जबतक भुमि को आजाद न कर लूँ मधेश माँ के लिए बहु नहीं लाउंगा :रामेश्वर प्रसाद सिंह
रामेश्वर प्रसाद सिंह(रमेश) दुर्गापुर-3, सिरहा(मधेश) | हमारी अधुरी कहानी – प्रेम ! मातृभूमि प्रेम ! हाँ, हाँ, मातृभूमि प्रेम !
क्या हैं यह मातृभूमि प्रेम ? दुनिया की हर नशा से ज्यादा मदहोश बनाने बाला एवं गाँजा की नशा से भी अधिक अपने पथ पर अटल रहे अपनी मातृभूमि रक्षार्थ हेतु, ऐसा संकल्पवान बनाने बाला स्थाई नशा हैं मातृभूमि प्रेम। अपने प्राण से भी अधिक अपनी जमिंर ही प्यारा लगना हैं मातृभूमि प्रेम। उन्के लिए अपना प्राण भी त्यागना पड़े तो संकोच न मानना हैं मातृभूमि प्रेम। इस जहान में हर किसी को नशिब नहीं हैं ऐसा प्रेम और जिन्हें नशिब हैं, आसानी से झेल पाता नहीं यह प्रेम।
मैं रामेश्वर प्रसाद सिंह उर्फ रमेश ऐसा शख्स हुँ जिन्हें नशिब ए इबादत हैं यह प्रेम। विक्रम संवत् 2072 असार में ईन्जिनियररिङ् करने के बाद जिंदगी ने एक अजब मोड़ लिया। जिंदगी में जिन्हें राजनीति से कुछ लेना देना नहीं था वह व्यक्ति अपनी मातृभूमि मधेश को आजाद कराने हेतु गांधी बनने को आतुर हो गया। विक्रम संवत् 2068 से मैं किसी की बेसुमार प्यार में पड़ गया था। उन्हें नसीब बाले या बद-नशिब बाले कहे, उनकी नाम हैं “ममता”। हम लोग एक दुसरे से बेहद प्यार करते थे किंतु उनकी परिवार जन को यह मंजुर नहीं था और वे बोले की ममता की शादी सिर्फ सरकारी नौकरी वाले से करेंगे।। इसिलिए ममता की जिद्द में न चाहते हुए भी नेपाल सरकार की नौकरी हेतु मैं लोक सेवा आयोग की परीक्षा की तैयारी करने लगा किंतु कुछ दिन बाद फिर से मेरी अन्तर-आत्मा ने मुझे धिक्कारने लगा की मेरा जन्म तो मधेश माँ की कल्याण हेतु हुआ हैं और जिस साम्राज्य के खिलाफ हमें होना चाहिए उसीके नौकरी हेतु मैं आतुर क्यों हुँ ? आर्थिक भार पड़ने की वजह से मुझे बिदेश जाना पड़ा मधेश माँ की प्यार ने हमें एक माह मे ही वापस बुला लिया। बिदेश से आने के बाद मैं दिलों-जान से मधेश स्वराज आन्दोलन में फिरसे सक्रियता बढ़ा दिया। कुछ दिन बाद ममता की भी शादी हो गयी क्यों की मैं जबलेश और गरिब हुँ और उनकी परिवारजनों को तो उनके नौकरी चाहिए जिन्होंने दो शौ वर्षों से मधेश को गुलाम बनाए बैठा हैं। ऐसा नहीं हैं की मैं लोक सेवा में नाम न निकाल सकु किंतु एक व्यक्ति की प्यार हेतु न मैं अपने जमिंर को मारना चाहा नाही अपनी मात्रिभुमि की नजर में कपुत बन्ना चाहा। यही तो परीक्षा की घड़ी होती हैं एक स्वतंत्रता सेनानी की। अभी आके मुझ पर एक भार पड़ गया हैं। आर्थिक स्थिति नाजुक होने की वजह से मुझे कमाने के लिए दबाब पड़ रहा हैं और नेपाली साम्राज्य में किसी नेपाली के तले काम करने को मेरी जमिंर मुझे इजाजत नहीं देता। परिवारजनों यह भी बोल रहे हैं की मैं शादी करलु जिसे मेरे उपर परिवार वंधन बढ़ जाए और मैं सिर्फ निजी जिंदगी में व्यस्त होकर एक यान्त्रिकि जीवन व्यतीत करने में तल्लिन हो जाउ किंतु मुझे यह लगता हैं कि जब मेरी माँ ही आजाद रुपसे मेरी शादी में उपस्थित ना हो तो मैं शादी कैसे कर सकता हुँ। सिर्फ जन्म देने वाले ही तो माँ नहीं होते, अपितु पैदा होते ही अपनी सिने पर स्थान देने वाले मातृभूमि भी तो माँ होती हैं। एक पुत्र की माँ की खुशी हेतु सावा करोड़ मधेशीयों की साझा माँ को ठेस पहुँचाऊ, यह कैसा इन्साफ होगा ? इस घड़ी में क्या मैं अटल रह पाउँगा ? क्या मैं माँ, माटी और मधेश की प्रेम को निभा पाउँगा ? अपनी प्रेमीका की प्यार तो पा न सका तो क्या हुआ मधेश माँ की सामने अपना सिना गर्व से तान पाउँगा ? अपनी प्रेमिका की नजर में तो हारा हुआ इन्सान साबित हो गया क्योंकी उनकी परिवारजनों को राजी कर उसे अपना नहीं सका किंतु क्या मधेशीयों की पहचान को एक वीर के भाँती दुनिया में दिखा पाउँगा ? क्या इतना बोझ तले मैं साहसी बन खड़ा रह पाउँगा ? इन सभी सवाल की जवाफ ढुंडे बगैर ही बता दिया आप सभी को हमारी अधुरी कहानी क्यों की क्या पता कल हो ना हो। नफरत कि आग मन से मिटाकर प्यार और सद्भाव की दिया जलाकर। चलो मधेशी कदम से कदम मिलाकर मधेशी चुमेगी गगन जमकर। जब लेना हैं आजादी मधेश की तो उठालो शस्त्र शान्ति और प्यार की। नफरत से नहीं जीती जा सकती एक इन्सान को पर प्यार से जित लेते हैं पुरी जग को। बुद्ध की भुमि हैं यह शान्ति और प्यार को लेकर चलेंगे हम शस्त्र हमेशा प्यार की। सिता की नैहर हैं यह प्रतिक सद्भाव की दुश्मन को भी बदलते हैं हम लेकर शस्त्र गुण की। ऋषि मुन्नी की कर्म स्थल हैं यह प्रतिक नैतिकता की हम हमेशा परिचित रहेंगे नैतिकवान भाव की। अंत में अपना कलम बंद करने से पहले मैं यह बता दुँ की जब तक प्राण हैं तो निर्भय और निसन्देह रुपसे मधेश माँ की सेवा करुंगा और जब तक इस भुमि को आजाद न करलु तब तक मधेश माँ के लिए बहु नहीं लाउंगा।