यह स्पष्ट है कि मधेश नेपाली राज्य का सबसे बडा सरदर्द है : कैलाश महतो
कैलाश महतो, पराशी | अभी नेपाल की राजनीति में अलौकिक दृश्यावलोकनें देखने को मिल रहे हैं । सरकारवादी, ओलीवादी, प्रचण्डवादी, राजावादी, राष्ट्रवादी, ज्ञानेन्द्रवादी, रविवादी, शालिकरामवादी, मधेशवादी, सीकेवादी आदि इत्यादिवादियों ने राज्य की राजनीति को गरम करने में मशगूल हैं । राज्य का संचार सेंसर बोर्ड इतना भयभित और चौकन्ना है कि वो लोकतान्त्रिक देश में भी व्यक्ति के विचारों को सम्प्रेषण होने से रोकने में तल्लीन है ।
ब्रिटेन के राजनीति में सन् १६४९ से १६५९ तक चले ऑलिभर और रिचार्ड क्रम्वेलों के प्यूरिटन शासन व्यवस्था ने सच्चरित्रता के नाम पर वहाँ प्रकाशित होने बाले साहित्यों पर सेंसरशिप लगा दी । “राष्ट्रवाद और उच्च चरित्र” क्रम्वेलों का नारा था । उसने शासन में आने से पूर्व देश में पूर्ण लोकतंत्र की दुहाई दी थी । पूर्ण लोकतन्त्र के नारा पर ही उस समय के नामूद साहित्यकार रहे जॉन मिल्टन ने भी क्रम्वेल को खुलकर साथ दिया था । सत्ता में आने के बाद उसने अनेक साहित्यों पर रोक लगा दी । वे अपने को प्यूरिटन ‐बाइबल के अनुसार सच्चा चरित्र के मानते थे । लेखकों के कैयन लेख और साहित्यों पर सेंसरशिप लगाया जाता था । सेंरशिप बोर्ड के अनुमति से ही कोई लेख या साहित्य प्रकाशित होने की कानुन थी यद्यपि क्र्रम्वेल खुद रसरंङ्गी मिजाज के थे । वे अनेक अनैतिक कर्म करते थे । उसके स्वाभाव, कानुन और चरित्र से जॉन मिल्टन समेत हैरान थे । मिल्टन ने उसे अपने Areopagitica ‐एरोपजेटिका नामक संसदीय भाषण के मार्फत सतर्क भी कराया था । मगर वे नशे में थे । जनता नाराज थी । नाराज जनता ने फ्रान्स में शरण लिए चाल्र्स द्वितीय को १६६० में राजा के रुप में पूनः स्थापित किया । उसके बाद साहित्य और कला की रेस्टोरेशन कायम हुई ।
नेपाल के राजनीतिक अवस्था इतनी तरल हो चुकी है कि इसे कहीं भी मोडा जा सकता है । यह तरलता सही मायने में कहा जाय तो सरकारों की बद्तमिजी, नेताओं की भ्रष्ट नीति व आचरण, अधिकारियों की घुसखोरी व अकर्मण्यता, व्यापारियों की शुदखोर चरित्र, आयोगों की डकैती, राजनीतिक पार्टियों की अदूरदर्शिता, प्रशासन की गुण्डागर्दी के कारण ही है । नश्लीय सोंच, परिवारवाद, नातावाद, पैसावाद, जातिय व साम्प्रदायिक विभेद, आर्थिक दोहन, व्यक्तिगत अहंकार आदि भी इसके मूल कारण हैं ।
कोई भी पार्टी ठोस नहीं है । कोई नेता सन्तुष्ट नहीं है । सब एक दूसरे से त्रसित और परेशान हैं । ओली से प्रचण्ड त्रसित हैं, देउवा से रामचन्द्र हैरान हैं । उपेन्द्र से सुर्यनारायण यादव का अनवन है तो महन्थ राजेन्द्र परेशान हैं । सबसे बडी बात यह है कि जनता न तो राजनीतिक नेतृत्वों से खुश हैं, न राज्य प्रणाली से सन्तुष्ट ही । उसीका परिणाम है कि कभी हिन्दु राज्य की, तो कभी राजसंस्था पूनर्बहाली की बात होती है । भ्रष्टाचार को लेकर कभी ज्ञानेन्द्र शाही सतह पर दिखते हैं तो टिवी पर कभी रवि लामिछाने ।
ज्ञानेन्द्र शाही, रवि लामिछाने और शालिकराम पुडासैनीयों के नाम पर अभी जो राजनीतिक सियासत गर्म हो रहे हैं, यह ध्यान देने योग्य है । खास करके मधेश को । भ्रष्टाचार और व्यक्तिगत प्रगति के मुद्दों के कारण चर्चा में व्याप्त नेपाल के ये तीन चरित्र आज चर्चा के विषय बने हुए हंै । भ्रष्टाचार एक कोढ है । उसे हर हाल में समापप्त होना चाहिए । मगर भ्रष्टाचार का विरोध करने से भ्रष्टाचार खत्म नहीं हो जाता । जबतक भ्रष्ट लोग हैं, उसकी सम्पति सुरक्षित है, उसका रुतवा और शान बरकरार है, भ्रष्टाचार का अन्त होना असंभव है । मगर उन तीन चरित्रों के नाम पर उभरे भीड और आन्दोलन से मधेश को एक सवक लेना चाहिए कि भ्रष्टाचार के विरोध से अन्ततः लाभ किसको होना है । ज्ञानेन्द्र और रवि का भ्रष्टाचार विरोधी अभियान और खोजों से मधेश को क्या मिलने बाला है । सम्पन्न और हो रहे भ्रष्टाचारों से किन समुदायों को नोक्सान हुए हैं ? भ्रष्टाचार का खात्मा हो जाये तो किसे लाभ होगा ? क्या देश को ७८% तक राजस्व देने बाले मधेश को लाभ होगा जिसका राज्य में पहुँच मुश्किल से होता रहा है ? मधेश के उस ७८% रकम पर राज कौन करता है ? उसका अपचलन या सदुपयोग व दुरुपयोग कौन करता है ? हुए भ्रष्टाचारों से लाभ कौन ले रहा है ? उन भ्रष्टाचारों से गरीबी किसका घट रहा है और किसका बढ रहा है ? भ्रष्टाचार विरोधी अभियान और आन्दोलन क्या सही में आर्थिक अनियमितता को रोकने के लिए होगा या राजनीतिक परिवर्तन के लिए ? उस राजनीतिक बदलाव से भी कालान्तर में लाभ किसे होना है ? विचार यहाँ भी करना होगा । क्या मधेश का समस्या केवल भ्रष्टाचार है ?
राज्य, प्रहरी प्रशासन और उसके मीडियाओं के चरित्र को देखें तो वे अपने लिए कल्ह का नेतृत्व तैयार करने में लगे हैं । चाहे कोई राजतन्त्र पक्षधर हों या साम्यवादी । प्रजातन्त्र के पक्ष में हों या उदारवादी । गणतान्त्रिक हों या पूँजीवादी, मानव अधिकारवादी हों या सम्प्रदायवादी – सारे वादों के लोग अपने आने बाले कल्ह के लिए नेता निर्माण में लग चुके हैं । वे सब यह बखुवी जानते हैं कि उसके लिए न तो राजावाद, न पूँजीवाद, न तो साम्यवाद, न बिस्तारवाद कोई समस्या है । समस्या है तो केवल मधेशवाद । यह स्पष्ट है कि मधेश नेपाली राज्य का सबसे बडा सरदर्द है । वाकई नेपाल का राजनीति ही मधेश आधारित रहा है । अब तो और ज्यादा हो गया है ।
अभी बहुत से मधेशी यूवा, विद्यार्थी, बुद्धिजिवी, पत्रकार, शिक्षक, प्राध्यापक, विश्लेषक लोग अध्ययन और विश्लेषण करने लगे हैं कि एक ही राज्य में दो कानुन व न्याय प्रणाली कैसे संभव हो सकता है । काठमाण्डौ लगायत के पहाडी इलाकों व बस्तियों में होने बाले हिंसक आन्दोलनतक में राज्य पानी का फुहारा, हल्का दमन करती है, वहीं मधेश में न्यायपूर्ण अधिकारों के लिए हुए आन्दोलनों में मधेशियों के शर और छातियों में गोली मारी जाती हैं । चितवन के आनदोलन में प्रहरी घायल हों तो प्रहरी संयमित रहती हैं और जनकपुर में प्रहरी घायल हो जाये तो मधेशियों के उपर गोलियाँ चलती हैं ।

आत्महत्या करने को विवश करने जैसे अपराधिक मामले में अनुसंधान के लिए गिरफ्तार हुए रवि लामिछाने को बिना कोई हत्कडी अदालत में हाजिर कराया जाता है और शान्तिपूर्ण आन्दोलन कर रहे डा.सीके राउत और उनके समर्थकों के हाथों में हर अदालती व अस्पतालीय इलाजों के सिलसिले में हत्कडी लगायी जाती थी । अत्यधिक मतों से विजयी कैलाली सांसद रेशम चौधरी को अस्पताल में इलाज के दौरान पैरों में भारी जंजीरें लगाई जाती है । ज्ञानेन्द्र शाही से लेकर रवि लामिछाने तक को मीडिया में प्रचार हेतु उनसे बात करने सारे संचारकर्मी पहुँच जाते हैं । मगर मधेश आन्दोलन के शीर्ष नेताओं को मीडिया बदनाम करने के साथ ही उसका सही समाचार भी प्रशारण नहीं करती । निर्मला पन्त के बालात्कार घटना को मीडिया संसार भर में फैलााती है । मगर जलेश्वर की अञ्जली कुमारी के बारे में वह जानकारीतक रखने को अपना धर्म नहीं समझती । ज्ञानेन्द्र शाही और रवि लामिछाने के गिरफ्तारी पर हजारों की भीड लग जाती है । मगर मधेश की बदहवाली और उसके नेताओं के गिरफ्तारी पर नेपाली लोग तो खुशी मनाते ही हैं, बहुसंख्यक मधेशीतक को भी साँप सुंघ जाता है ।
मधेश ने अपने अधिकार, पहचान, सम्मान, मुक्ति तथा स्वतन्त्रता के लिए हर आन्दोलन में भाग लिया है । नेताओं को साथ दिया है । खर्चें दी है । समय दी है । विचार और प्राणतक दी है । मगर मधेश के शीर्ष नेताओं के साथ अधिकांश यूवा और बौद्धिक शक्तियों ने नेताओं के व्यक्तिगत विचलन, अपचलन, बेइमानी, नियतखोरी, अहंकार, शान शौकत, घमण्ड, लालच, बदनियतपूर्ण सम्झौते, कायरता, चालाकी, परिवारवाद, जाति, पैसा व नातावाद आदि को ही सम्पूर्ण उपलब्धि मानकर उनके साथ ही मधेश के हर आन्दोलन को धोखा देता रहा है । ऐसा लगता है जैसे मधेश में कोई तमाशा तो नहीं हो रहा है !
नेपाली पहाडी समुदाय व उसके लोग भले ही मधेश के नेतृत्व समेत को उल्लू बनाकर अपने भविष्य को नये ढंग से आगाज व सुरक्षित करना चाहते हों, उनसे मधेश को पाठ सिखनी ही चाहिए । अपने वंश और सन्तति के भविष्य के लिए अनेकानेक चाल और तिकरमवाजी करने बाले पहाडी समुदाय को बधाई और मधेशी समुदाय को सतर्क रहने और बदलते परिस्थति अनुसार योजनावद्ध और आन्दोलित रहने के लिए सादर निवेदन ।