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प्रो. नवीन मिश्रा
पर्यावरण के विषय में अन्तर्राष्ट्रीय जगत की चिन्ता द्वितीय महायुद्ध के बाद ही देखने को मिलती है । महायुद्ध के विध्वंस ने इस बात को रेखांकित किया था कि आधुनिक हथियार पर्यावरण के लिए कितने खतरनाक साबित हो सकते हैं । बमबारी ने बड़े–बडेÞ ऐतिहासिक नगरों को तबाह कर दिया था और हरे भरे खेत बंजर कब्रिस्तानों में बदल गए थे । स्टम बम के प्रयोग ने पर्यावरण के लिए एक नई चुनौती पैदा कर दी थी । हिरोशिमा और नागासाकी के अनुभव से यह बात सामने आ चुकी थी कि एक बार एटमी हथियार का प्रयोग करने पर भी वर्षों तक वातावरण प्रदूषित रहता है और रेडियो धर्मी धूल को वायुमण्डल में मंडराने वाले बादल अपनी तुनक मिजाजी में दूर दूर तक फैला सकते हैं । एटमी हथियारों का प्रयोग भले ही दोबारा कभी नहीं हुआ, पर दोनों महाशक्तियों के बीच वर्षों चलने वाली प्रतिस्पर्धा में सैकड़ों परमाण्विक हथियारों के परीक्षण हुए । दक्षिण–पश्चिमी प्रशान्त महासागर में अमेरिकी तथा फ्रान्सिसी परमाण्विक परीक्षणों से पैदा होने वाले प्रदूषण की मार, बेगुनाह जापानियों मछुआरों पर पड़ी । परमाणु वैज्ञानिकों की यह चेतावनी भी कम चौकाने वाली न थी कि रेडियो विकरण के कुप्रभाव से सिर्फ सीधे प्रभावित लोग ही रोगग्रस्त नहीं होते बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए भी कैंसर का खतरा कई गुना बढ़ जाता है । इन सब बातों को ध्यान में रखते ही पहले वायुमण्डल में, फिर अन्तरिक्ष तथा सागर तल में ऐसे परीक्षणों पर रोक लगाने वाली संधियां सम्भव हुई ।
अनेक वैज्ञानिकों ने जिम्मेदार नागरिकों का ध्यान इस ओर भी आकर्षित किया कि सिर्फ युद्धकाल में ही नहीं, शान्ति के युग में भी पर्यावरण जोखिम में पड़ सकता है । पश्चिमी युरोप के देशों में १९६० के दशक के अन्त तक यह बात स्वीकार कर ली थी कि उनके यहाँ औद्योगीकरण और शहरीकरण बेहद नुकसानदेह साबित हो रहा था । जर्मनी में धुआं गलने वाली फैक्टरियों से जो बादल उठते, उनसे जीवनदायिनी रस की धार नहीं बरसती थी । बल्कि एसिड्रीन खेतों को बंजर करने के लिए धरती पर उतरती थी । इन्हीं वर्षों में साइलेन्ट स्प्रिंग नामक पुस्तक का प्रकाशन हुआ, जिसने इस बहस का एक नया आयाम उद्घाटित किया । लेखिका का निष्कर्ष यह था कि इंग्लैंड के ग्रामीण इलाकों में अब चिड़ियों की चहचहाहट नहीं सुनी जा सकती थी क्योंकि वे जहरीले कीट खा असमय ही काल कलवित हो चुकी हैं । कीड़े इसलिए जहरीले बने थे क्योंकि फसलों को उनसे बचाने के लिए भारी पैमाने पर डी.टी.टी. जैसे रासायनिक का, अदूरदर्शी उपयोग किया गया था । इन दोनों ही बातों में पश्चिमी देशों में पर्यावरण के बारे में चिन्ता को बढ़ाया । विपन्न विकासशील देशों के समस्याएँ दूसरी तरह की थी । नेपाल जैसे राजशाही में आर्थिक विकास के लिए जरुरी पूँजी जुटाने के लिए जंगल जैसे प्राकृतिक संशाधन के दोहन से बचा नहीं जा सकता था । वनों के तेज कटाव के कारण भूमि का क्षय होता था और जमीन के हिसाव के बाद पानी को रोकने की क्षमता घटती थी । वर्षा के साथ बह कर आने वाली मिट्टी नदियों को भर देती थी और उनके तल को ऊपर उठा विनाशकारी बाढ़ के संकट को कई गुना बढ़ा देती थी । इसके साथ–साथ तेज ढलान वाले पहाड़ों में भू–स्खलन का खतरा भी भयावह रूप से बढ़ जाता था । ऐदिक एकहोम नामक विद्वान ने अपनी पुस्तक लूजिंग ग्राउंड में इस खतरे के प्रति मनुष्य समुदाय को सचेत करने की कोशिश की थी । ऐसी ही चेतावनी, प्रसिद्ध पर्यावरण शास्त्री, अनिल अग्रवाल ने पर्यावरण विषयक नागरिकों की पहली रिपोर्ट में भी मुखर की थी । आवादी का बड़ा आकार और शहरी इलाकों में निरन्तर बढ़ता घनत्व भी प्राकृतिक संसाधनों पर असह्य दबाव डालने लगा था । श्रीमती गान्धी ने उस वक्त एक बहुत सटीक टिप्पणी करते हुए बहुत ठीक कहा था कि गरीबी ही सबसे बड़ा प्रदूषक है ।
१९७० के दशक के आरम्भ तक यह बात जगजाहिर हो चुकी थी कि किसी संक्रामक महामारी की तरह ही पर्यावरण के प्रदूषण का संकट भी ऐसा है, जिससे व्यक्ति अपने घर में बैठा भी निरापद नहीं रह सकता । स्प्राउट दम्पत्तियों ने अपनी पुस्तक स्पेस शिप अर्थ में यही रुपक बांधा था कि जिस तरह एक छोटे से अन्तरिक्षयान में सफर कर रहे, सभी यात्री, यान के वायुमण्डल को प्रदूषण से मुक्ति रखने के लिए समान रूप से जिम्मेदार हैं, और अकेला जिन्दा नहीं रह सकता, कुछ वैसी ही स्थिति इस पृथ्वी के बाशिंदों की भी है ।
इन्हीं वर्षों में कई भीमकाय तेल वाहक टैंकर दुर्घटनाग्रस्त हुए और उनसे रिसने वाले तेल ने समुद्र के पानी के साथ वह हजारों मील दूर को प्रदुषित किया । इसके साथ एक नया सवाल उठ खडा हुआ । इस तरह दुर्घटना से उत्पादन हुए प्रदूषण के लिए किसे जिम्मेदार ठहराया जाए और कैसे मुआवजा देने के लिए बाध्य या दण्डित किया जाए ? विडंवना यह थी कि भले ही दुर्घटना किसी भी राष्ट्र राज्य के क्षेत्र से बाहर घटी हो, प्रभावित राज्य राहत और न्याय के लिए व्याकुल रहता था ।
१९७२ में स्वीडन की राजधानी स्टोकहोम में संयुक्त राष्ट्र संघ के तत्वाधान में पहले अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन में सहभागी सभी राष्ट्रों ने जहां एक ओर पर्यावरण के संरक्षण को प्राथमिकता देना बेहिचक स्वीकार किया, वही इस बात को भी जोरदार ढंग से सामने रखा कि इस मुद्दे का समाधान विकास की समस्या के साथ जोड़ कर ही ढूंढ़ा जाना चाहिए । विकासशील देशों का मानना था कि पर्यावरण के लिए जो संकट वर्तमान में उत्पन्न हुआ है, उसके लिए खुद औपनिवेशिक शक्तियां कम जिम्मेदार नहीं । तेल हो या खनिज, अपनी जरुरत के लिए इन संसाधनों का दोहन करते वक्त प्रकृति के स्वास्थ्य की कोई चिन्ता सम्पन्न पश्चिमी देशों ने कभी नहीं की थी ।
पूँजीवादी जीवन–यापन शैली में फिजूलखर्च, स्वार्थी, उपभोक्तावादी मानसिकता प्रबल थी, जबकि विकासशील देशों में यह बात सहज स्वीकार की जाती थी कि प्रकृति का भण्डार हरेक मनुष्य की जरुरत को पूरा करने के लिए तो भरा पूरा, पर किसी समुदाय या राष्ट्र विशेष के लालच की तृप्ति में असमर्थ ही सिद्ध होता है ।
तीसरी दुनिया के देशों ने यह अकाट्य तर्क भी सामने रखा कि आर्थिक विकास के बिना उनकी राजनैतिक स्वाधीनता अधूरी ही समझी जा सकती है और उन्हें पराधीन ही बनाए रखती है । सामाजिक विषमता दूर करने के लिए अपना जीवन यापन स्तर सुधारने के लिए आर्थिक विकास से कतराया नहीं जा सकता और इसके लिए प्राकृतिक संसाधन ही उनकी इकलौती पुँजी है । यह बात भी साफ है कि सम्प्रभु देशों का स्वामित्व अपने प्राकृत साधनों पर एकछत्र ही हो सकता है, इसे साझे की विरासत नहीं बनाया जा सकता है । विकसित देशों के सामने यह विकल्प १९७२ में ही रख दिया गया कि यदि वे पर्यावरण के संरक्षण के विषय को अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था के लिए इतना महत्वपूर्ण समझते हैं तो पर्यावरण के संरक्षण के लिए इनका दोहन त्याग देना चाहिए तथा न्यायोचित मुआवजा देने के लिए उन्हें व्यवस्था करनी चाहिए ।
इन सब का अर्थ यह नहीं निकाला जाना चाहिए कि इन वर्षों में पर्यावरण के विषय में चिन्ता समाप्त हो गई । धरती के वायुमण्डल में ओजोन परत में छेद होना अक्सर सुर्खियों में छाया रहा । वैज्ञानिकों के अनुसार इसका कारण हाइड्रोकार्बन इन्धन का अन्धाधुन्ध उपभोग था जिससे सी.एफ.सी. गैस वायुमण्डल में अप्राकृतिक रूप से फैलती है और ओजोन परत को पतला और भंगुर बना देती है । इसके वाद सूरज से पृथ्वी तक आने वाली परा–बैंगनी किरणें कहीं अधिक खतरनाक बन जाती है । दक्षिणी गोलाद्र्ध में रहनेवाले गोरों खया के कैंसर में बढ़त का कारण ओजोन परत में छेद को ही बतलाया गए ।

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