कभी दिखती पहेली अनसुलझी, कभी लगती खुली किताब सी : गणेश लाठ
२४ अगस्त

बुरा न माने तू गर तो कहु
एक बात है हलक में फांस सी
बातें करती तू ज्ञानी सयानी सी
फितरत क्यू तेरी बेगानी सी ।
कभी दिखती पहेली अनसुलझी
कभी लगती खुली किताब सी ।
कभी सताती कभी सहलाती
कभी रुलाती कभी गुदगुदाती ।
तेरे रूप अनेक, रंग अनेक
तेरे घर अनेक, घाट अनेक
कभी दिखती निर्दोष नादान सी
कभी लगती शातिर शैतान सी ।
लाख कर ले जतन
सुहाती नहीं मुँह पर तेरे
बाते उसूल व ईमान की
फरेबी है तू
फिर भी लगती मुझे प्यारी
तुही बता जिन्दगी क्यूं है तू ऐसी