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महिलाएं श्राद्ध करें या नहीं? यह प्रश्न भ्रम की स्थिति उत्पन्न करता है। अमूमन देखा गया है कि परिवार के पुरुष सदस्य या पुत्र-पौत्र नहीं होने पर कई बार कन्या या धर्मपत्नी को भी मृतक के अंतिम संस्कार करते या श्राद्ध वर्षी करते देखा गया है।



परिस्थितियां ऐसी ही हों तो यह अंतिम विकल्प है। इस बारे में हिंदू धर्म ग्रंथ, धर्म सिंधु सहित मनुस्मृति और गरुड़ पुराण भी महिलाओं को पिंड दान आदि करने का अधिकार प्रदान करती है।

शंकराचार्यों ने भी इस प्रकार की व्यवस्था को तर्क संगत बताया है कि श्राद्ध करने की परंपरा जीवित रहे और लोग अपने पितरों को नहीं भूलें। इसलिए अंतिम संस्कार में अपने परिवार या पितर को मुखाग्नि दे सकती हैं।

पुरुष सदस्य नहीं, तो ऐसे करें तर्पण

मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र सहित भारत के ऐसे कई राज्य हैं, जहां पुत्र/पौत्र न होने पर पत्नी, बेटी, बहिन या नातिन ने भी मृतक संस्कार आरंभ कर दिए हैं।

वहीं, वैदिक परंपरा के अनुसार महिलाएं यज्ञ अनुष्ठान, संकल्प और व्रत आदि तो रख सकती हैं। लेकिन श्राद्ध की विधि को स्वयं नहीं कर सकती हैं। विधवा स्त्री अगर संतानहीन है तो अपने पति के नाम श्राद्ध का संकल्प रखकर ब्राह्मण या पुरोहित या फिर परिवार के किसी पुरुष सदस्य से ही पिंडदान आदि का विधान पूरा करवा सकती है।

इसी प्रकार जिन पितरों की कन्याएं ही वंश परंपरा में हैं तो वे पितरों के नाम व्रत रखकर उनके दामाद, नाती या ब्राम्हण को बुलाकर श्राद्धकर्म करा सकते हैं।

क्या होता है मातामह श्राद्ध

मातामह श्राद्ध, एक ऐसा श्राद्ध है जो एक पुत्री द्वारा अपने पिता व एक नाती द्वारा अपने नाना को तर्पण के रूप में किया जाता है। इस श्राद्ध को सुख शांति का प्रतीक माना जाता है । यह श्राद्ध करने के लिए कुछ आवश्यक शर्तें है अगर वो पूरी न हो तो यह श्राद्ध नहीं किया जाता है।

शर्त यह है कि मातामह श्राद्ध उसी महिला के पिता के द्वारा किया जाता है जिसका पति व पुत्र जिंदा हो। अगर ऐसा नहीं है और दोनों में से किसी एक का निधन हो चुका है या है ही नहीं तो मातामह श्राद्ध का तर्पण नहीं किया जाता।



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