मृत्यु और जीवन, चिता और चेतना दोनों एक साथ : बिम्मी शर्मा
बिम्मी शर्मा | मृत्यु और जीवन चिता और चेतना दोनों को एक साथ जलते और नृत्य करते हुए देखना है तो इस के लिए काशी के मणिकर्णिका घाट पर आना होगा । जहाँ के विश्व प्रसिद्ध शमसान घाट पर चिताओं के चारों और नगरवधुएं नृत्य करती है । हाल ही में रानी लक्ष्मी बाई के जीवन पर बनी सिनेमा दी क्विन आफ मणिकर्णिका आई थी । पर इस मे उस सच या परपंरा को नहीं दिखाया गया जो साढे तीन सौ साल से अनवरत रुप से चली आ रही है । मणिकर्णिका घाट श्मसान हिदूं धर्म मानने वालों के लिए इसी लिए मशहूर है कि यहां मरने के बाद चिता पर लेटने वाले को सीधे मोक्ष की प्राप्ति होती है। यह दुनिया का वह इकलौता शमशान घाट है जहां चिता की आग कभी ठंडी नहीं होती। यदि कभी ठंडी हो भी जाए तो कुश की चीता बना कर इस आग को जलाते रहना पडता है । नहीं तो ऐसा जन विश्वास है कि यहां अनर्थ हो जाएगा । यहां पर लाशों का आना और चिता का जलना कभी नहीं थमता। लेकिन ज्यादातर लोगों को यह एक बात मालूम नहीं होगी कि खामोश, ग़मगीन, उदास और बीच, बीच में चिताओं की लकड़ियों के चटखने की आवाज के बीच प्रत्येक चैत्र नवरात्र की अष्टमी पर यहां रातभर नगरवधुएं या गणिकाएं आ कर नृत्य करती है। इस श्मासान में अचानक घुंघरु बचने लग जाते है और ढोलक की थाप पर ठमुरी का नाच होने लगता है । मणिकर्णिका घाट में यह एक ऐसी रात है जिसे जश्न की रात माना जाता है । इस रात भारत भर की नगरवधूएं यहां आती है नाचती है ।
इस एक रात में इस शमसान पर एक साथ चिताएं भी जलती हैं और घुंघरुओं और तेज संगीत के बीच ईन नगरवधुओं के कदम थिरकने लगते हैं। ईन नगरवधुओं का जलती चिता के बीच साल में एक दिन नाचने का भी एक कारण है । चैत्र नवरात्रि की अष्टमी को हर साल नाचने वालस् यह नगरवधुए ३ सौ ५० साल पुरानी परम्परा का अभी मान कर निर्वाह करती आई हैं । ईस परम्परा में नगरवधुएं पूरी रात यहां जलती चिताओ के पास नाचते और थिरकते हुए साल में एक बार एक साथ चिता और महफिल दोनों का ही गवाह बनता है काशी का यह बिश्व प्रसिद्ध मणिकर्णिका घाट। जिस को शमसान का भी शमशान अर्थात महा शमसान माना जाता है । चैत्र नवरात्रि अष्टमी को सजने वाली यह एक ऐसी महफ़िल है जो जितना डराती है उससे कहीं ज्यादा हैरान करती है अपने उस सच से । नगरवधू द्धारा की जाने वाली नृत्य की यह महफिल यहां तीन रात चलती है । आश्चर्य कि बात है कि अभी तक ईस विषय में न कोई फिल्म बनी, न डाक्यूमेंट्री न कोई फिचर ही लिखा गया इस के बारे में । जब कि यह एक कौतुहलता जगाने वाला और विस्मित करने वाला विषय है । जहां जीवन का अंत और शुरुवात एक ही घाट पर होता है । दरअसल चिताओं के करीब नाच रहीं लड़कियां शहर की बदनाम गलियों की नगरवधु होती हैं। कल की नगरवधु यानी आज की गणिका (वैश्या) । पर इन्हें ना तो यहां जबरन लाया जाता है ना ही इन्हें पैसे दे कर बुलाया गया है। काशी के जिस मणिकर्णिका घाट पर मौत के बाद मोक्ष की तलाश में मुर्दों को लाया जाता है वहीं पर ये तमाम नगरवधुएं जीते जी खुद को मोक्ष दिलाने या मोक्ष हासिल करने के लिए आती हैं। वो मोक्ष जो इन्हें अगले जन्म में नगरवधू ना बनने का बिश्वास दिलाता है। इन्हें यकीन है कि अगर ईस एक रात यह जी भरके यूंही ही नाचेंगी तो फिर अगले जन्म में इन्हें नगरवधू बन कर पैदा नही होना पडेगा न नगरवधू का कलकं का टीका इन के माथे पर लगेगा । सैकड़ों साल पुरानी यह परम्परा राजा मान सिंह द्वारा बनाए गए बाबा मशान नाथ के दरबार में कार्यकम पेश करने के लिए उस समय के जाने, माने नर्तकियों और कलाकारों को बुलाया गया था लेकिन चूंकि ये मंदिर शमसान घाट के बीचों बीच मौजूद था, इसी लिए तब के चोटी के तमाम कलाकारों ने यहां आकर अपने कला का जौहर दिखाने से इनकार कर दिया था। तब फिर नगरवधुओं को बुलाया गया । राजा मान सिंह नें नृत्य के इस कार्यक्रम का ऐलान पूरे शहर में करवा दिया था । अब वो अपनी बात से पीछे नहीं हट सकते थे। लेकिन तब बात यहीं रुक गई कि इस महा शमसान के बीच नृत्य करने आखिर आए तो आए कौन ? इसी उधेड़बुन में जब किसी को कोई उपाय नहीं सूझा तो ये फैसला लिया गया कि शहर की बदनाम गलियों में रहने वाली नगरवधुओं को इस मंदिर में नृत्य करने के लिए बुलाया जाए। यह उपाय काम कर गया और नगरवधुओं ने यहां आकर इस महा शमशान के बीच नृत्य करने का निमंत्रण स्वीकार कर लिया। यह परंपरा तभी से चली आ रही है। पूरे देश भर से यहां आने वाली कोई भी नगर वधु रात भर नृत्य कर के भी किसी से कोई पैसा नहीं लेती बल्कि मन्नत का चढ़ावा अर्पित करके जाती है। पर समय बीतने के साथ ही इस ३ सौ ५० साल पुरानी परंपरा में भी विकृति आ चुकी हैं । काशी के एक स्थानीय वासी मदन यादव का कहना है कि इस नृत्य में अश्लीलता का रंग चढ चुका है । सिनेमाई गाना, बजाना और हावभाव के कारण जलती चिता के पास नृत्य की यह परपंरा भी सिनेमा की तरह होने से दुखी है यादव । वहीं बहुत बार ईस नृत्य का रसास्वादन कर चुके गणेश मिश्रा कहते हैं कि यह एक पुरानी और जीवंत परपंरा है जिसे देखना और महसुस करना सब के लिए जरुरी है । जलती चिता के अगल, बगल में नृत्य करती नगरवधुएं नृत्य देखने आने वाली सभी को यही बताती और अपने हावभाव से यही जताती हैं कि जीवन क्षणभगुंर है और यह क्षणभगुंरता का शोक नृत्य करके मनाना चाहिए । क्योंकि मृत्यु भी एक उत्सव और जीवन का अतिंम सत्य और पडाव है । क्योंकि मणिकर्णिका घाट के महा शमसान चिता पर लेट कर ईसान का जीवन हमेशा के लिए विश्राम ले लेता है ।