गरीबों की मदद का उत्सव है बकरीद
वैसे तो खुद से कमजोर की आर्थिक मदद करने के लिए किसी शुभ दिन या तारीख की आवश्यकता नहीं। कभी भी कोई किसी के लिए सहयोग का हाथ बढ़ा सकता है। इस्लाम अपने अनुयायियों को हरदम अश्रितों की सहायता की मुद्रा में रहने की हिदायत देता है। दो बड़े त्योहारों ईद और बकरीद पर आर्थिक रूप से पिछड़ों की मदद करने को जश्न की तरह मनाने के लिए प्रेरित भी करता है।
एक लिहाज से ईद और बकरीद को आर्थिक सहयोग का उत्सव कहें, तो कोई गलत नहीं होगा, क्योंकि ईद से पहले एक महीने रोजे के बाद जब त्योहार मनाने की बारी आती है, तो इसके साथ अल्लाह तआला का यह फरमान भी शामिल होता है कि ईद के नमाज से पहले-पहले फितरा अदा करना निहायत जरूरी है।
यह फितरा आर्थिक रूप से संपन्न व्यक्ति द्वारा कमजोर लोगों के लिए निकाला जाता है। यह धनराशि रोजाना दिए जाने वाले खैरात या जकात से अलग होती है।
इसी तरह, मुस्लिमों का दूसरा बड़ा त्योहार बकरीद मनाने की मंशा अल्लाह के समक्ष पिता हजरत इब्राहिम अलैहिस्सलाम और उनके पुत्र हजरत इस्माइल अलैहिस्सलाम की याद को ताजा करने के अलावा जानवरों की कुर्बानी देकर उनके खाल के बराबर पैसे से मदरसों या अपने किसी आर्थिक रूप से कमजोर व्यक्ति को मदद पहुंचाना है। कुर्बानी के गोश्त में भी केवल एक तिहाई हिस्सा कुर्बानी देने वालों का होता है। बाकी बांटने का हुक्म है।
इस्लाम में अपने से कमजोर को साल भर आर्थिक सहायता पहुंचाने के लिए भोग विलास के बाद साल में कुल संपत्ति का कम से कम ढाई फीसदी के बराबर की राशि उनमें बांटने का हुक्म दिया गया है। यहां तक कहा गया है कि कोई भी व्यक्ति, जो बावन तोला चांदी अथवा साढ़े सात तोला सोना या इसके बराबर की रकम रखता है, उसे जकात के रूप में गरीबों में बांटना जरूरी है। यदि हिन्दुस्तान की कुल मुस्लिम आबादी में से एक लाख लोग भी अमल करते हैं, तो यह रकम करोड़ों में पहुंच जाती है। यही धन मुस्लिम अदारों और मदरसों की रीढ़ है।
कश्मीर का एक युवक इन्हीं पैसे से चलने वाले जकात फाउंडेशन की आर्थिक मदद से आईएएस की परीक्षा में अव्वल दर्जा प्राप्त कर चुका है। राजस्थान और महाराष्ट्र के कई दीनी मदरसों ने इन्हीं पैसों के बूते अपने आप को वक्त के हिसाब से ढालने में सफलता पाई है। काफी विवादों के बाद पिछले दिनों दारुल-उलूम देवबंद से रुखसत होने वाले एक वाइस चांसलर गुजरात के कई हिस्सों में इन्हीं जकात और फितरा के पैसे से दीनी अदारों की खिदमत कर रहे हैं।
बिहार के गया शहर के एक मदरसे की बच्ची से मिलकर तत्कालीन राष्ट्रपति अब्दुल कलाम उसकी तालीमी क्षमता देखकर दंग रह गए थे। कॉरपोरेट सोशल रिस्पांसबिलिटी की बात करने वाले लोग चाहें, तो बकरीद से बहुत कुछ सीख सकते हैं।