फिर से याद करो !! २०६३/०६४ का मधेस आन्दोलन
अाषाढ १३ गते
आज खूब सोचो !! खूब मनन करो !! फिर से याद करो !! २०६३/०६४ के मधेस आन्दोलन के शुरूवाती दौर में बड़ी जोश खरोश और बड़ी जोश गर्मी के साथ शुरू हुवा आन्दोलन के नेतृत्व वर्ग आज हम सब को कहा खड़ा कर दिए अपने आप में चिन्तनीय और सोचनीय भी है ! शुरू में बहुत बड़े बड़े आन्दोलन क्रन्तिकारी का एक जत्था हम सब मधेस के लिए साथ साथ चलने की बहुत कसमे खाई थी ! मगर उस समय के नेतृत्व को ये गवारा नहीं था , उनके भित्री मन में शायद कुछ और ही खेल चल रहा था जिसका परिणाम निकालने में १० वर्ष लग गए ! शुरू के लोगो की आज उनकी बातो को भी यद् करने लायक भी है ! शुरूवाती आन्दोलन के नेतृत्व कर्ता में जे पी गुप्ता ,किशोर विश्वास , भाग्य नाथ गुप्ता , कृष्ण बहादुर चौधरी , उपेन्द्र झा ,राम कुमार शर्मा , जीतेन्द्र सोनल ,वी पी यादव , अम्मर यादव आदि सभी मधेस आन्दोलन के क्रांतिकारी मित्र धीरे धीरे एक एक कर नेतृत्व के क्रियाकलाप और मुद्दे तथा सिध्धांत प्रति विचलन के करण छोड़ते ही चले गए ! और नेतृत्व लेने वाला कुछ न कुछ बहाने बताने में माहिर खेलाडी कभी ओ दरबरिया का आरोप , कभी पुराने कांग्रेसी होने का आरोप , तो कभी माओबादी समर्थक होने का आरोप मिढ़ते रहे ! लेकिन अपने बारे में कभी नहीं कहे ! २०६४ के मधेस आन्दोलन के समय में प्रचण्ड जी ने एक कान्तिपुर पत्रिका के अन्तरवार्ता दिया था की मधेस आन्दोलन के नेतृत्व कर्ता उपेन्द्र जी हमारे ही उत्पाद है ,, उसका खंडन भी कभी कही नहीं किये ! आखिर उस समय से आज तक धोखे में पड़ रही मधेसी जनता को इसका प्रतिफल आज लगभग २०० शहीदों की बलिदानी , १५०० लोगो को घाईते और २००० से भी अधिक लोगो को कारगर बंदी बनाकर मुद्दे को २०६३ के ही स्थान पर खड़ा कर रफूचक्कर हो गए ! मधेस आज अलग तिराहे पर खड़ा है ! अब फिर से एक नया सोच के लिए बाध्य हो गया है ! आज हमारे इन्ही में से सत्ता समर्पण और मुद्दा विसर्जन की एक लम्बी दीवार सामने खडी हो गयी है ! पहले संबिधान सभा तक तो बहुत अच्छा न कहे फिर भी कुछ एकता और कुछ मुद्दों पर एक थे , और कुछ हद तक सुधार भी हुवा था ! लेकिन दूसरे संबिधान सभा के बाद जो रहा सहा उधर और बाचा में मिला भी था वो भी एकाएक रद्दी की टोकरी में चला गया ! आज उन शहीदों की बलिदानी की याद सताती है और इसी याद की उपलब्धी कहनेवाले कुछ ठेकेदारों ने आप और हमको अषाढ़ १४ गते के निर्वाचन के मतदान में बाध्यकारी बना दिए ! जरा सोचे इसका दोष तो हम सभी के भाग में तो है ही , फिर भी प्रमुख दोषी कौन ? आज भौतिकीय लडाई तो उनसे नहीं कर सकेंगे , मगर १४ गते की लडाई या उसके बाद २ न. में होने वाली लडाई में गोप्य रूप में ही सही एक एक से उनके समर्थक सहित से चुन चुन कर हिसाब बराबर करने का और उन्हें समाप्त करने का एक छोटा अवसर जरुर मिला है , खुलकर प्रयोग करे ! इसी पर आज मिझे एक फिल्म की पुरानी दो लाइन याद आ रही है जो इस तरह गुनगुनाकर कर भी यादो को ताजा कर सकते है ……..? “ न कोई अपनी मंजिल है , न कुछ अपना ठेगाना है ,, शिवा किस्मत पे रोने का न शायद मुस्कराना है ! थे साथी हमशफर जितने , कहा से वे कहा गए ,, मगर अपनी कशफ़ की जिन्दगी में आशियाना है !! चला था सोच के घर से , न खाली हाथ आयेंगे , मगर देखा इधर नाकामियों का शामियाना है !! धन्यवाद !!! २०७४/३/१३ गते !