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रवीन्द्र झा ‘शंकर’
संसार में दो प्रकार के लोग पाये जाते है– कोई भाग्य को दोष देकर रोता–कुढ़ता है तो कोई भाग्य को चुनौती देकर हँसते–गाते सफलता की मंजिल की ओर चलता रहता है और एक दिन वह उसे पा भी लेता है । हमारे यहाँ आमतौर पर ऐसी धारणा है कि मनुष्य को जो भी यश–अपयश, अमीरी–गरीबी या सुख–दुख मिलता है, वह उसके भाग्य से मिलता है, वह पूर्वजन्म के कर्म का फल है । भाग्यवादी लोग समझते हैं कि भाग्य को बदला नहीं जा सकता, वे उसे बदलने की कोशिश भी नहीं करते, कर्मवादी लोगों को यह धारणा मंजूर नहीं, वे परिस्थिति के आगे झुकते नहीं, अपितु उसपर विजय पाने की कोशिश करते हैं । यह सच है कि जीवन में कुछ बातें भाग्य से मिलती है फिर भी जिन्दगी भर भाग्य का गुलाम बने रहना पलायनवाद की निशानी है, जिन्दगी तो ताश के खेल की तरह होती है । ताश के खेल में आप को कौन–से पते मिलेंगे, यह नसीब की बात होती है, लेकिन मिले हुए पते किस तरह खेले जायँ– यह आपके हाथ में होता है, पत्तो की चाल–चलना, आप की होशियारी, कुशलता और पुरुषार्थ की बात होती है । कर्ण ने महारभात में कहा है– दैवायतं कुले जन्मः मदायतं तु पौरुषम् । अर्थात् कौन से कुल में जन्म लेना, यह भाग्य के हाथ में हैं, लेकिन पराक्रम करना मेरे हाथ में है । समाज में भी हम देखते हैं कि कुछ लोग ऊँचे खानदान में पैदा होते हैं, लेकिन कर्म से हीन होते हैं । इसके विपरीत कुछ लोग निम्न कुल में पैदा होकर भी महान कार्य करते हंै । कुछ लोग ऐसे होते हैं कि उनके पास फूटी कौड़ी भी नहीं होती, खाने के मुहताज होते हंै, लेकिन वे लगन और मेहनत से धनवान बन जाते हंै, कुछ लोग चाँदी का चम्मच मुँह में डालकर पैदा होते हैं, लेकिन अपनी नादानी से दर–दर के भिखारी बन जाते हैं । भगवान ने उन्हें चमन (फुलवारी’ दिया होता है, लेकिन वे उसका अपनी कर्म दरिद्रता के कारण सहरा (रेगिस्तान) बना देता है । जैसा जिसका कर्म होता है, वैसा उसको फल मिलता है । इस पर मुझे संत कबीर का वाणी याद आ रही है–

करता था तो क्यों रहा, अब करि क्यों पछिताय ।
बोवै पेड़ बबूल का, आम कहाँ ते खाय ।।

कर्म करते समय तो विचार किया नहीं, अब पक्षताने से क्या लाभ ? बबूल का पेड़ बोकर आम के फल कैसे खाने को मिलेगा ? उसी तरह अधर्म का आचरण करनेवाले को धर्म का फल कैसे मिलेगा ?
मेरे हिसाब से सच तो यह है कि नसीब और कर्म दोनो एक ही सिक्के के दो पहलू हैं । वाक कहो, कर्म कहो, नसीब कहो या कोई भी नाम दो, कर्म के सभी नाम हैं, सब कुछ करनेवाला एक मन ही है । जो सत्कर्म करता है, उसका नसीब खुलता है । यह कहना गलत है कि सन्त महात्माओं ने धर्म की अफीम देकर लोगों को निकम्मा बनाया है । अज्ञानी लोग ही ऐसा कहते हैं, आजतक सब सन्तों ने प्रयत्नवाद की ही सीख दी है । महाराष्ट्र के सन्त समर्थ गुरु रामदास ने कहा है– ‘यत्न तो देव जाणावा’ अर्थात् प्रयत्न को भगवान् समझो, सन्त तुकाराम ने कहा है– ‘आधी कष्ट मगफल, कष्टचि नाही ते निफल’ । केल्या ने कहा है– ‘होत आहे रे आधी केलचि पाहिजे ।’ इन वचनों का भावार्थ है, पहले श्रम करो, फिर फल मिलेगा, श्रम ही नहीं किया तो फल कैसे मिलेगा ? इसलिए पहले कोशिश करनी चाहिए । ईश्वर उन्हीं की मदद करता है, जो स्वयं की मदद करते हैं’, ईसा मसीह का यह वचन दुनिया भर में मशहूर है । भगवान श्री चक्रधर स्वामी ने स्पष्ट रूप से कहा है– ‘पुरुषप्रयत्नी दैवाचे साहय ।’ (आचार १०२) अर्थात् नसीब कोशिश करनेवाले को ही सहायता करता है, सिर्फ भगवान भरोसे पर कामयावी कैसे मिलेगी ? आलस्य मनुष्य का महान् शत्रु है, इसके कारण अनेक अनर्थ होते हैं । जैसे–

अलस्य कुतो विद्या अविहास्य कुतो धनम् ।
अधनस्य कुतो मित्रममित्रस्य कुतः सुखम् ।।

 
अर्थात् आलसी मनुष्य को विद्या कैसे प्राप्त होगा ? निर्धनों को कौन मित्र बनायेगा ? और जिसको मित्र ही नहीं, वह कैसे सुखी बनेगा ?
धर्मग्रन्थ के सरताज भगवतगीता में भगवान श्री कृष्ण ने कर्मयोग का ही समर्थन किया है, कर्म से दूर भागनेवाले अर्जुन को कर्म करने के लिए प्रेरित किया है और अर्जुन सम्पूर्ण मानवजाति का प्रतिनिधि है । भगवान् श्रीकृष्ण ने उसे समझाया है–

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेसु कदाचन ।
मा कर्मफलहेतुर्भुमा ते सङ्गोऽस्तकर्मणि ।।
(२।४७)

तेरा कर्म करने मार्ग में ही अधिकार है । उसके फल में कभी नहीं । इसलिए तू क्योंकि फल का हेतु मत हो तथा तेरी कर्म न करने में भी आसक्ति न हो । इसीतरह श्रीमद्भागवत गीता में ‘कर्मत्याग’ नहीं बल्कि ‘फलत्याग’ करने को कहा है, व्यवहार में लोग इसके विपरित बरताव करते हैं । हर कोई कर्म नहीं, लेकिन उसके फल को प्राथमिकता देता है । इतना ही नहीं दूसरों को श्रम का फल भी हड़पना चाहता है, मनुष्य की इसी वृत्ति के कारण समाज में भ्रष्टाचार, असंतोष और अशान्ति फैलती है ।
मेहनत से क्या नहीं मिलता ? तपस्या से परमेश्वर की प्राप्ति भी हो सकती है । इंसान अनहोनी को होनी बना देता है, कलतक जो बातें असम्भव लगती थी, वे आज वैज्ञानिकों के अथक परिश्रम के कारण सम्भव हो गयी है । यहाँ तक कि मानव चाँद और मंंगल पर भी जा पहुँचा । प्राचीनकाल में ऋषिमुनियों ने घोर तपस्या से आश्चर्यचकित सामथ्र्य प्राप्त किया था । राजा भागीरथ कड़ी मेहनत करके स्वर्ग से गंगा को पृथ्वी पर लाये थे ।
ज्ञान के अभाव में कर्म अन्धा होता है और कर्म के अभाव में ज्ञान लंगड़ा होता है । यदि कर्म का आचरण ही न होता तो वह धर्म किस काम का ? वह पंखहीन पंक्षी की तरह बेकार है ।
अचारः परमो धर्म अचारः परमं तपः ।
अचारः परम ज्ञानम् अचारात् किं न साध्यते ।।
अचार श्रेष्ठ धर्म है, अचार श्रेष्ठ तप है, आचार श्रेष्ठ ज्ञान है, अचार से क्या नहीं साध्य होता ?
दुनिया का कोई भी धर्म कोरे (कर्महीन) देववाद का समर्थन नहीं करता, निष्काम कर्मयोग तो हिन्दु धर्म की आधारशिला है । नसीब पर रोनेवालो के लिये नीचे का श्लोक उपयुक्त है ।
उधमं साहसं धैर्य बुद्धिः शक्ति पराक्रम ।
षडेते यत्र वर्तन्ते तंत्र देव सहायकृत ।।
अर्थात् उद्योग, साहस, धैर्य, बुद्धि, शक्ति पराक्रम– ये ६ गुण जिसके पास हैं, उसकी देवता भी सहायता करते हैं, यानी उसका नसीब फलता है ।
मानव जब जोर लगाता है
पत्थर पानी बन जाता है ।



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