नेपाल के परराष्ट्र सम्बन्ध का नया संस्करण – उपेन्द्र झा
हिमालिनी, अंक जुलाई 2018 । नेपाल की स्थायी सरकार के मुखिया के.पी.शर्मा ओली भारत के साथ सम्बन्ध सुधारते हुवे आषाढ ५ गते चीन की यात्रा पर निकले । भारत के साथ गहराते नेपाल के रिश्ते की गहराई को चीन की पैनी नजर को माप रही थी । नेपाल के साथ विकसित चीन के सम्बन्ध में औसतन कमी न आ जाय, चीन इसका आकलन बडी चतुराई से कर रहा है । १० वर्षों से चीन के साथ बन रहे नेपाल का सम्बन्ध नाकाबन्दी में चीन की सहानुभूति सहयोग पाकर ठोस रूप लिया और यह अमिट बन गया ।
समृद्धि की विश्व यात्रा पर निकले चीन दक्षिण एशिया के अपने पड़ोसी गरीब देशों का भ्रमण कैसे छोड़ सकता था । चीन ने छोटे तथा गरीब देशों पर सहानुभूति सहयोग डालकर अपने व्यावसायिक, राजनीतिक प्रभाव विस्तार करने हेतु से जो सम्बन्ध बनाना शुरु किया है, यह भारत के लिए सिरदर्द सा महसूस हो रहा है । दक्षिण एशिया में भारत के प्रभाव को संकुचित करने और अपने प्रभाव को बढाने का प्रयास दोनों महाशक्ति देशों को जीत हार के प्रतिस्पर्धी के रूप में खडा कर दिया है । हाँलाकि दोनों मैत्री सम्बन्ध बढाने के लिए आतुर तो दिखाई दे रहे हैं, किन्तु पाश्र्व की नीयत जीत हार की ही है । दक्षिण एशियाली देशों की गरीबी का फायदा उठाते हुए चीन आर्थिक सहयोग के माध्यम से अपना प्रभाव जमाते हुए जिस तीव्रता से आगे बढ़ रहा है इन छोटे देशों का चीन के प्रभुत्व में डूब जाने का खतरा है । एक की बढोत्तरी दूसरे का संकुचन मित्रता नहीं शत्रुता है ।
एक पक्षीय रूप में सदियों से भारत के प्रभाव में रह रहे नेपाल की अरुचि नये सम्बन्ध की खोज में आगे बढ रही थी । चीन ने हाथ बढ़ाया और नेपाल ने बड़े अपनत्व भाव से उसका दामन थाम लिया । फलतः कूटनीतिक सम्बन्ध मैत्री सम्बन्ध में गहराता चला गया । गरीब देशों को सहयोग का स्वार्थ और चीन को आगे बढ़ने की लालसा का मिलन इस कदर हुआ कि नेपाल भारत के साथ का परम्परागत सम्बन्ध को भी भूल गया । भारत के साथ नेपाल का सम्बन्ध अब कूटनीतिक सम्बन्ध तक ही सीमित रह गया ।
पिछले कुछ वर्षों से नेपाल भारत सम्बन्ध तनावपूर्ण बनता गया । कारण जो भी हो, इस तनाव को लम्बा खींचकर तत्कालीन एमाले अध्यक्ष के.पी.शर्मा ओली ने राजनीतिक प्रतिष्ठा हासिल की । भारत के विरोध में नेपाली जनता को संगठित कर चुनाव में अटूट विश्वास हासिल किया और दो तिहाई की सशक्त सरकार नेपाल कम्युनिष्ट पार्टी बना ली । नेपाली राजनीति में चीन की सक्रियता और भारत का पीछे हटना नेपाल सरकार की बहुत बड़ी उपलब्धि है । सदियों से नेपाल पर रहे भारत के प्रभाव के अनुपात में भारत की सक्रियता न होने के कारण नेपाल का चीन के साथ सम्बन्ध बनता चला गया । चीन के सक्रिय सम्बन्ध को पाकर तत्कालीन एमाले पार्टी ने चुनाव में अप्रत्याशित जीत हासिल की । माओवादी से एकीकरण कर दो तिहाईवाली सशक्त सरकार बनाने का श्रेय के.पी.शर्मा ओली को ही जाता है । इतिहास मे पहली बार नेपाल कम्युनिष्ट पार्टी की सशक्त सरकार बनाकर के.पी.शर्मा ओली ने युग नायक के रूप में उभरने का सौभाग्य प्राप्त किया है ।
भारत के साथ सम्बन्ध सुधार कर चीन यात्रा पर निकले नेपाल के प्रधानमन्त्री ने चीन के साथ रेलमार्ग, उर्जा, सड़क, बिजली, क्रस बोर्डर प्रसारण लाइन, विद्यालय पुनर्निर्माण, नदी नियन्त्रण, कृषि आदि क्षेत्र में आर्थिक सहयोग करने का सम्झौता पत्र में हस्ताक्षर किया है । कोशी आर्थिक कोरिडोर, गण्डकी आर्थिक कोरिडोर और कर्णाली आर्थिक कोरिडोर निर्माण सम्बन्धी सहमति महत्वपूर्ण माना गया है । इस समझौते का सबसे आकर्षण रेलमार्ग, सड़क सञ्जाल और क्रास बोर्डर प्रसारण लाइन के विस्तार को माना गया है । चीन के साथ वैकल्पिक मार्ग खुल जाने से भारत के उपर की परनिर्भरता में कमी आने का आकलन प्रधानमन्त्री ने किया है ।
भारत पक्षीय विश्लेषकों का मानना है कि नेपाल के प्रधानमन्त्री जहाँ टोकरी भर के सम्झौता के लिए प्रस्ताव ले गये थे, सीमित विषयों पर ही सम्झौता हो पाया । रेल का सम्झौता हुआ भी तो ४, ५ साल से पहले बनने की सम्भावना नहीं है । केरुङ्ग–काठमाण्डौ–पोखरा–लुम्बिनी रेलमार्ग के प्रस्ताव को काट कर सिर्फ केरुङ्ग–काठमाण्डौ रेलमार्ग बनाने का सम्झौता होना कोई मायने नहीं रखता । तातोपानी सड़क खोलने के प्रस्ताव को १ साल के लिए आगे धकेल दिया गया है । भारत के साथ मैत्री सम्बन्ध को ध्यान में रखते हुए चीन ने नेपाल के साथ समझौता करने के लिए संयम बरता है । नेपाल की अपेक्षा को पूरा करना आवश्यक नहीं समझा और मृगतृष्णा में नेपाल को उलझा कर रखा आदि आदि विश्लेषण से आत्मतुष्टि तो होती है, किन्तु यह विश्लेषण सच्चाई से कोसों दूर है ।
विगत के दिनों में भारत के प्रति रुष्टता रखनेवाले नेपाल के प्रधानमन्त्री के.पी.शर्मा ओली जब नेपाल कम्युनिष्ट पार्टी नेतृत्व की सरकार के मुखिया बने, भारत अवरोधक शक्ति न बने इसलिये उन्होंने सम्बन्ध सुधारने की आवश्यकता को समझा । तिक्तता के धरातल पर भारत के साथ सम्बन्ध बनाने की कोशिश में प्रदर्शित “वडी ल्याँग्वेज” और चीन के साथ सम्झौता करने में दिखनेवाली “वडी ल्याँग्वेज” में काफी कुछ अन्तर है । चीन के साथ प्रदर्शित आत्मीयता भारत के साथ कतई नहीं दिख पड़ी । वैकल्पिक मार्ग देनेवाले चीन के साथ नेपाल का आत्मीय सम्बन्ध (जटिल तथा चुनौतीपूर्ण) किस कदर विकास होगा ये तो पता नहीं, किन्तु भारत के साथ निर्वाह करनेवाला दिखावटी सम्बन्ध वर्तमान नेपाल सरकार के हित में नहीं है, ऐसा यहाँ के विद्वतवर्ग का मानना है ।
नेपाल चीन के सम्झौता में नेपाल को चीन ने जितना ही दिया हो, नेपाल के वैकल्पिक मार्ग को खोल दिया है, ये सच्चाई है । नेपाल चीन के गिरफ्त में पहुँच गया है, भारत को सच्चाई के इस कड़वे घूँट को पीना ही होगा । चीन के दूरगामी प्लान ओवीआर का नेपाल अहम् हिस्सा बन गया है इसमें अब कोई शिकायत नहीं रही । केरुङ्ग–काठमाण्डौं रेलमार्ग मात्र देकर ओली को चीन ने टरका दिया है कहकर आत्मतुष्टि करनेवाले को वैकल्पिक मार्ग खुलना दिख नहीं रहा है । अपनी समृद्धि से नेपाल को जोड़कर आगे चलनेवाला चीन त्रिदेशीय व्यापारिक कोरिडोर का विकास कर हिन्द महासागर तक पहुँचने की यात्रा पर आरुढ है । नेपाल चीन सम्झौते में चीन का संयमित दिखाई देना विज्ञों का दृष्टिदोष स्पष्ट दिखाई दे रहा है । रेलमार्ग के सम्झौता से चीन नेपाल के बीच अन्तरदेशीय कनेक्टिभिटी से नेपाल में विकास का युग आरम्भ होने का विश्वास लिया जा रहा है । वैकल्पिक मार्ग खुलने पर नेपाल की सरकार ने अवर्णित खुशियाँ हासिल की है । इस सम्झौते को सरकार ने ऐतिहासिक महत्व का सम्झौता माना है ।
चीन के साथ गहरा सम्बन्ध बनाने के बाद नेपाल की विकसित परिस्थिति में भारत को एडजेस्ट करना ही होगा, नेपाल सरकार की मान्यता है । पहले के जैसा भारत अब नेपाल के प्रति आक्रामक नहीं हो सकता है । चीन के शक्तिशाली सहयोग में भारत को भी नेपाल के साथ नरम व्यवहार रखना ही होगा, इसी सोच से नेपाल की सरकार साहसिक कदम उठाती आयी है । १९ जून को प्रधानमन्त्री का चीन भ्रमण हुआ और २० जून को दिल्ली में नेपाल भारत के कृषि मन्त्रियों के बीच नेपाल में कृषि विश्वविद्यालय स्थापना करने के सम्झौते पर हस्ताक्षर हुआ । नेपाल में दोनों देशों द्वारा आर्थिक सहयोग बढाकर नेपाल को अपने पक्ष में रखने का जो पैटर्न का विकास हुआ, यदि नेपाल सन्तुलित आगे बढे तो बहुत कम समय में नेपाल आत्म निर्भरता के द्वार खोल लेगा ।
नेपाल में बढ रहे चीनियाँ प्रभाव को रोकने की बाध्यता एक ओर है, तो दूसरी ओर नेपाल में क्षीण हुवे भारत के प्रभाव को बरकरार रखने की बाध्यता है । चीन के दक्षिण एशिया में बढते कदम और ओबीआर सञ्जाल को विकसित करने में भारत को बाध्यात्मक रूप से शामिल करने का चीन की नीयत स्पष्ट तो है ही, इस को किस कदर रोका जाय भारत की रणनीति है । भारत के पड़ोसी देशों में चीन के प्रति झुकाव भारत के लिए एक समस्या के रूप में दिखाई पड़ रहा है । आर्थिक सहयोग देकर अविकसित देशों को विकास के मार्ग पर लाने का चीन का प्रयास एक तरफ प्रशंसनीय है तो दूसरी तरफ अपना साम्राज्य फैलाने का मकसद निहित है । विकास की चाह रखनेवाले छोटे देशों को गुलामी की जरा भी चिंता नहीं है, किन्तु चीन के बढ़ते कदम में निहित चीन के प्रपंच को भारत सहज ही भाँप रहा है ।
नेपाल के सन्दर्भ में चीन नेपाल से भारत के प्रभाव को कम करने के नीयत से नेपाल को विकास के जाल में फाँसने का जो जाल बिछाया है, नेपाल में इसका दीर्घकालीन क्या प्रभाव पड़ेगा इससे नेपाल को कोई सरोकार नहीं है । परिणाम के साथ सम्बन्ध न रखनेवाला नेपाल विकास की ओर अग्रसर है तो भारत चीन के बढ़ते प्रभाव से परेशान है । इस बदली परिस्थिति में भारत जहाँ प्रतिरक्षात्मक पंक्ति में जा रहा है, इससे उबरने के लिए भारत को एक नयी सोच, नयी रणनीति, परिष्कृत सम्बन्ध लेकर पड़ोसी देशों के साथ पेश होने की बाध्यता है ।
पड़ोसी देशों में नेपाल अहम् है । नेपाल में भारत विरोधी भावनाओं के मध्य चीन ने जो जाल फेंका है, और अपेक्षा से ज्यादा जो हासिल किया है, उसे फिर से पूर्वावस्था में लाने के लिए भारत की रणनीति में परिवर्तन करना होगा । चीन के साथ बढ़ते कदम से आशातीत सफलता पाने के बाद सरकार में सर्वसत्तावाद की झलक दिखायी पड़ने लगी है । यह लक्षण राजनीतिक सन्तुलन बना रख पायेगा, इस मेंं संदेह दिखाई पड़ रहा है । भारत के साथ आन्तरिक नेपाल की रुष्टता सर्वसत्तावाद की हवा पाकर लहक न उठे, इस बात की शंका भी राजनीति वृत में देखा जा रहा है ।