मंच और माईक : जैसे प्रेमी अाैर प्रेमिका
व्यग्ंय बिम्मी कालिंदी शर्मा

मंच और माईक की दोस्ती शोले फिल्म के बीरु और जय की तरह तगडी है । इन दोनो के बीच जुगलबंदी कराने का काम करते है मंच में आसीन हो कर माईक को थामने वाले । पर मंच पर चढने वाले माईक को इस तरह पकड़ लेते हैं जैसे कि अपनी प्रेमी या पे्रमिका की कलाई हो । पकड लेते हैं पर छोड़ना भूल जाते है । यह भी भूल जाते हैं कि और भी लाईन में है जिन्हे अभी माईक को पकड़ना है । पर मंच पर चढ़ कर माईक को थामने वाले दूसरे वक्ताओं को अपनी सौत समझ लेते हैं इसी लिए उन के हाथ में माईक देना ही नहीं चाहते । उन्हे लगता है मंच उनकी जागीर और माईक उनका खरीदा हुआ गुलाम । इसी लिए मंच पर जाते ही माईक को बड़ी हसरत से निहारने लगते हैं ।
मंच पर दो शब्द बोलने के लिए बुलाया जाता है पर लोग दो हजार शब्द बोल लेते है । लगता है उन के भीतर कुछ उफन रहा है जिसको वह बाहर निकालना चाहते हैं । यदि अभी नहीं निकाला तो यह ज्वालामुखी की तरह अंदर ही दब जाएगा । ईसी लिए लोग मंच पर जाते ही आग उगलने लगते हैं । किसी कवि से मंच पर एक रचना वाचन करने के लिए कहा जाता है पर वह लगे चार और रचना सुना जाता है । इस महंगाई में भी हमारे यहां कविता बहुत सस्ती है इसीलिए तो एक के दाम पर चार और कविता मुफ्त मे सुनने को मिल जाती है । भले ही सुनने वाला उब महसूस करे पर सुनाने वाला पूरे शबाब पर होता है । उसे लगता है मंच एक कुंभ है जहां पर लगे हाथ डुबकी लगा ले ।
मंच पर किसी को बुलायाजाना उस को सम्मानित करना या रचनावाचन करने का मौका मिलना बडे सौभाग्य की बात है । पर ज्यादातर लोग इस सौभाग्य को दूसरों के लिए दुर्भाग्य बना देते है और अपने सम्मानित होने की गरिमा को कायम नहीं रख पाते । आयोजक माथा पीटने लगते हैं कि क्यों बुलाया इस को ? यह तो मंच और माईक को एकलौती संपति समझ रहा है । कोई एक मंच पर रचना वाचन कर रहा है और उसी मंच पर वक्ता को अनदेखी कर के अपनी कृति को विमोचित करवा रहा है, किसी किताब पर साहित्यकार के दस्तखत करवा रहा है या उन के साथ सेल्फी खिंचवा रहा है । उधर कवि भी बडेÞ मनोयोग से माईक थामे अपनी रचना वाचन कर रहा है कोई सुने या न सुने उस की बला से । माईक क्या मिल गया जैसे तिजोरी मिल गई और अपना प्रकाशन संस्था से न छप कर घर लौट आई घटिया साहित्य भी सुना कर श्रोताओं के कान और समय का कबाडा कर दिया ।
आयोजक या कार्यक्रम के सूत्रधार को कभी, कभी इन स्वनामधन्य साहित्यकारों से माईक खींचनी पडती है जैसे कोइ बच्चा चुरा कर ले जाने वाला किडनैपर के हाथों से बच्चा छीनते है । क्यों कि लोगों में सुनने की कम और सुनाने की बीमारी बढ गई है । और यह बमिारी छूत के रोग की तरह सब को अपने संक्रमण में ले रही है । पढने का क्रेज खतम हो रहा है और मंच पर चढ कर अपनी उटपटागं रचना को सुनाने का क्रेज बढ़ रहा है । दूधमूहे कवि भी मंच पर अपने तितर, बटेर जैसे कविता सुना कर जब मंच पर सम्मानपत्र से सम्मानित होता है तब लगता है उस सम्मान पत्र का ही अपमान हो गया । जब किसी कार्यक्रम या साहित्यिक महोत्व में किसी साहित्यकार को बुलाया जाता है तो उस को अपनी ऐसी रचना श्रोताओं को सुनानी चाहिए कि वह वर्षों तक उस कवि और उस की कविता को याद रखे । पर यह क्या यहां तो टायं टायं फिस्स हो गया । जैसे मंच पर चढ कर अपना थोबडा दिखाने के लिए ही आए हैं । बांकी आपकी कविता गई किसी रचना से मिलने । फ्री मे खाने और रहने को मिल रहा है चलो घूम आए की तर्ज पर आ गए और गौमृत कि जगहमंच पर चढ कर गोबर को परोस दिया । अब भुगतो सुनने वालाें और बुलाने वालों ।
नीचे दर्शक दीर्घा में बैठा हुआ हो या मंच पर आसीन कोई अतिथि हर कोई माईक को ऐसे निहारते है जैसे वह प्रेमिका का गेसू हो जिसे वह एक बार प्यार से सहलाना चाहते हैं । पर यह एक बार इतना लंबा हो जाता है कि आयोजक के लिए यह अतिंम बार हो जाता है । वह तौबा करने लगता है । पर मंच और माईक की दोस्ती को कोई तोड्ना नहीं चाहता । हर कोई की यह हसरत होती है कि जीवन में कम से कम एक बार भी मंच पर पैर रखने को मिल जाए और माईक हाथ में आ जाए । कसम से माईक को गोद ले लूंगा और वश चले तो अपनी रचनाओं की बाढ़ मंच पर लादूँगा । भले ही श्रोता गण कुर्सी फेंकने लगे या उसी माईक से सिर फोड दे पर माईक से प्रेम कम नहीं होगा ।