ईश्वर-भजन अमूल्य निधि !
रवीन्द्र झा शंकर’
मान लीजीए एक पुरुष सालभर में आठ हजार एक सौ रुपये कमाता है। ऐसा व्यक्ति भी यदि रोजगार छोडकर भजन करे तो उसका भी वह भजन कौडियों से सस्ता ही हो जाता है। जैसे वाषिर्क आठ हजार एक सौ रुपये हिसाब से एक महिने के ६७६ रुपये, एक दिन के २२-१/२ रुपये, एक घण्टा के ६० पैसा एवं एक मिनट का एक पैसा होता है। एक पैसे की अधिक से अधिक साठ कौडियाँ समझी जाए और्रर् इश्वर का नाम स्मरण एक मिनट में कम से कम एक सौ बीस बार किया जाय यानी एक सेकेण्ड में दो नाम लिए जाय तो भी वह कौडियो से मन्दा पडÞता है। जब हजार-पाँच सौ रुपये सालाना कमानेवाले की तो गिनती ही क्या है –
फलतः भजन में लाभ है। कंचन-कामिनी, मान-बडर्Þाई और प्रतिष्ठा की आसक्ति में फँसकर जो लोग अपने अमूल्य समय को बिताते हैं, उन का यह समय और परिश्रम तो र्व्यर्थ जाता ही है। इसके अतिरिक्त उन की आत्मा का अधोपतन भी हो जाता है। धन की आसक्ति में फँसा हुआ लोभी मनुष्य अनेक प्रकार के अनर्थ करके धन कमाता है। धन कमाने और उसकी रक्षा करने मे. बडÞा भारी क्लेश और परिश्रम होता है। उसके खर्च करने में भी कम दुःख नहीं होता और फिर धन को त्याग कर जाने के समय तो किसी-किसी को प्राण वियोग से भी बढÞकर दुःख होता है। जैसे निर्धन आदमी धन-उपार्जन की चिन्ता करता है और ऋणी ऋण चुकाने के लिए व्याकुल रहता है, वैसे ही धनी आदमी धनकी रक्षा के लिए व्याकुल रहता है। वस्तुतः धन कमाने की लालसा आत्मा का अधोपतन करनेवाली है, इसी प्रकार स्त्री संगकी इच्छा उससे भी बढÞकर आत्मा का पतन करती है। पर स्त्री गमन की तो बात ही क्या है। वह तो अत्यन्त ही निन्दनीय और घोर नकर में ले जानेवाला कर्म है। परंतु अपनी विवाहिता स्त्री का सहवास भी शास्त्र विपरीत हो तो कम हानिकारक नहीं है। आसक्ति के कारण शास्त्र विपरीत आचरण करना मामूली बात है। जब साधना करनेवाले बुद्धिमान् पुरुष की इन्द्रियाँ भी बलात् मन को विषयों में लगा देती हैं तो फिर साधनरहित विषयासक्त पामर मूखोर्ंका पतन होना कौन बडÞी बात है –
जैसे मर्ूख रोगी स्वाद के वश हुआ कुपथ्य सेवन करके मर जाता है। वैसे ही कामी पुरुष स्त्रीका अनुचित सेवन करके अपना नाश कर डालता है। विलासिता की बुद्धि से स्त्री का सेवन करने से कामोद्दीपन होता है और काम का वेग बढÞने से बुद्धि का नाश होता है, काम से मोहित हुआ नष्ट पुरुष चाहे जैसा विपरीत आचरण भी कर बैठता है, जिस से उसका र्सवथा आधोपतन हो जाता है। कामोपभोग से अधोपतन होना अनेकों ने अनुभव किया है अतः उससे बचना चाहिए।
स्त्री के सेवन से बुद्धि, वर्ीय, तेज, उत्साह, स्मृति और सद्गुणों का नाश हो जाता है। एवं शरीर में अनेक प्रकार के रोगो की वृद्धि होकर मनुष्य मृत्यु के समीप पहुँच जाता है। वह इस लोक के सुख, कर्ीर्ति और धर्म को खोकर नरक में गिर पडÞता है। यही आत्मा का पतन है। इसलिए साधुजन कंचन और कामिनी का भीतर और बाहर से र्सवथा त्याग कर दते हैं। वास्तव में भीतर का त्याग ही असली त्याग है। क्योंकि ममता, अभिमान और आसक्ति से रहित हुआ गृही मनुष्य न्याययुक्त कंचन और कामिनी के साथ सम्बन्ध रखने पर भी त्यागी माना गया है।
स्मरणीय है, श्रीमद्भागवत महापुराण के ग्यारहवें स्कन्द के आठवें अध्याय के ४१वे श्लोक में कहा गया है-
संसार कूपे पतितं विषयैमुषितेक्षणम् ।
ग्रस्तं कालहिना˜˜ त्मांन को ˜ न्यस्त्रातुमधीश्वरः ।।
अर्थात् यह जीव संसार कुएँ में गिरा हुआ है । विषयों ने इसे अंधा बना दिया है । कालरुपी अजगर ने इससे अपने मूँह में दबा रखा है । अब भगवान् को छोडÞकर इसकी रक्षा करने में दूसरा कौन र्समर्थ है ।। ±±±