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बैल बीमार नहीं पड़ा है उसकी सरकारी नौकरी कन्फर्म हो गई है : अजय कुमार झा


अजय कुमार झा, जलेश्वर | मुझे एक कहानी याद आ रही है। एक आदमी ने रास्ते से गुजरते वक्त, एक खेत में एक बहुत मस्त और तगड़े बैल को काम करते हुए देखा। वह पानी खींच रहा है और बड़ी शान से दौड़ रहा है। उसकी शान देखने लायक है। और उसकी ताकत, उसका काम भी देखने लायक है। वह जो आदमी गुजर रहा था, बहुत प्रशंसा से भर गया, उसने किसान की बहुत तारीफ की और कहा कि बैल बहुत अदभुत है।
छह महीने बाद वह आदमी फिर वहां से गुजर रहा था, लेकिन बैल अब बहुत धीमे-धीमे चल रहा था। जो आदमी उसे चला रहा था, उससे उसने पूछा कि क्या हुआ? बैल बीमार हो गया? छह महीने पहले मैंने उसे बहुत फुर्ती और ताकत में देखा था! उस आदमी ने कहा कि उसकी फुर्ती और ताकत की खबर सरकार तक पहुंच गयी और बैल को सरकार ने खरीद लिया है। जब से सरकार ने खरीदा है तब से वह धीमा चलने लगा है,पता नहीं सरकारी हो गया है।
छह महीने और बीत जाने के बाद वह आदमी फिर उस जगह से निकला तो देखा कि बैल आराम कर रहा है। वह चलता भी नहीं, उठता भी नहीं, खड़ा भी नहीं होता। तो उसने पूछा कि क्या बैल बिलकुल बीमार पड़ गया, मामला क्या है ? तो जो आदमी उसके पास खड़ा था उसने कहा, बीमार नहीं पड़ गया है, इसकी नौकरी कन्फर्म हो गई है, अब यह बिल्कुल पक्का सरकारी हो गया है, अब इसे काम करने की कोई भी जरूरत नहीं रह गई है।
बैल अगर ऐसा करे तब तो ठीक है, आदमी भी सरकार में प्रवेश करते ही ऐसे हो जाते हैं। उसके कारण हैं,व्यक्तिगत सोंच। अब अपना भविष्य सुनिश्चित हुआ अतः दूसरों के लिए परिश्रम करने की जरुरत क्या है ? क्योंकि अब अतिरिक्त व्यक्तिगत लाभ की संभावना है नहीं और व्यक्तिगत हानि की कोई बात ही नहीं है। फिर कार्य करने की प्रेरणा ही समाप्त हो जाती है। सारे सरकारी दफ्तर, सारा सरकारी कारोबार मक्खियां उड़ाने का कारोबार है।
पूरे मुल्क की सरकार नीचे से ऊपर तक आराम से बैठी हुई है। इन्हें दफ्तर में गप मारने और साम को रेस्टुरेंट में सराब-कबाब डूबने के अलाबा और कोई काम है ही नहीं।हम देश के सारे उद्योग भी इनको सौंप दें! तो ए उसको डुबोए बिना नहीं छोड़ेंगे। जरा गौर कीजिए; जनकपुर सिकरेट फैक्ट्री, हेटौडा कपड़ा उद्योग,त्रिभुवन विश्वविद्यालय,जनकपुर क्याम्पस,ए सब के सब कैसे धाराशायी हो गए? इसका जिम्मेवार कौन? साझा बस यातायात कहाँ चाला गया? आप जिधर देखें वही पर सरकारी संस्थाएं लाचार और मरियल नजर आएँगे। सरकारी विद्यालय के शिक्षक और शिक्षार्थी दोनों की दिनहिनता दया के लायक है। सरकार का लगानी किसी भी निजी संस्था के तुलना में 50 गुणा अधिक होते हुए भी उपलब्धि निराशाजनक है। अधिकाँश निकम्मे,काहिल,चापलूस और भ्रष्ट लोग सरकारी दफ्तर को कब्जा किए हुए है। सरकारी हास्पिटल के डाकटर,कर्मचारी और अन्य अवस्था से कौन अपरिचित होगा! सरकारी अस्पताल में प्राण की आहुति देनी होगी तो उधर निजी अस्पताल में संपत्ति लुटाने होंगे। फिर सरकार मौन क्यों है? क्या सरकार को दिखाई नहीं देती? देगी भी कैसे! कर्मचारी बैल जो ठहरा। मैं माननीय प्रधान मंत्री ओली जी से हार्दिक निवेदन करना चाहता हूँ; की आप इन पशुओं को कबतक झेलेंगे? इन्होने सोच रखा है की “हम तो डूबेंगे सनम,तुझे भी ले डूबेंगे”। याद रहे इन्हें न राष्ट्र से लेना देना है न समाज से प्रेम है। अतः सभी कर्मचारी अस्थायी ही रहे। कार्य क्षमता और तीब्रता के आधार पर इनका तलबमान निर्धारण की वैज्ञानिक व्यवस्था हो।विद्यालय तथा विश्वविद्यालय के सभी अध्यापक और प्राध्यापक को घंटी के आधार पर वेतन निर्धारण हो। ज्यादा से ज्यादा संस्थाओं निजीकरण की ओर ले जाया जाय। अबतक के जिस जिस कार्यालय प्रमुख के कार्यकाल में संस्थाएँ कमजोर हुए हैं। उन अधिकारियों से भरपाई लिया जाय। और देस को कमजोर करने का महाभियोग लगाया जाय। आज निजी स्कुल और बसें सभी सरकारी स्कूलें और बसों से अधिक सुविधायुक्त है। सुरक्षित है। भरोसेमंद है। और वह नाफा भी कमा रहा है। सोचनेवाली बात यह है की निजी संस्थाओं में सरकार की लगानी शून्य होता है। उल्टे निजी कंपनी सरकार को कर भी बुझाता है। फिर भी वह फायदे मे है। और हमारे देस विदेस से तालीम प्राप्त अधिकारी लोग जिस संस्था को छू देते हैं। वही ध्वस्त हो जाता है। अतः निजीकरण को बढ़ावा देते हुए उसका निरिक्षण परीक्षण प्रक्रिया को पारदर्शी और वैज्ञानिक बनाना होगा। सरकार का काम सिर्फ सुपरिवेक्षण मात्र रह जाएगा। बांकी उत्पादन और उपयोगिता का काम निजी कंपनियों के जिम्मे रहेगा। जादातर सरकारी कार्यालय,अस्पताल,यातायात,संचार,कृषि,विद्यालय,महाविद्यालय और उद्योगों को आधुनिक वैज्ञानिक सरकारी मानदंड के आधार पर ठेका देकर उसे कड़ाई के साथ पालन कराया जाय। देस दिर्फ़ पाँच वर्ष के भीतर उस बुलंदी को छू लेगा जिस के लिए सयों वर्ष से प्रयत्नशील हैं हम। और निचे ही गिरते जा रहे हैं।

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