सिनेमा की शक्ति : राजेश झा
अदब के नाम पर महफ़िल में चर्बी बेचने वालों-
अभी वो लोग ज़िंदा हैं, जो घी पहचान लेते हैं !
इसे अवश्य पढ़े देखिये हैवानियत
राजेश झा, पुणे । हाल में प्रदर्शित फिल्म “दी कश्मीर फ़ाइल ” ने आवारगी का पर्याय बना दिए गए सिनेमा की वास्तविक शक्ति की अनुभूति करा दी है।अनेक संस्थाएं इसको ऑक्सीजन की तरह एक आवश्यक फिल्म मानकर समाज के आर्थिक रूप से निर्बल लोगों को दिखाने लगी हैं। बड़ी कठिनाई से जिस फिल्म को प्रदर्शित करने के लिए५०० स्क्रीन मिल सके थे वह मात्र पांच दिनों के अंदर ५००० स्क्रीन्स में दिखाई जा रही है जो देश में उपलब्ध कुल स्क्रीन संख्या का लगभग ४० % है।प्रतिरोधी गुट के व्यवधानों के विरुद्ध अनेक छोटे फिल्मकार एकजुट हो रहे हैं ,अनेक फिल्मकारों ने अपनी फिल्मों की स्क्रीनिंग रोककर “दी कश्मीर फाइल्स ” को दर्शकों के लिए उपलब्ध करा दिया है। गुजराती फिल्म ‘प्रेम प्रकरण’ के निर्माता ने अपनी फिल्म हटाकर ‘दी कश्मीर फाइल्स ‘ लगवा दी है और वह भी अपने चुकाए पैसे बिना वापस लिए।

बात यहीं तक नहीं रुकी है. देश से जो अन्याय पूर्ववर्ती सरकारों ने छिपाई थी उससे परिचित होने के लिए साधू समाज भी सिनेमागृहों में इस फिल्म को सामूहिक रूप से देखने जा रहा है । बदले वातावरण को इस बात से भी समझा सकता है कि अतरंगी फिल्मकार रामगोपाल वर्मा ने ट्वीट किया है कि ‘बॉलीवुड के मुकाबले विवेकवुड ‘ अस्तित्व में आ गया है और उसकी धमक से आनेवाले दिनों में देश में बनानेवाली फिल्मों के नैरेटिव्ज़ भी प्रभावित होंगे।एडोल्फ हिटलर ने विश्व में सिनेमा को नैरेटिव स्थापित करने के माध्यम के रूप में सबसे पहले पहचाना और सबसे पहले उपयोग में लाया था। बाद के दिनों में हिटलर की निंदा करते वामपंथियों ने सिनेमा की शक्ति का दुरूपयोग अपने नैरेटिव्ज़ स्थापित करते हुए आम जनता में हीनता का भाव भरने में किया।’दी कश्मीर फाइल्स ‘ उसके प्रतिद्वंद्वी राह को प्रशस्त करती फिल्म है।
देश के चुनिंदा पत्रकारों में एक सुनील मेहरोत्रा लिखते हैं कि – फिल्में देखने का शौक पुराना है। अक्सर फिल्मों को देखने के दौरान हंसा भी, रोया भी, तालियां भी बजाईं, लेकिन आज फिल्म ‘ कश्मीर फाइल्स’ देखने के बाद काफी देर तक दिमाग जैसे सन्न सा रह गया । फिल्म 170 मिनट की है। इससे पहले किसी फिल्म के दौरान सिनेमाघर में इतनी खामोशी शायद ही कभी देखी हो। इंटरवल हुआ, तो भी ज्यादातर लोग फ्रेश होने या खाने पीने के लिए अपनी सीट से नहीं उठे। फिल्म खत्म गई, तो भी वैसा ही सन्नाटा था। ईमानदारी से कहूं, इस फिल्म को देखने के दौरान , एक डर जैसा भी लगा — खासतौर पर आखिरी सीन में, जब एक – एक कर 24 लोगों को गोलियां मारी जा रही थीं। फिल्म में कितना फैक्ट्स है, कितना झूठ, मुझे पता नहीं। मैं कश्मीर विषय का एक्सपर्ट नहीं हूं । एक निर्देशक के तौर पर विवेक अग्निहोत्री की कामयाबी यही है कि वह पहले मिनट से आखिरी मिनट तक दर्शकों को बांधे रखते हैं । सारांश के अनुपम खेर को सब लोग जानते हैं, कश्मीर फाइल्स में अनुपम खेर की एक्टिंग सारांश से भी बहुत आगे की है। अनुपम खेर ने टाइम्स नाउ को दिए इंटरव्यू में सही कहा कि यह बहुत सीरियस फिल्म है, इसलिए वह कपिल शर्मा के शो में नहीं गए, क्योंकि वह एक फनी शो है। फिल्म के सारे किरदार, लगा ही नहीं, वह एक्टिंग कर रहे हैं। बार बार लग रहा था कि सभी रीयल किरदार हैं, उनके रीयल सीन हैं। आप किसी भी विचारधारा के हों, ऐसी फिल्में देखनी चाहिए, बाकी तो बाद में अपनी अपनी राय बनाने की सबको आजादी है। वसई में, जब इस फिल्म का पहला शो सुबह 9 बजे ओपन हो रहा है और भीड़ भी हो रही है, तो समझ सकते हैं कि यह फिल्म कितनी हिट जा रही है। मैं सुबह साढ़े 10 का शो गया और 170 मिनट बाद जब सिनेमाघर से बाहर निकला और घर पर वापस जाने के लिए ऑटो में बैठा तो बार बार याद करने की कोशिश करने लगा कि क्या इससे पहले कोई फिल्म देश में इतनी राजनीतिक बहस का हिस्सा कभी बनी थी?
कश्मीर फाइल्स के विरुद्ध वामपंथियों और पलायनवादी फिल्मकारों का एक समूह खुलकर सामने आ गया है और संतोष की बात यह है कि उनके कुतर्कों को युवजन ही आइना दिखा रहे हैं। इसके लिए वे गूगल का सहारा भी ले रहे हैं। जब एक वामपंथी ने भाजपा को कश्मीर में हुए नरसंहार का दोषी ठहराने की कोशिश की तो सोशल मीडिया पर सूचनाओं की बरसात हो गयी। उन्होने तिथिवार और तथ्यवार हमले शरू कर दिए और इस हमले में कांग्रेस के विरुद्ध आक्रोश इतना तीव्र था कि संसद में सोनिया गांधी ने फेसबुक पर प्रतिबन्ध लगाने की मांग कर डाली और कहा कि फेसबुक से देश को खतरा है।
सोशल मीडिया कश्मीर से सम्बंधित खबरों से पट गया है। सितंबर,१९८९ को श्रीनगर में सुबह साढ़े नौ बजे श्री टीकालाल टपलू की उनके घर पर हत्या की गई, नवंबर,१९ ८९ को श्रीनगर के महाराज बाजार में आतंकवादी मकबूल बट्ट को फांसी की सजा देने वाले न्यायमूर्ति नीलकंठ को छह आतंकियों ने घेर कर मार डाला और वहां उनकी लाश को घेर कर अट्टहास करते हुए पाशविक नृत्य किया, उसके बाद एक के बाद महत्वपूर्ण कश्मीरी हिंदू लोगों यथा नीलकंठ गंजू, प्रेमनाथ भट्ट, के एक गंजू, लसा कौल, गिरिजा टिक्कू, सरला भट्ट समेत (सरकारी रिपोर्ट में) नहीं बल्कि हजारों हिंदू मार दिए गए, बलत्कृत हुए और वहां की सरकार और राज्य की राज्यपाल हाथ पर हाथ धरे बैठी रह गई – ये सारे विषय और उनसे जुड़े प्रश्न युवजनों ने थोक के भाव में पूछने शुरू कर दिए।
समाजसेवी सुरेंद्र कुलकर्णी लिखते हैं – आजतक जो नही हुआ वो आज हो गया..फिल्मों को रेटिंग देनेवाले IMDb इस जागतिक स्तर के online rating plateform पर “द काश्मीर फाइल्स” फिल्म को १० मे १० रेटिंग मिली है. IMDb के इतिहास मे ऐसा पहली बार हुआ जब किसी फिल्म को विश्व स्तर पर १० मे १० रेटिंग मिली है. Titanic, Avtaar आदि विश्वप्रसिद्ध हाॅलीवुड फिल्मों को भी इतनी जबरदस्त रेटिंग नही मिली थी। ११ मार्च को “द काश्मीर फाइल्स” फिल्म को पुरे भारत मे सिर्फ ५०० थिएटर उपलब्ध हुये थे लेकिन इस फिल्म को दर्शको का इतना जबरदस्त प्रतिसाद मिला की आज १२ तारीख को इस फिल्म के लिए १००० थिएटर उपलब्ध हो गये है।
हैदराबाद से रविशंकर सिंह लिखते हैं -‘आज मैंने हैदराबाद के हाल में ‘ द कश्मीर फाइल्स ‘ फिल्म देखी। मैंने गौर किया कि दर्शकों में अधिकांश लोग बुजुर्ग थे, जो अपने हाथ में वाकिंग स्टीक लेकर आए थे। युवा पीढ़ी की संख्या कम थी। उधर बाबा इजरायली ने सूचित किया है कि गोंडा, उत्तर प्रदेश के व्यापारी पंडित केदारनाथ पांडे ने शहर के सभी सिनेमाघरों के सभी शो के टिकट खरीद कर जनता के लिए एंट्री फ्री कर दी है। आपका जब भी मन हो, अपना पहचान पत्र लेकर सीधे सिनेमा घर चले जाइये। यदि सीट खाली है तो आपको तुरंत एंट्री मिल जाएगी। उन्होने चुनौती देते हुए लिखा है -:
अदब के नाम पर महफ़िल में चर्बी बेचने वालों-
अभी वो लोग ज़िंदा हैं, जो घी पहचान लेते हैं !
हिंदी में राजनीतिक पत्रकारिता के शिखरपुरुष दयानन्द पांडेय कहते हैं -‘ कश्मीर फाइल्स ने बड़े-बड़ों की पैंट ढीली और गीली कर दी है। मई , २०१४ में सेक्यूलरिस्टों की टोपी उतरी थी। २०१९ ने कमीज़ उतारी। अभी २०२४ आने में समय है। अचानक कश्मीर फाइल्स ने सब की पैंट ढीली और गीली कर दी है। सिर्फ़ चार दिन में। क्या कांग्रेस , क्या ओवैसी , क्या बसपा। सारे जेहादियों को लगता है कि कश्मीर फाइल्स माहौल ख़राब कर रही है। आज संसद में बैठे जेहादियों ने यह कश्मीर फाइल्स का मामला उठाया। ओवैसी और दानिश ने भी। जब नरसंहार कर रहे थे कश्मीरी पंडितों का तब माहौल कैसा था ? अंजुम रहबर का एक शेर याद आता है :”आईने पर इल्ज़ाम लगाना फ़िज़ूल है ,सच मान लीजिए, चेहरे पर धूल है” फिकर नॉट , बेटा लोगों , अभी पैंट भी उतरेगी। जल्दी उतरेगी। अभी सारी फाइल्स आने तो दीजिए। हिसाब-किताब होने तो दीजिए।
प्रसिद्द गांधीवादी और गाँधी मार्ग के पूर्व सम्पादक राजीव वोरा लिखते हैं -“एक मित्र ने कश्मीर फाइल पर संक्षिप्त टिप्पणी मांगी , जब कि विस्तार से इस पर कहने की जरूरत है, चाहे फिल्म नहीं देखी है,; कश्मीर काफी करीबी से देखा है, हर तबके को ।
संक्षिप्त टिप्पणी यह है:
अनेकांतवाद का दृष्टांत बिलकुल सही बैठता है : पूरा हाथी कोई नही देख सकता , लेकिन हाथी का एक अंग तो यह फाइल है ही। उसे जो नकारते है उन्हे कश्मीर का क भी पता नही ।इसे ही जो हाथी बताते है वे भी गलत है । फिर भी तुलसीदास जी का वह कथन याद करने लायक है :” ए जग में दारुण दुख नाना, सबतें कठिन जाति अपमाना!” जिनके ऊपर बीती है , और किस किस पर जम्मू कश्मीर में नही बीती! माताओं , हिंदू और मुस्लिम भी, के सामने उनके बेटों को सताया गया है, मार दिया गया है …अफ़गानियों ने और उनके सहयोगियों ने जो किया है उसके लिए केवल एक शब्द है: हैवानियत । उसके शिकार कश्मीरी मुस्लिम भी हुए है।
नाप तौल करेंगे क्या ? बताओ कौनसा तराजू है आपके पास??!! ऐसा तराजू बना ही नही , न बन सकता , जब तक ईश्वर हमारे भीतर बैठा है। जो इसे नही मानते वे ही तराजू ले कर बैठ जाते है ।
बस, दर्द का समाधान तलाशा जाय, उस का व्यापार न हो।
जो समाज इतना दर्द दे सकता है, सहन कर सकता है वह उसका समाधान भी खोज सकता है । जो इस दर्द पर चुप रहे है वे ही समाधान में बाधक बनते है ।
कश्मीर मेरी आंखों में आसूं ला देता है। दोनो आंखों में !
और आँखों में आंसू आना स्वभाविक है क्योंकि कश्मीर वह स्थान बना दिया गया था जहाँ हिंदूओं को अखबारों में विज्ञापन देकर कहा जाता था ‘अपने घर की महिलाएँ छोड़कर चले जाओ ‘ कि ‘ यहाँ पाकिस्तान का शासन है’। वहाँ दाहसंस्कार के लिए भी मौलवियों की पूर्वानुमति लेनी होती थी, अनेक स्थानों के नाम बदल दिये गए थे जैसे अनंतनाग को इस्लामाबाद कहा और लिखा जाता था।
