Tue. Dec 3rd, 2024

अन्ना की आँधी:-

कुमार सच्चिदानन्द

भारत में भ्रष्टाचार के विरुद्ध जिस आँधी का सूत्रपात समाजसेवी अन्ना हजारे ने किया उसे न केवल भारत की करोड जनता का व्यापक र्समर्थन मिला वरन अन्तरास्ट्रियस्तर पर भी व्यापक चर्चा हर्इ। बारह दिनों के अविराम अनशन, दृढ इच्छाशक्ति और ७४ वर्षकी अवस्था में राष्ट्र के प्रति उनका र्समर्पण, त्याग और आत्म-बलिदान की आकांक्षा के आगे भारत के संसद और सरकार को झुकना पड। उनकी माँगों को समेटते हुए एक ऐसा कानून बनाने की वचनबद्धता जाहिर करनी पडÞी जिसकी सीमा में पंचायत सेवक से लेकर प्रधानमंत्री तक का समावेश हो सके और उनके विरुद्ध भ्रष्टाचार के मामलों की जाँच प्रस्तावित लोकपाल कर सके। यद्यपि कानून का निर्माण और इसका कार्यान्वयन ( यह एक लम्बी प्रक्रिया है। लेकिन इस सम्पर्ूण्ा घटना-क्रम ने यह तय कर दिया कि लोकतंत्र में जिस ‘लोक’ को चुनाव की बाद की परिस्थितियों में निरीह और लाचार समझ लिया जाता है, वास्तव में वह लोकतंत्र की शक्ति है और उसकी आकांक्षाओं का आदर करना लोकतांत्रिक सरकारों का नैतिक दायित्व है। जब उसका धर्ैय जबाब देता है और वह सडÞकों पर निकलकर असंतोष उगलने लगता है तो घुटने टेकना सरकार की मजबूरी बन जाती है।
समय-क्रम में संसदीय राजनीति में यह मनोविज्ञान उभर कर सामने आया कि सत्ता-संचालन के लिए जनता ने उन्हें प्रतिनिधित्व दिया है, इसलिए निर्धारित कार्यावधि में उनकी शक्ति सर्वोपरि है और उनकी सर्वोच्चता को कोई चुनौती नहीं दे सकता। इसी मनःस्थिति में जनता के नुमाइन्दे कर्त्तव्यों से च्यूत होते हैं और यही राजनैतिक भ्रष्टाचार की जमीन बनती है। लोकतंत्र शक्तिपृथक्करण के सिद्धांत पर विश्वास करता है और इसमें शक्ति के विभिन्न केन्द्र होते हैंं। लेकिन विधायी शक्तियाँ संसद में निहित होने के कारण इसकी सर्वोच्च्ता र्सवसिद्ध है। लेकिन जन-कल्याण, जन-सेवा, जन-भावना की उपेक्षा के कारण कभी-कभी लोकत्रांत्रिक ढंग से चुनी गई सरकारें भी विवादों में आती है और तानाशाहों जैसा व्यवहार करती है। यद्यपि आगामी निर्वाचन में जनता मतदान के द्वारा उन्हें अपना निर्ण्र्ाासुना सकती है, तथापि सवाल यह है कि तब तक आम लोग उनकी कारगुजारियों को मूकदर्शक बनकर देखता रहे या कार्यकाल के मध्य भी उसे दिशा-निर्देश करने के लिए सत्याग्रह जैसे उपायों को अपनाए – इसी पृष्ठभूमि पर अन्ना का अहिंसक आन्दोलन ने गति और दिशा ली।
अन्ना हजारे के नेतृत्व में सम्पन्न हुए इस सफल आन्दोलन की सबसे बडÞी विशेषता यह रही कि करोडÞों लोग सडÞक पर उतरे लेकिन दिल्ली में कुछ उद्दंडता के मामलों के अतिरिक्त और कोई अप्रिय घटना नहीं हर्ुइ। विरोध के भी नायाब तरीके का इजाद किया गया। ‘सबको सम्मति देने’ की भगवान से पर््रार्थना की गई। यह सच है कि सम्मति से व्यक्ति और समाज सुधरता है और यही सम्मति जब राजनेताओं को मिलती है तो राष्ट्र सबल होता है। लेकिन सम्मति के इस बयार से तो प्रारम्भ में तो भारतीय राजनीति  तटस्थ रहने की कोशिश की लेकिन इसके व्यापक प्रभाव को देखते हुए सम्मति मिलने का नाटक इन्होंने अवश्य किया और अब इस नाटक को वास्तविक जीवन में उतारना उनके राजनैतिक स्वास्थ्य के लिए आवश्यक है। सबसे बडÞी विडम्बना यह घटित हर्ुइ कि सत्य और अहिंसा के जिस अस्त्र को उठाकर महात्मा गाँधी ने भारत को स्वतंत्रता दिलायी, उसी को आज के राजनेताओं ने अप्रासंगिक कहा और एक तरह से अन्ना और उनके अहिंसक आन्दोलन का अवमूल्यन किया जो भारतीय राजनीति में गिरते हुए नैतिक स्तर का परिचायक है। दूसरी ओर अन्ना हजारे इस सम्पर्ूण्ा घटना-क्रम में गाँधी का पर्याय नहीं तो उनके पद-चिहृनों पर चलने वाले र्समर्थ गाँधीवादी नेता के रूप में न केवल भारत वरन विश्व में अपनी पहचान बनायी है और यह संदेश दिया है कि गाँधीवाद आज भी प्रासंगिक है।
अन्ना और उसकी टीम की यह मजबूरी थी वह सरकार पर दबाब बढाए। मुद्दा भ्रष्टाचार से जुडÞा था और इस मुद्दे पर अब तक की सरकार की कार्रवाइयों से यह स्पष्ट हो चुका था कि यह सरकार भ्रष्टाचार के मुद्दे पर तब तक कुछ नही करती जब तक उसकी थू-थू नहीं होती। इस दृष्टि से सरकार असहिष्णु प्रतीत हो रही थी। यही कारण था कि आन्दोलन के प्रति उनका उपेक्षा-भाव या संवेदनहीनता आम लोगों को ऊर्जा प्रदान करती रही और वे आन्दोलन को प्रबल से प्रबलतर बनाते जा रहे थे। अन्ततः झुकना सरकार की मजबूरी बन गई।
कोई ७४ वषोर्ं की उम्र में बारह दिनों तक अनशन का राज जानने की नेक सलाह चिकित्सकों को देकर उनका मखौल उडÞाने का प्रयास करता रहा। लेकिन जनता इन कुतर्कों से गुमराह नहीं हर्ुइ। यह सच है कि अन्ना आदमी हैं और देवता होने का उन्होंने दावा भी नहीं किया। इसलिए मानवीय कमजोरियाँ उनके व्यक्तित्व में भी हो सकती है, लेकिन उन्होंने जो मुद्दे उठाए, वे संवेदनशील और प्रासंगिक हैं, इसलिए उन्हें व्यापक र्समर्थन मिला और अन्ततः सफलता भी।
इस आन्दोलन की एक और विशेषता रही कि यह यह जाति, धर्म, सम्प्रदाय क्षेत्र और राजनैतिक विचारधारा(सबसे ऊपर थी। अन्ना के र्समर्थन में जो लोग सडÞकों पर निकले, उनमें उन सारे राजनैतिक दलों के र्समर्थक थे जिनका प्रतिनिधित्व भारतीय संसद में है और लोगों से र्सार्वजनिक तौर पर यह बयान देते सुना गया कि विगत चुनाव में उन्होंने अमुक पार्टर्ीीो वोट देकर गलती की है। इस प्रकार के बयान सरकार और आन्दोलन का विरोध कर रहे नेताओं को किसी न किसी रूप में आत्मचिंतन के लिए बाध्य किया जिसके कारण अन्न्ाा और उनकी टीम के प्रस्ताव पर भारतीय संसद ने न केवल चर्चा की वरन र्सवसममति से पारित भी किया और कानून बनाने के लिए उसे संसद की स्थायी समिति के पास भेज दिया। इस घटना-क्रम से आम लोगों के लिए यह संदेश गया है कि संसदवादी शक्तियाँ भी समय-समय में जब तानाशाहों जैसा व्यवहार करने लगती है तो उस पर अंकुश लगाने के लिए आमलोगों को सडÞक पर उतरना होता है और यह कार्यकर्ताओं से संभव नहीं। ऐसा वही लोग कर सकते हैं जो विभिन्न पार्टियों के र्समर्थक तो हो सकते हैं लेकिन जिनमें विवेक के आधार पर न्याय की बात करने और विरोध करने का माद्दा भी होता है। आम लोगों की यह चेतना लोकतंत्र को शक्तिशाली बनाती है।
अन्ना हजारे के इस आन्दोलन को संसद बनाम सिविल सोसाइटी के संर्घष्ा के रूप में भी व्याख्यायित किया गया। संसदीय शक्तियों ने ऐसे आन्दोलन को लोकतंत्र के लिए अशुभ संकेत माना। उनके इस दृष्टिकोण को पर्ूण्ातः औचित्यहीन भी नहीं माना जा सकता क्योंकि इससे उनकी सर्वोच्चता किसी न किसी रूप में प्रभावित होती है और भविष्य में भी ऐसे दबाब उन पर बन सकते हैं। दूसरा महत्वपर्ूण्ा तथ्य यह है कि संसार का कोई भी प्राणी अपने लिए बंधन स्वीकार नहीं करता लेकिन इस आन्दोलन ने यह बतला दिया कि समय-समय पर सिविल सोसाइटी संसद पर दबाब सृजना कर सकती है और संसद तथा सरकार को दिशा-निर्देश कर सकती है। लेकिन इस बात के लिए ये शक्तियाँ जितनी आशंकित हैं उसकी आवश्यकता नहीं क्योंकि अन्ना और उनकी टीम ने भ्रष्टाचार के विरुद्ध प्रभावकारी और व्यापक कानून बनाने की माँग सरकार और संसद से की थी। निश्चय ही सरकार और संसद को उन्होंने स्वयं से ऊपर समझा, इसलिए माँग उनसे की गई। एक आशंका यह भी उठायी जा रही है कि भविष्य में भी लोगों का ऐसा समूह तैयार हो सकता है जो संगठित होकर सरकार पर दबाब बनाने का काम करे। गौरतलब है कि नाजायज माँगों के र्समर्थन में ऐसा जन-समूह नहीं उमडÞता और नाजायज माँगों के आधार पर कोई व्यक्ति अन्ना हजारे की तरह जन-विश्वास भी नहीं प्राप्त कर सकता।
इस सम्पर्ूण्ा घटना-क्रम से यह बात साफ हो गई कि एक सही माँग को सरकार और संसद ने माँगी और एक लोकतांत्रिक राष्ट्र होने का मिसाल विश्व के समक्ष प्रस्तुत किया। यह भी सच है कि पाप-पुण्य, गलत-सही जैसे शब्द संश्लिष्ठ अर्थ प्रदान करते हैं। व्यापक स्तर पर, र्सवव्यापी रूप में जनता जो आवाज उठाती है उसका सम्मान लोकतांत्रिक शक्तियों का धर्म है। इस घटना-क्रम से यह भी बात उभर कर सामने आयी कि जिस तरह जनता के आग्रह को मानने के लिए संसद मजबूर हर्ुइ उसकी मिसाल मिलना मुश्किल है। संसद के दोनों सदनों में लोकपाल संबंधी अन्ना हजारे के तीन प्रस्तावों पर बहस के दौरान भ्रष्टाचार पर तो खूब भाषण हुए, लेकिन किसी ने यह स्वीकार नहीं किया कि राजनीति में भ्रष्टाचार किस हद तक बढÞता जा रहा है। किसी ने भी यह स्वीकार नहीं किया कि राजनीति में व्याप्त भ्रष्टाचार के कारण भी र्सार्वजनिक जीवन में भी इसकी जडÞें निरन्तर गहराती जा रही है। मौजूदा राजनीति न केवल भ्रष्टाचार का एक बडÞा स्रोत है वरन उसका संरक्षक भी है। यदि राजनैतिक दल भ्रष्टाचार के कारणों पर आत्म-मंथन नहीं करते तो भविष्य में उन्हें फिर ऐसे प्रचण्ड आन्दोलनों का सामना करना पडÞ सकता है और समय-क्रम में पूरी राजनीति ही प्रतिष्ठाहीन हो सकती है।
निश्चय ही यह घटना भारत की है लेकिन जो परिस्थितियाँ और मुद्दे हैं उन्हें नेपाल के सर्न्दर्भ में अप्रासंगिक भी नहीं कहा जा सकता। यह सच है कि नेपाल में ऐसा कानून उपलब्ध होने की बात की जा रही है जिसके लिए भारत में व्यापक आन्दोलन हुआ, लेकिन इतना तो माना जा सकता है कि कानून ही पर्याप्त नहीं होते, उसे कार्यान्वित करने की इच्छाशक्ति भी महत्वपर्ूण्ा होती है और इस दिशा में हमारे निकायों को अग्रसर होना चाहिए। इसके साथ ही संविधान-निर्माण के सर्ंदर्भ में विगत तीन वर्षो से नेपाल में जो राजनैतिक प्रहसन का मंचन लगातार होता जा रहा है, उससे मौजूदा संविधान-सभा तेजी से अपना जन-विश्वास गुमाती जा रही है। कभी भी जन-असंतोष उमडÞकर व्यापक विरोध का रूप धारण कर सकता है, जरूरत है एक अन्ना हजारे जैसे व्यक्तित्व की जो इस असंतोष को संगठित कर सके और उसे दिशा दे सके। लेकिन इतना तो कहा ही जा सकता है कि भारत की इस सकारात्मक घटना से शिक्षा लेकर हमारे लोकतंत्र, हमारी राजनीति और हमारे राजनेता को संवेदनशील बनने का प्रयास करना चाहिए।

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