Thu. Mar 28th, 2024

शहीदों की गरिमा सिर्फ शहीद दिवस में नहीं होता : कैलाश महतो


कैलाश महतो, पराशी | शहीद शब्द अपने आप में श्रद्धा का एक रुप है । शहीद शरीर से अशरीर और अशरीर में भी जागरुकता, बगावत, परिवर्तन व क्रान्ति प्रवाह का धार होता है । वह बोलता कुछ नहीं, बोलवाता सत्य है । सुनता कुछ नहीं, सुनाता बेमिशाल है । करता कुछ नहीं, करवाता विद्रोह है । होता प्राणहीन है, फूकता प्राण है । रहता श्मशान में, हावा देता है जान में । मिल जाता है मिट्टी में, तूफान लाता है बस्ती में । उनकी शहादत से परिवार में घाटा है, शासकों के लिए ताना है । सोने बालो के लिए मृत हैं, जगने बालों के लिए अमृत हैं । कायरों के लिए शान्त हैं, बहादुरों के लिए शान हैं । गुलामों के लिए जमाना हैं, परवानों के लिए खजाना हैं ।
वैसे शहीद का परिभाषा हम शब्दों में नहीं लगा सकते । फिरभी परिभाषा को ही माने तो हम यह कह सकते हैं कि किसी जन विश्वास, सामाजिक संरक्षण और देश व जनहित के खातिर अपना प्राण त्याग करने बाले को शहीद कहते हैं । वह समाज के हरेक बन्धनों से मुक्त और सारे धर्म, संस्कार, संस्कृति व आकांक्षाओं से उपर होता है । उसका न भूत होता है, न भविष्य । वह हमेशा वर्तमान को पे्ररित करता है । वह अशरीर होकर भी लाखों करोडों शरीरों को चलायमान बनाता है । शहीद का मूल उद्देश्य ही समाज को भविष्य दिखाना और उसको उन्नत बनाने का रहस्यमय शतिm प्रदान करता है ।
शहीद किसी निश्चित उद्देश्य के लिए अपनी कुर्बानी देता है । वह सारे जात, परिवार, धर्म व समुदाय का प्रेरणा होता है । वह निष्कलंक होता है । मगर दुःख तब होता है जब उनके शहादत पर राजनीति होती है, अशोभनीय और अनुचित लाभ लिये जाते हंै । उसे बेचा जाता है । कमाई का उसे श्रोत बनाया जाता है ।
अक्सर नेतृत्व का यही करने का इतिहास है कि वो कोई नयाँ मुद्दा उठाता है । उसे सामाजिकरण और जनकरण करता है । जनता उसे अपना उद्देश्य मानती है और उसे पाने की अपने में जूनून पैदा करती है । वह अपने विरोधियों से खुल्ला या भूमिगत लडाई लडता है और लडते लडते कभी कभार अपनी जानतक दे देता है । लेकिन बडी दुःख की बात है कि संसार के बहुत ऐसे शहीदों को अभागे बना दिये जाते हैं जो अपने प्राणों के तिलाञ्जली के बावजूद वे और उनका आत्मा प्यासा और अतृप्त रह जाता है । उन शहीदों के शहादतों के बल पर उसके नेतृत्वों को एक शतिm हासिल होती है । वह शतिm अन्तर्राष्ट्रियकरण होता है । उसका महत्व विशाल हो जाता है । थप शतिmयों की निर्माण प्रक्रिया शुरु होने लगता है । उस शतिm से राज्य त्रसित होने लगता है । तब जाकर राज्य उस शहीद के जिन्दा नेतृत्व से उसके शहादत का मोलजोल करता है । राज्य और आन्दोनकारी कहे जाने बाले नेतृत्व के बीच क्र्रय विक्रय की आधार तय होती है और अन्त में बडे चालाकी से पीछे के गलियारी से नेतृत्व एक रास्ता निकालकर अपने नेता और कार्यकताओं को चुना लगाकर सहमति सम्झौता कर कोई आन्दोलन को बेच देता है तो कोई मुद्दा को । कभी कभी तो नेतृत्व शहीद और उसके शहादततक को बेच डालता है ।
एक कवि ने अपने एक कविता में शहीदों के आत्म वेदना को व्यतm किया है । उस कविता में कवि ने यह दर्शाया है कि लडाईंयों के समय एक दूसरे का दुश्मन रहे सैनिकों की युद्ध मैदान में जब मौत हो जाती है, तो उनके मृत शरीरों को एक श्मशान घाट में दफनाया जाता है । लडते, मारते और मरते समय वे सिपाही अपने देश और सेनापतियों के नाम लेकर, देश की झण्डा अपने हाथों में लेकर बडे गर्व और आत्मसन्तुष्टि से दम तोडता है । उन्हें यह लगता है कि उनके शहादत के बाद उनका देश महान् बन जायेगा, जनता में खुशहाली छायेगी । उसके परिवारों की इजजत और सम्मान बढेगा । मगर शहीद हो चुके शहीदों के आत्मायें रातों में अपने अपने कब्र से बाहर निकल कर एक जगह बैठकर छलफल और विचार विमर्श करती हैं । अब वे दुश्मन देशों के एक दूसरे के खून के प्यासे सैनिक नहीं, बल्कि वे सारे के सारे एक समान रो रहे होते हैं । पश्चाताप् करते हैं और एक दूसरे पर सान्त्वना और सहानुभूति दर्शाते हैं । अब वे सारे पीडित आत्मायें हैं । उनकी पश्चाताप् यह है कि जिनके लिए और जिनके आदेश पर वे एक दूसरे को मारा था, आज वे सारे अपने कब्र में एक ही पीडा से रो रहे हैं और जिन नेताओं ने कभी एक दूसरे का दुश्मन होने के बात किये, आज वे सारे जीवित रहकर साथ में हँस रहे हैं, खुशियाँ मना रहे हैं ।
शहीदों की गरिमा केवल शहीद दिवसों में नहीं होती । शहीदों की शहादत पर साल में एक दिन उनके तस्वीरों पर फूल माला और उनके नाम पर लम्बे लम्बे लच्छेदार भाषण देने से पूरा नहीं होता, जिन मुद्दों के आन्दोलन में उनकी प्राण गयी हैं, उसका परिपूर्ति ही उनका सही सम्मान है । कहीं ऐसा न हो कि हम शहीदों के नाम पर फगत भजन करें, फूलमाला और रंग अबीर उनके तस्वीरों पर चढाते रहे और उनका आत्मा हमसे यह हिसाब माँगता रहे कि उस मुद्दा को तुमने छोडा है जिसके लिए हमने अपनी जानें दी हैं । हमारे परिवार और बच्चों का प्रतिष्ठा कहाँ पर है जिनके भविष्य के लिए हमने कुर्बानियाँ दी है ? हमारे उस समाज का हाल क्या है जिसके नाम पर हमने बगावत की थी ? वो नारा कहाँ खो गया जिसे हम चिल्लाकर गाते थे ? वह जनविश्वास क्यों मौन है जो जन जन में दिखायी देता था ? वो यूवा बूढा क्यों दिखायी देता है जो कभी जवानी को अपना तलवार समझता था । वो बुद्धिजिवी चूप क्यों जो किसी न किसी रुप में आन्दोलन का सहयोद्धा हुआ करते थे ? वो आशा क्यों धरमरा गयी जिसके लिए हम लडते थे ?
स्वतन्त्र मधेश गठबन्धन के एक साहसी वीर योद्धा नेता स्व. राम मनोहर यादव के शहादत के प्रथम पुण्य तिथि पर उन्हें हार्दिक श्रद्धाञ्जली ।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Loading...
%d bloggers like this: