कह रहे हैं अहल-ए-सिफ़ारिश मुझसे ‘दाग़’ तेरी किस्मत है बुरी हम क्या करें
उर्दू के प्रसिद्द कवियों में से एक कवि दाग देहलवी जिनका वास्तविक नाम नवाब मिर्ज़ा खान दाग़ था उनका जन्म सन् 1831 में दिल्ली में तथा उनकी मृत्यु फालिज की वजह से सन् 1905 ई. में हुई थी | इन्होने जौक़ को अपना गुरु बनाया जिन्होंने इन्हे उर्दू भाषा की शिक्षा उच्च स्तर पर दी वहां से ही इन्होने कविताएँ करना प्रारम्भ कर दिया था | दाग़ देल्हवी जी ने अपने जीवनकाल में कई प्रकार की रचनाये की थी जिसमे से कुछ रचनाओं में से शेरो शायरियो के बारे में हम आपको बताते है जो की आपके लिए काफी महत्वपूर्ण है जिसे आप अपने दोस्तों के साथ शेयर भी कर सकते है |
अजब अपना हाल होता जो विसाल-ए-यार होता
कभी जान सदक़े होती कभी दिल निसार होता
न मज़ा है दुश्मनी में न है लुत्फ़ दोस्ती में
कोई ग़ैर ग़ैर होता कोई यार यार होता
ये मज़ा था दिल्लगी का कि बराबर आग लगती
न तुम्हें क़रार होता न हमें क़रार होता
तेरे वादे पर सितमगर अभी और सब्र करते
अगर अपनी जिन्दगी का हमें ऐतबार होता
ग़ज़ब किया, तेरे वादे पे ऐतबार किया
तमाम रात क़यामत का इन्तज़ार किया
हंसा हंसा के शब-ए-वस्ल अश्क-बार किया
तसल्लिया मुझे दे-दे के बेकरार किया
हम ऐसे मह्व-ए-नज़ारा न थे जो होश आता
मगर तुम्हारे तग़ाफ़ुल ने होशियार किया
फ़साना-ए-शब-ए-ग़म उन को एक कहानी थी
कुछ ऐतबार किया और कुछ ना-ऐतबार किया
ये किसने जल्वा हमारे सर-ए-मज़ार किया
कि दिल से शोर उठा, हाए! बेक़रार किया
तड़प फिर ऐ दिल-ए-नादां, कि ग़ैर कहते हैं
आख़िर कुछ न बनी, सब्र इख्तियार किया
भुला भुला के जताया है उनको राज़-ए-निहां
छिपा छिपा के मोहब्बत के आशकार किया
तुम्हें तो वादा-ए-दीदार हम से करना था
ये क्या किया कि जहाँ के उम्मीदवार किया
ये दिल को ताब कहाँ है कि हो मालन्देश
उन्हों ने वादा किया हम ने ऐतबार किया
न पूछ दिल की हक़ीकत मगर ये कहते हैं
वो बेक़रार रहे जिसने बेक़रार किया
कुछ आगे दावर-ए-महशर से है उम्मीद मुझे
कुछ आप ने मेरे कहने का ऐतबार किया
काबे की है हवस कभी कू-ए-बुतां की है
मुझ को ख़बर नहीं मेरी मिट्टी कहाँ की है
कुछ ताज़गी हो लज्जत-ए-आज़ार के लिए
हर दम मुझे तलाश नए आसमां की है
हसरत बरस रही है मेरे मज़ार से
कहते है सब ये कब्र किसी नौजवां की है
क़ासिद की गुफ्तगू से तस्ल्ली हो किस तरह
छिपती नहीं वो जो तेरी ज़बां की है
सुन कर मेरा फ़साना-ए-ग़म उस ने ये कहा
हो जाए झूठ सच, यही ख़ूबी बयां की है
क्यूं कर न आए ख़ुल्द से आदम ज़मीन पर
मौजूं वहीं वो ख़ूब है, जो शय जहाँ की है
उर्दू है जिसका नाम हमीं जानते हैं ‘दाग़’
हिन्दुस्तां में धूम हमारी ज़बां की है
तुम्हारे ख़त में नया इक सलाम किस का था
न था रक़ीब तो आख़िर वो नाम किस का था
वो क़त्ल कर के हर किसी से पूछते हैं
ये काम किस ने किया है ये काम किस का था
वफ़ा करेंगे ,निबाहेंगे, बात मानेंगे
तुम्हें भी याद है कुछ ये कलाम किस का था
रहा न दिल में वो बेदर्द और दर्द रहा
मुक़ीम कौन हुआ है मुक़ाम किस का था
न पूछ-ताछ थी किसी की वहाँ न आवभगत
तुम्हारी बज़्म में कल एहतमाम किस का था
हमारे ख़त के तो पुर्जे किए पढ़ा भी नहीं
सुना जो तुम ने बा-दिल वो पयाम किस का था
इन्हीं सिफ़ात से होता है आदमी मशहूर
जो लुत्फ़ आप ही करते तो नाम किस का था
तमाम बज़्म जिसे सुन के रह गई मुश्ताक़
कहो, वो तज़्किरा-ए-नातमाम किसका था
गुज़र गया वो ज़माना कहें तो किस से कहें
ख़याल मेरे दिल को सुबह-ओ-शाम किस का था
अगर्चे देखने वाले तेरे हज़ारों थे
तबाह हाल बहुत ज़ेरे-बाम किसका था
हर इक से कहते हैं क्या ‘दाग़’ बेवफ़ा निकला
ये पूछे इन से कोई वो ग़ुलाम किस का था