जब तलक है जिन्दगी…मैं अपने जन का साथ हूँ : बृषेश चन्द्र लाल
कोई नाथ नहीं अनाथ हूँ
ये मेरा मन है मेरा तन
मैं अपने जन का साथ हूँ।
जो छिन गया सो छिन गया
जा शून्य में न मिल गया
जहाँ में कुछ मिला तो क्या
जब अन्त शून्य में सिल गया।
वजूद भी शून्य है
सब शून्य है वजूद का
वजूद से बना भी तो
शून्य नहीं तो और क्या ?
जब तलक है ज़िन्दगी
मैं ज्योति ही जलाऊँगा
शून्य तो प्रकाश भी
पर अंधेरा मैं भगाऊँगा
जानता ‘मैं’ कुछ नहीं
पर अधीन को थर्राऊँगा
लय रहे यही मेरी
संगीत यही बजाऊँगा
संगीत यही बजाऊँगा !
संगीत यही बजाऊँगा !!
जब तलक है जिन्दगी
कोई नाथ नहीं अनाथ हूँ
ये मेरा मन है मेरा तन
मैं अपने जन का साथ हूँ !