के किसी भी मनसूबे पर पानी फेरने में सक्षम हंै। वैसे भी नेपाली राजनीति में विपक्ष की रचनात्मक भूमिका का र्सवथा अभाव देखा जा रहा है और इस दोष से माओवादी भी मुक्त नहीं। अगर इसके प्रति यहाँ के राजनैतिक दल संवेदनशील होते तो लगभग ढÞाइ वर्षों की संविधान-सभा की यात्रा में देश को नवसंविधान के लिए तडÞपना नहीं पडÞता। इसलिए वर्त्तमान विपक्ष से बहुत अधिक रचनात्मकता की अपेक्षा नहीं की जा सकती है। इन्हें विश्वास में लेना मौजूदा सरकार के लिए तलवार की धार पर चलने के बराबर है और नवसंविधान की लक्ष्य-प्राप्ति भी लगभग उतना ही कठिन है।
नेकपा माओवादी नेतृत्व की मौजूदा सरकार की यह एक उल्लेखनीय विशेषता मानी जा सकती है कि एक तरह से उन्होंने पूरे मधेशवादी राजनैतिक दलों को अपने छाते की व्यापकता में समावेश कर लिया है, लेकिन ऊपर से एक सूत्र में बँधे हुए ये दल अनेक मन और अनेक मस्तिष्क की स्थिति में हैं। सरकार में इस सामूहिक सहभागिता में मुद्दों के साथ-साथ इन विभिन्न्ा मधेशवादी दलों और उनके व्यक्तिगत और सामूहिक स्वार्थ भी हैं तथा महत्वाकाँक्षाएँ भी। इसलिए इन्हें समेटकर रखना माओवादी नेतृत्व की चुनौती भी है। लेकिन इन दलों के साथ भी मजबूरी यह है कि अब तक के राजनैतिक अभ्यास में ये आमलोगों की अपेक्षाओं पर खडÞे नहीं उतर पाए हैं। इसलिए इनकी माँगों का कमोवेश संबोधन सरकार और संसद द्वारा आवश्यक है, अन्यथा समय-क्रम में इन्हें अपना मार्ग तलाशना ही होगा।
एक बात तो निश्चित है कि विगत संविधानसभा चुनाव की ये महत्वपर्ूण्ा राजनैतिक शक्तियाँ हैं और नया संविधान इन दोनों शक्तियों की स्थापना के लिए र्सवाधिक आवश्यक है। संयोग से ये दोनों आज एक जमीन पर हैं और एक महत उद्देश्य भी उनके सामने है जिसे पाकर राष्ट्र को अग्रगामी दिशा भी वे दे सकते हैं। इसलिए इसे संगठित रहना आवश्यक है। इस संगठन को दर्ीघजीवी बनाने के लिए दोनों ही दलों में वैचारिक और नीतिगत लचीलापन के साथ-साथ बडÞे दल को छोटे के अवमूल्यन की प्रवृत्ति से बचना चाहिए जो कभी-कभार इसके नेतृत्व वर्ग में देखा जाता है और न केवल मधेशवादी नेतृत्व वरन् मधेश के आम लोगों के मनोविज्ञान को भी समझना चाहिए। मार्क्सवाद या लेनिनवाद की सैद्धान्तिक व्याख्या और इस आधार पर राज्य-संचालन का सपना छोडÞ सामाजिक न्याय और समरस समाज की स्थथापना की ओर समगति से कदम बढÞाना चाहिए। अगर यह गठबंधन बरकरार रहा और अग्रगामी दिशा में इसके कदम बढÞते रहे तो भविष्य में इन्हें हतोत्साहित करनेवाली शक्तियाँ हाशिए पर नजर आ सकतीं हैं। िि
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