मोर्चा का शक्ति प्रदर्शन और सत्तापक्षकी बौखलाहट
अपनी डफली अपना राग, फिलहाल देश में यही स्थिति दिख रही है । स्वतंत्रता अगर किसी चीज में दिख रही है तो वह है सत्ता पक्ष की अभिव्यक्ति में । अभी तक ओली जी की बोली निकल रही थी, अब तो सम्माननीय गृहमंत्री भी ताल ठोक कर खड़े हैं कि विद्रोह होता है तो हो, हम तो अपने मन की करेंगे । शक्ति प्रदर्शन के पश्चात् सत्तापक्ष बौखलाई हुई दिख रही है । तभी तो विपक्षी मोर्चा को निर्माण प्रक्रिया विरोधी दल और समूह के साथ के गठबन्धन को सरकार सुरक्षा चुनौती के रूप में ले रही है । उपप्रधान एवं गृहमंत्री वामदेव गौतम द्वारा राज्यव्यवस्था चुनौती में पेश किए गए सुरक्षा के १२ चुनौतियों में मोर्चा को पहले नम्बर पर रखा है । कभी–कभी तो यह लगता है कि ये नेतागण देश की नहीं सिर्फ अपनी सोच रहे हैं । देश का एक पक्ष क्यों असंतुष्टि की आग में जल रहा है उसकी चिन्ता या परवाह नहीं है इन्हें, हाँ इन पर शोषक होने का आरोप ना लगे यह चिन्ता अवश्य सता रही है । २०६२÷६३ की जनक्रांति, माओवादी सशस्त्र संघर्ष और मधेश आन्दोलन में जो मुद्दे उठे थे अर्थात् गणतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, राज्य की पुनर्सरंचना और आर्थिक सामाजिक से सम्बन्धित जो भी विषय थे ये सभी दलों का सामूहिक एजेण्डा था किन्तु समय के साथ मुद्दों और उनसे जुड़ी विचारधाराएँ परिवर्तित होतीं चली गईं । विरोध का जो स्वर आज उभर कर सामने आ रहा है यह उसी का नतीजा है ।
बहुमत के मद में चूर सत्ता पक्ष आज कुछ विचलित नजर आ रही है । ये बदले हुए मौसम का असर है या फिर हताश मनोदशा का ये कहना मुश्किल होगा । किन्तु खुला मंच पर तीस दलीय दलों ने जो अपना शक्ति प्रदर्शन किया है उसने सत्तापक्ष को अवश्य सोचने पर विवश किया हुआ है । एकबार फिर सहमति की हवा बहने के आसार नजर आ रहे हैं । किन्तु एमाले के अड़ियलपन वाले रुख ने सत्तापक्ष में भी हलचल ला दिया है । काँग्रेस का एक बड़ा कुनबा सहमति के पक्ष में है और वहीं एमाले यह समीक्षा कर रहा है कि उसके सत्ता में होने का औचित्य क्या है । ये बातें दरार की पहली रेखा तो दिखा ही रही है ।
१६ गते शनिवार को खुलामंच में उमड़ा जन सैलाब सत्तापक्ष को आत्मविश्लेषण करने पर विवश कर रहा है और लचीलेपन का शमा भी बँध रहा है । हाँलाकि सहमति के लिए संविधान सभा की बहुमतीय प्रक्रिया कुछ समय के लिए स्थगित कर के सत्तापक्ष विपक्षी मोर्चा से वार्ता के लिए आह्वान करता आया है । पर मोर्चा ये कह कर इन्कार कर रहा है कि अभी वार्ता का अनुकूल वातावरण तैयार नहीं है । पर काँग्रेस के सहमहामंत्री पूर्णबहादुर खड्का का कहना है कि फिलहाल अनौपचारिक तह में बातें हो रही हैं जल्द ही औपचारिक वार्ता की सम्भावना है । और बैठक में लचीले रुख को अपनाते हुए वार्ता होगी और उसके बाद ही प्रक्रिया आगे बढ़ाई जाएगी । उन्होंने कहा कि सत्तापक्ष अभी कुछ दिन संविधानसभा प्रक्रिया को रोक कर विपक्षी मोर्चा के साथ वार्ता करने की मनःस्थिति में है । सत्तापक्ष की तरफ से हो रहे इस सकारात्मक कोशिश की पहल शायद एमाले को रास नहीं आ रही है । या फिर उन्हें लगने लगा है कि बहुत जल्द सत्ता से बाहर का रास्ता वो भी नापने वाले हैं इसलिए उन्होंने यह कहना शुरु कर दिया है कि जब हम संविधान नहीं दे पाए तो सत्ता में क्यों रहना ? जहाँ एक ओर वार्ता का माहौल बन रहा है वहाँ एमाले की ओर से ऐसे वक्तव्य का आना यह संकेत कर रहा है कि सत्तापक्ष में बहुत जल्द बदलाव होने वाला है । आज एमाले की बहुमतीय प्रक्रिया बढ़ाने की तत्परता इतनी अधिक बढ़ गई है कि ये विपक्षी मोर्चा का वार्ता में आने तक का इंतजार नहीं करना चाहते हैं ।
तीस दलीय मोर्चा ने शक्ति–प्रदर्शन के बाद अपना रुख स्पष्ट कर दिया है । प्रचण्ड ने स्पष्ट घोषणा कर दी है कि अगर अभी भी सत्ता पक्ष ने अपने मन की करनी चाही तो, आगे की राह हिंसात्मक भी हो सकती है । एमाओवादी पर यह आरोप लगता आया है कि वो पहचान और जातीयता का सवाल उठाकर संविधान अवरोध करते आ रहे हैं । पर इस विषय पर एमाओवादी नेता बाबुराम भट्राई का स्पष्ट कहना है कि यह सिर्फ आरोप है हमारी पार्टी के ऊपर जिससे भ्रम का वातावरण तैयार हो गया है । कम्यूनिष्ट तो कभी जातिपाति को मानता ही नहीं । जातीयता शब्द की व्याख्या ही गलत की गई है । जातीयता का अर्थ यह नहीं है कि हम ब्राह्मण, क्षत्रीय, मगर आदि राज्य बनाना चाह रहे हैं बल्कि हम तो संस्कृति, भाषा आदि को आधार मानने की बात कह रहे हैं । जहाँ जनता अपनेपन और अपनी भाषा में कार्य करे, शिक्षा ग्रहण करे । पर सत्तापक्ष की ओर से बार–बार यह कहा जा रहा है कि सभी विषयों पर सहमति हो चुकी है और हमारी तरफ से ये बातें उलझी हुई हैं । यह बिल्कुल निराधार है । उन्होंने तो यह भी कह दिया कि अगर जातीयता से कोई ग्रस्त है तो वह स्वयं सत्तापक्ष है जिनमें अभी भी खसवादी प्रकृति हावी है और काँग्रेस एमाले की गठबन्धन का भी सिर्फ यही आधार है । कहीं ना कहीं हालात इसी ओर इशारा कर रहे हैं ।
काँग्रेस और एमाले की जिम्मेदारी बनती है कि सहज हो रहे वातावरण को और भी सहज बनाए और संविधान निर्माण की प्रक्रिया को आगे बढ़ाए । संविधान सभा पक्ष और विपक्ष का नहीं होता है । इस बात का ध्यान अब और भी अधिक सत्ता पक्ष को रखना होगा क्योंकि सात और आठ माघ को जो हुआ वो सबने देखा । जहाँ बहुमत के मद में ऐसे कदम उठाए गए जो निःसन्देह सही नहीं थे । अन्तर्राष्ट्रीय निकाय और नागरिक समाज का विपक्षी मोर्चा पर लगातार दवाब आ रहा है कि वो वार्ता में जाएँ । किन्तु मोर्चा का कहना है कि जब तक बहुमतीय प्रक्रिया खारिज नहीं होगी तभी तक वार्ता का कोई औचित्य नहीं है । मोर्चा, माघ ५ के दिन वार्ता जिस बिन्दु पर रुकी थी वार्ता वहीं से शुरु करना चाह रही है । और अगर काँग्रेस इस पर लचीला रुख अपनाती है तो यह एमाले कभी भी सहन नहीं करेगा । माघ ५ में संघीयता के अलावा सभी मसलों पर लगभग बातें तय हो चुकी थीं । किन्तु प्रश्नावली समिति बहुमत द्वारा बनाए जाने की बात पर संविधान सभा में विपक्षियों द्वारा तोड़फोड़ जैसी अशोभनीय घटना हुई थी, किन्तु विपक्षियों के सामने मरता क्या ना करता वाली स्थिति थी जो उस घटना की निमित्त बनी । मोर्चा का मानना है कि जिस बिन्दु पर वार्ता अवरोधित हुई उसी विषय से पुनः शुरु की जाय तो वातावरण सहज हो सकता है । संघीयता के नाम, सीमांकन, पूर्व का झापा, मोरङ्ग और सुनसरी तथा सुदूर पश्चिम के कैलाली और कंचनपुर के जिला के विषय में ज्यादा विवाद है । जबकि संघीय प्रदेश की संख्या लगभग ६ से ९ तक तय हो चुकी है । शासकीय स्वरूप, निर्वाचन प्रणाली, न्याय प्रणाली में दलों के बीच कोई खास मतभेद नहीं दिख रहे हैं । इस अवस्था में देश को द्वन्द्ध की राह पर न धकेल कर अगर सहमति की राह निकाल ली जाय तो यह सभी के हित में होगा । जनता युद्ध नहीं चाहती यह बात नेताओं को समझनी होगी । एमाओवादी के वरिष्ठ नेता बाबुराम भट्राई ने अपने भारत भ्रमण में यह बात जाहिर की कि शान्ति प्रक्रिया में जो अवरोध आ रहा है उसमें पूर्व की ही भाँति भारत के सहयोग की अपेक्षा नेपाल करता है । नेपाल अभी जिस संक्रमण काल से गुजर रहा है उसमें सीमान्तकृत और पिछड़े समुदाय की आवाज को अगर सम्बोधित नहीं किया गया तो कुछ भी हो सकता है और काँग्रेस, एमाले की हठ की वजह से नेपाल द्वन्द्ध की राह पर चलने को विवश हो जाएगा । भट्राई की यह धारणा स्पष्ट करती है कि मोर्चा भी युद्ध की राह नहीं पकड़ना चाह रहा है । किन्तु सत्तापक्ष की हठधर्मिता इस राह को चुनने के लिए विवश कर रही है । क्योंकि एमाले आज भी अपनी ही जिद पर अड़े हुई हैं ।
संविधान सहमति में ही निर्माण होना चाहिए यह बात हर ओर से आ रही है । सहमति को अन्तरिम संविधान में भी परिभाषित किया गया है और लोकतन्त्र में समस्त नागरिक को धार्मिक, आर्थिक और न्यायिक अधिकार प्राप्त है । इसका सम्मान सत्तापक्ष को करना ही होगा और जनता की आवाज को भी सम्बोधन करना ही होगा, नहीं तो देश की स्थिति और भी दयनीय और आगे की राह निश्चित तौर पर दुरुह हो जाएगी ।