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ताज़ बदले, तख्त़ बदले; पर नेपाल के शासकों की नीयत नहीं बदली : गंगेश मिश्र

गंगेश मिश्र, कपिलबस्तु, २९ नोभेम्बर |
दर्द की कमी नहीं है, खेत में नमी नहीं है।
कर्मयोगी किसान, आज परेशान है।
प्यास से फटी धरती, सूख गया धान है।
न खाद है, न पानी है; क्या यही जिन्दगानी है ?
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कृषिप्रधान देश के किसान की दुर्दशा, अकल्पनीय है। सीमावर्ती क्षेत्रों के किसानों की खेती, पड़ोसी देश के कैरियरों पर निर्भर है। वे ही डेढ़ से दो गुने दामों पर इन्हें खाद उपलब्ध कराते हैं। नेपाल में खाद की आपूर्ति ,बंगलादेश से हुआ करती थी। लेकिन जब से इस देश में तथाकथित प्रजातंत्र का उदय हुआ, तब से यहाँ के किसानों के बुरे दिन सुरु हो गये। सरकारें आती रहीं,  जाती रहीं। मधेश के किसानों की हालत जस की तस रह गई। हाँ, भक्तपुर का आलू, मधेश के आलू से पाँच रुपया मँहगा जरुर रहा। नेपाली शासकों की
कुटिल निगाहें, हमेशा से मधेश पर लगी रहीं । थारु समुदाय, जो अपने यहाँ के जमींदार हुआ करते थे । उनके जमीनों पर, पहाड़ी समुदाय के लोगों ने कब्जा कर , उन्हें उनके घर से भी बेदखल कर दिया। मधेश नेपाल के शासकों के लिए मोटी  कमाई का जरिया रहा है । मधेश के किसानों द्वारा उपजाया काला-नमक, मसुली चावल बड़े चाव से खाते हैं, मगर मधेशी इन्हें पसन्द नहीं। ताज़ बदले, तख्त़ बदले; पर नेपाल के शासकों की नीयत नहीं बदली। उन्हें मधेश या मधेशी नहीं, यहाँ की समतल, उपजाऊ भूमि प्यारी है।जिसे हथियाने के लिए,  नई- तरकीबें निकालते हैं, ये। कभी 28, कभी 10, तो कभी 5 बीघे पर हदबंदी लगाते हैं। नेपाली सत्ता के द्वारा मधेश का किसान, हमेशा उपेक्षित
रहा। आलम ये है,- न बीज है, न खाद है, न तेल है।न मण्डी है, न शीतलन गृह; औने- पौने दामों पर अपने मेहनत से उपजाए अन्न को बेचने पर मजबूर है; मधेशी  किसान।
आन्दोलन की आग अब, चहुँओर फैलनी चाहिए। नेपाल में, किसानों का आन्दोलन एक आवश्यकता है। मधेश के किसानों की अनदेखी होती रही है, सिर्फ इसलिए कि वे
मधेशी हैं ? सूखे की मार से आहत किसान बेहाल है, सरकार को इससे कुछ लेनादेना नहीं है।
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