वामपंथी चक्रव्यूह में हम ! : अजय कुमार झा
अजयकुमार झा, हिमालिनी, अंक अगस्त । माक्र्स जब पैदा हुआ तब भौतिकवाद की आंधी चल रही थी । चारों तरफ डारविन और न्यूटन के वैज्ञानिक खोज के कारण सब तरफ भौतिकवादी जीतता हुआ मालूम रहा था और अध्यात्मवादी हारता हुआ दिखाई दे रहा था । बस, माकर््स ने भौतिकवाद को पकड़कर अपना समाजवादी विचार संप्रेषित कर दिया । वैसे खुद माकर््स दीनता भरी जिंदगी जिए । वो गरीबी की दलदल से अपने जीवन में नहीं निकल पाए । इसलिए उन्होंने संपत्ति किसी भी व्यक्ति के व्यक्तिगत न होकर सरकार के अधीन रहे और बाकी सब के सब सरकार के लिए सरकार के निर्देशन में कड़ा परिश्रम करे यह सिद्धान्त दिया । राष्ट्र मजबूत हो । समाज का मूल्य हो, व्यक्ति का नहीं । उन्होंने विज्ञान के भौतिक खोजों में सुख और खुशियां देखी, जीवन में सफलता देखा । परंतु जीवन और जगत इतना भी क्षुद्र नही है । आज भौतिकता धारासायी होते दिख रही है । स्थूल समाजवादी सिद्धांत विश्व मंच पर खुद अपनी कब्र में दफन होता जा रहा है । रूस, चीन और कोरिया की अवस्था अब किसी से छुपी नहीं है । लेकिन समाजवादी आज भी भौतिकवाद को पकड़े हुए बैठा है । असल में सब वादी अतीत से जकड़ जाते है । कोई वादी गीता से जकड़ जाता है, कोई कुरान से, कोई बाइबिल से, कोई माक्र्स से जकड़ जाता है । असल में वादी जो है वह इतिहास को पकड़ कर बैठ जाता है । उसे जीवन के गतिशीलता का बोध ही नही होता है । अतः आज मनुष्य जीवन जगत के सूक्ष्मातिसूक्ष्म विषयों पर चिंतन कर रहा है । जीवन और मृत्यु बीच का रहस्योद्घाटन कर रहा है । आत्मानुभूति के संग परमानंदित होने के पथ पर आरूढ़ हो रहा है । यही कारण है कि समाजवाद का पहला आधार भैतिकता की जड़े उखड़ गई है । आज समाजवाद आउट आफ डेट हो गया है ।

पदार्थवाद गलत सिद्ध हो जाने के कारण आज के राजनैतिक जगत में कुछ खालीपन महसूस होने लगा है । और ध्यान रहे, मनुष्य की चेतना बहुत दिनों तक शून्य को बर्दाश्त नहीं कर सकती । पिछले पचास वर्षों में वैज्ञानिकों का बड़ा वर्ग धीरे–धीरे अध्यात्म के रहस्यों को समझने के लिए मजबूर हो गया है । एडिंगटन ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि जितना ही मैं सोचता हूं उतना ही मुझे ऐसा मालूम पड़ता है कि जगत कम और विचार ज्यादा है । इसी तरह जिम्स जीन ने मरने के पहले एक वक्तव्य दिया कि, “ जितना मैने सोचा, मैने पाया कि रहस्य बड़ा होता जा रहा है । आइंस्टीन ने अपनी जीवन भर के निष्कर्षों के बाद कहा कि, मेरा मन धार्मिक होता जा रहा है ।” माइकल न्यूटन ने तो अनंत लोकों और आत्मा के जगत को भी प्रयोगशाला में प्रमाणित कर पूरे पाश्चात्य संस्कृति और सिद्धांतों के जड़ों को ही हिला के रख दिया है ।



ज्ञातव्य हो ! एक विश्व प्रसिद्ध वैज्ञानिक रहस्य की बात कर रहा है ! जबकि संत रहस्यवादी होते हैं । वैज्ञानिक तो रहस्य को उजागर करने की बात करते हैं । परंतु आज वो खुद रहस्यवादी होते जा रहे हैं । अतः पदार्थवाद का जमीन खिसक गया है । इसलिए पदार्थवादी सिद्धांत को पकड़े रहना आनंद का नहीं सामूहिक आत्मघात का कारक बनेगा । इसपर गहन अध्ययन और समीक्षात्मक व्याख्यान की आवश्यकता है । समय गतिशील होने के कारण हर वस्तु, विचार, घटना और परिणाम में परिवर्तन का होना स्वाभाविक है । मानवीय अस्तित्व को संरक्षित और संपोषित करने के लिए परम अस्तित्व के इस सुक्ष्म स्वभाव को समझना ही होगा ।
दूसरा विचार था ऐतिहासिक भाग्यवाद; अर्थात् सामाजिक ढांचा के आधार पर ही भविष्य के स्वरूप का निर्माण । व्यक्ति नहीं, समाज तय करेगा की आगे का समाज कैसा हो । परंतु समाज को खोजने पर व्यक्ति मिलते हैं न कि समाज । सत्ता पर व्यक्ति बैठता है । न्याय व्यक्ति करता है । हर कदम पर व्यक्ति मिलते हैं; जो निर्णायक भूमिका निर्वाह कर रहे होते हैं । इसलिए तथ्यांक में जो दिखे व्यवहार में बहुत फरक पड़ता है । एक अरब भारतीय हिंदू को ३० करोड़ अन्य धर्मी परेशान कर रहे हैं । अल्प संख्यक बहु संख्यक पर भारी पड़ रहा है । एक मोदी, राहुल, केजरीवाल, मायावती, लालू, अखिलेश, नीतीश अरबों लोगों को प्रभावित कर रहा है । इधर नेपाल में मुट्ठीभर २० – तीस लाख बाहुन, क्षेत्री दो करोड़ नेपाली जनता को वर्षो से रौंदते आ रहा है । उधर विश्व राजनीतिक पटल पर किम जोंग, सी जिंग पिंग, आदि प्रत्यक्ष उदाहरण है । यह प्रमाणित करता है कि राजनैतिक प्रणाली का नाम कुछ भी हो, शासन व्यवस्था चाहे जिस सिद्धांत पर आधारित हो; यदि शासक समूह में दुर्योधन और शकुनी प्रवृति हावी है तो जनता को भीषण रक्तपात और पीड़ा से गुजरना पड़ सकता है । आधिकारिक व्यक्तियों के भीतर मानवता और राष्ट्रीयता दोनो का संतुलित भाव होना जरूरी है । सत्ता मद तथा मैं और मेरे के अहंकार में एक गांधी जैसा प्रभावकारी व्यक्ति लाखों के लिए प्राणघातक प्रयोग कर सकते हैं । अतः पूर्णतः निश्चित कुछ भी नही होता । समयानुसार परिवर्तन स्वाभाविक है ।
निश्चितता की गारंटी देनेवाला विज्ञान अब खुद ही अनिश्चितता का सिद्धांत प्रतिपादित करने को मजबूर हो गया । मतलब भौतिकवादी समाजवादी सिद्धांत स्वयं ही ढह गया । जो संघर्ष दिखाई दे रहा है वह सिर्फ अवशेष के लिए है । जिस प्रकार कुत्तों को हड्डियों में मजा आता है ।
गौर से देखा जाए तो कम्युनिष्ट बुद्धिजीवियों के प्रायोजित समाजवाद समाज में समता लाने की जो बात करता है उसके पीछे फ्रांसीसी क्रांति की तरह भीषण संहार छुपा हुआ है । इसके लिए वह लोगों में ईर्ष्या और द्वेष पैदा कर समाज में अराजकता पैदा करना चाहता है । गरीब को अमीर बनने का दृष्टिकोण न देकर अमीर को गरीब बनाना ही उसके दर्शन का आधार है । ध्यान रहे ! समाजवाद सभी को एक जैसा अमीर नहीं बना सकता परंतु गरीब बना सकता है । पूरे देश को एक सा अमीर बनाने के लिए सैकड़ों वर्षों का अटूट परिश्रम चाहिए । लेकिन गरीबी के लिए एक दिन का नरसंहार, आगजनी, तोड़फोड़ ही काफी है । सृजन में समय लगता है विध्वंस तो अभी का अभी संभव है । अतः अमीर को गरीब बना देना बुद्धिमानी नहीं वल्कि हीनता बोध का प्रमाण है । सृजनात्मकता और वैज्ञानिक सोच के दम पर गरीबी को अमीरी में बदलना ही उत्तम प्रणाली और संस्कार माना जाएगा ।
वैसे नोआखली फाइल, काश्मीर फाइल, पटना फाइल, बंगाल फाइल, केरल फाइल, अफगानिस्तान फाइल, और इजराइल फाइल के साथ तक्षशिला विश्वविद्यालय, विक्रमशिला विश्वविद्यालय, नालंदा विश्वविद्यालय फाइल, अयोध्या, मिजोरम, जयपुर, नागपुर, मेघालय, नागालैंड, अमरावती, मणिपुर और आज के हरियाणा फाइल, डायरेक्ट एक्सन डे और भारत पाक बटवारा फाइल के साथ साथ जलता फ्रांस, कांपता यूरोप तथा थरकता अमरीका फाइल को गंभीरता से अध्ययन और मनन करके देखिए कि कैसे पल भर में अमीर को गरीब, राजा को रंक, विद्वान को लेबर, वैष्णव को मांसाहारी, जीवंत को मृत, हिंदू को गैर हिन्दू और मानव को दानव में तब्दील कर दिया जाता है ? यही है तथाकथित समाजवादी साम्यवादी का असली चेहरा; जिसे पहचानने में बड़े बड़े विद्वान और समाज सुधारकों ने आत्मघाती भूल की है । और वह संस्कार आज भी सेकुलर राजनीतिक सिद्धांत के रूप में हमारे बीच यथावत है ।
ध्यान रहे ! समाजवाद में संपत्ति और शक्ति राज्य के हाथों में केंद्रीकृत हो जाएगा । अभी साधारण जनों के हाथ में बंटा हुआ विकेंद्रित पूंजी और राजनीतिक शक्ति का इतना दुरुपयोग हो रहा है तो राज्य के हाथ में केंद्रीकृत होते ही कैसा भयानक स्थित पैदा करेगा इसका हिसाब ऊपर उल्लेखित फाइलों के अध्ययन भी लगाना मुश्किल होगा । वास्तव में यह बीमारी को दूर करने की जगह बीमारी को अत्यधिक सघन करना है । जिससे मुक्ति प्रायः असंभव होगा । इसलिए समाजवाद का दूसरा अर्थ है, गुलामी और दासता की आधुनिक व्यवस्था । राज्य मालिक हो और आम नागरिक गुलामी तथा दास की हैसियत से जियें । पूंजीवाद में जो व्यक्तिगत जीवन का मूल्य और हैसियत तथा अस्तित्व था उसका पूर्णतः खात्मा समाजवाद में कर दिया जाएगा । यह नव सामंतवादी अवधारणा है । बस, इतना ही फर्क होगा कि जहां राजा थे वहां अब राजनीतिज्ञ बैठ गए हैं । राजाओं के हाथ में इतनी ताकत कभी न थी जितनी आज समाजवादी व्यवस्था में राजनीतिज्ञ को चीन, रूस और कोरिया में प्राप्त है ।
समाजवाद भविष्य के लिए भयंकर गुलामी का सूत्रपात है । और अगर स्वतंत्रता प्रेमियों को थोड़ी–सी भी स्वतंत्रता की आकांक्षा हो तो समाजवाद से बहुत ही सचेत होने की जरूरत है । समाजवाद का अर्थ है कि राज्य के हाथ में देश की समस्त शक्तियां केंद्रित कर दिया जाए । राज्य के हाथ में जितनी भी शक्तियां है उनका भी राज्य बुरी तरह दुरुपयोग करता है । वर्तमान के राजनीति में त्यागी, ईमानदार और देशभक्त नेताओं का टिकना असंभव हो गया है । पतिततम संस्कार के लोग ही इस चांडाल चौकड़ी में पैर जमाए हुए मिलेंगे । आज के राजनीति समाज के निकृष्टम सोच के लोगों का अखाड़ा बन गया है । जो अपनी चरित्र, संस्कार, वंश, परिवार, संस्कृति, धर्म और देश के अस्तित्व को, प्रतिष्ठा को, गौरव को, गरिमा और महिमा को, इतिहास और भूगोल को हंसते हंसते बेच दे वही चरित्र आज की राजनीति में सफल दिखाई दे रहे हैं । वैसे वर्तमान समय में भी आशा के किरण के रूप में पांच–दस प्रतिशत समझदार और अच्छे लोग दिखाई देते हैं । जो सामरिक रूप से खुद ही दयनीय स्थिति में हैं । ऐसी हालत में आम नागरिक के हित और विकास के लिए क्या उपाय रह जाता है? लोग अपनी समस्या को लेकर कहां जाए और क्यों जाए ? जो खुद मानवता और देश के लिए समस्या है उससे समाधान की सोच रखना क्या मूर्खता नहीं होगी ?
राजनीतिक संगठन, पार्टी और नेतृत्वों के द्वारा धीरे–धीरे आम जनता के लिए भौतिक और आर्थिक समस्याओं का जाल बिछाया जाएगा और इक्का दुक्का समाधान देते हुए दिन प्रति दिन जनता को कमजोर करने का प्रयास भी किया जाएगा । जिससे जनता नेताओं के चरणों में, नेतागण पार्टी प्रमुख के चरणों में, पार्टी प्रमुख सरकार के चरणों और सरकार विदेशी आकाओं के चरणों में शरणागत होकर मौज मस्ती करेंगे । इस संभावित महागुलामी को समझने के लिए नेपाली आम नागरिक को लोहे की चना चबाना होगा । जो कि संभवतः असंभव है ।
उपरोक्त संभावित दुर्घटनाओं से सुरक्षित रहने का उपाय यदि आप इन नेताओं से अपेक्षा कर रहे हैं तो आप भयंकर भूल कर रहें हैं । हमें पता होना चाहिए कि इन समस्याओं से मुक्ति के लिए सर्वप्रथम भ्रष्टाचार, कालाधन, धर्मांतरण, जनसंख्या नियंत्रण, घूसखोर और घुसपैठिए को नियंत्रित करने के लिए संविधान में वृहद संशोधन की आवश्यकता होगी । एक ही शिक्षा प्रणाली, पाठ्यक्रम, टैक्स, बैंक एकाउंट, न्यायिक कोड, प्रशासनिक कोड, संचार एकाउंट लागायत सुरक्षा से संबंधित प्रत्येक आवश्यक पहलुओं पर गंभीरता से विचार कर कड़ा कानूनी प्रावधान व्यवस्थित करना होगा । भाईचारा, विश्वबंधुत्व, वशुधैव कुटुंबकम, सर्वधर्म समभाव और नारी तू नारायणी के मूल आधार पर ही शिक्षा के लिए एक ही पाठ्यक्रम तैयार किया जाए और उसे पूरे देश में गुरुकुल अथवा मदरसा, सरकारी अथवा कांभेंट सभी विद्यालयों में पढ़ाने के लिए मजबूर किया जाए । जबतक युवाओं को देशप्रेम, मानव कल्याण तथा प्रकृति प्रेम के शिक्षा से संस्कारित नहीं किया जाएगा तबतक किसी भी देश और समाज में शांति, स्थिरता और समृद्धि संभव नहीं है । अतः इसके लिए भले ही सरकार आवश्यक है; लेकिन आम नागरिक को चाहिए कि अपनी संस्कृति, सुरक्षा और राष्ट्रीयता के पक्ष में खड़ा रहने के लिए सरकार को कड़ा निर्देशन दे । साथ ही सामाजिक सद्भाव को लेकर सदैव सक्रिय रहें ।
अभी सरकार के हाथों में संपत्ति के उत्पादन का कोई मजबूत उपाय नहीं मिला है । विज्ञान बहुत जल्द वह भी उसके हाथों में सौंप देगा । फिर आम नागरिक और किसान के लिए कोई स्थान नहीं रह जाएगा । उसके हाथों से खेती लगायत अन्य छोटे छोटे उत्पादन के श्रोतों को भी छीन लिया जाएगा । सरकार के सहयोग बड़े बड़े उद्योगपति इन क्षेत्रों पर अपना अधिकार जमा लेगा । ये लोग भूमि खण्ड को हथियाने का प्रयास करेंगे । अत्याधुनिक सुविधाओं, औजारों, मशीनों और तकनीकों के सहायता से वे लोग हम आपसे अधिक उत्पादन करेंगे और हमारी सरकार उसे अनंत सम्मान, पुरस्कार और सुविधाएं उपलब्ध कराएगी । दोनो के मिलीभगत से आपको अपने ही खेतों में नौकर की भांति काम करने पर मजबूर किया जाएगा । फिर आप खून की आंसू रोएंगे । खुद को कोशेंगे । अपनी भाग्य पर पश्चाताप करेंगे । धीरे धीरे आत्मग्लानि में डूबकर जीवन से विदा लेना ही श्रेयष्कर मार्ग चुनेंगे । अपनी मूर्खता के कारण अपनी पीढि़यों को गुलामी के भीषण दलदल में घुट–घुट कर मरने के लिए छोड़ जाएंगे । फिर भाग्यवाद का नया सिद्धांत गढ़ेंगे । खुदको निर्दोष साबित करेंगे । “प्रभु की यही लीला है” इस आत्मरति में जीवन को घसीटते रहेंगे ।
नोटः दशकों बाद एक कथा सुनाया जाएगा, कि “समाजवाद नामक एक ऐसा मायावी राक्षस था जिसके माया जाल में सिर्फ हम ही नहीं पूरा विश्व फस गया ।” मानव त्राहि–त्राहि करने लगे ! चारो ओर हाहाकार, दुख, पीड़ा, आतंक का बोलबाला हो गया । लेकिन तारणहार नहीं आए !
