हम अब तो बस लहू का व्यापर करेंगे, अभी तो चुनावी मौसम का इंतज़ार करेंगे : सुजीतकुमार ठाकुर
क्या बेशरम हैं हम ?
कल्ह तक जिस बात से थे नाराज
होगई सुलह,कोई शिकवा न आज
वह नाराजगी दिखाने का दौर था
बस अन्तर्निहित स्वार्थ कुछ और था
झुण्ड में सड़कें हमने खूब गरमाई थी
लोगों के साथ नारे भी खूब लगाईं थी
प्रतियां संविधान की जलाई भी थी
न झुकेंगे कभी ऐसी कसमें खाई भी थी
महीनो सीमाओं पर की पहरेदारी भी
सत्तासिनो को हम ने की खबरदारी भी
भीतर से लेकिन करते रहे गद्दारी भी
कुर्सीपर चढ़ने की ख्वाहिश हमारी भी
अब भाई हम तो भूल ही गए क|ला दिन
आप भी निकालो दिमाग से भावना हीन
हम अब तो बस लहू का व्यापर करेंगे
अभी तो चुनावी मौसम का इंतज़ार करेंगे
हम आएँगे आप के पास फिर से राग छेड़ेंगे
आंदोलनों में लगे जख्मो को फिर से कुरेदेंगे
तब संविधान को फिर बुरा भला हम कहेंगे
इस दिन को अमावस की काली रात भी कहेंगे
बस अभी मस्ती करने का समय हैं करने दो
अपनी ख़ाली तिजोरी को मक्कारी से भरने दो
आप को कटवा कुर्सी मिलती हैं ,क्या बेरहम हैं हम ?
अपना स्वार्थ देखते हैं तो क्या बेशरम हैं हम ?
