घर का काम नही आसान, अब जाकर माने श्रीमान : सारिका अग्रवाल
लॉकडाउन का मजदूर
मजदूर दिवस पर लकड़ियां
बिनता एक नन्हा मजदूर दिखा
उसके माथे पर न चिंता की लकीर
न महामारी का खौफ दिखा
ईंधन के लिए मजबूर है
फिर भी बाहर निकलकर खुश है
मजदूर थक कर चूर है पर
अपना पसीना लगता उसको जन्नत का हूर है।
उसकी मेहनत की वो दो रोटी
होती अधपकी बडी मोटी-मोटी
क्षुधा शांत करने को है वो बेबस
ऐसे रोज मनाता होगा वो ये मजदूर दिवस
ऐसे रोज मनाता होगा वो ये मजबूर दिवस।

लॉकडाउन के हालात
घर का काम नही आसान
अब जाकर माने श्रीमान
आया झाड़ू पोछा जब हाथ
कृष्ण कन्हैया से बन गए भोलेनाथ
छुप गए आज सारे कहाँ
जो दिखाते थे रुबाब यहाँ
वायरस द्वारा हुए ऐसे हालात
मानव को दिखा दी असली औकात
ये महामारी है या नरभक्षी दानव
स्वयं घर में कैद हुआ है मानव
सामाजिक दूरी का जिसने रखा न ख्याल
झपटा महामारी ने फिर हुआ उसे मलाल
चकाचौंध में इंसान हुआ इतना अंधा
मारो और राज करो,बस बना उनका धंधा
भूल गया जग मे है वो भी मेहमान
क्रूरता से फिर ली क्यूँ लाखों की जान
नियम से बँधी प्रकृति, उसका नही कोई दोष
पालनहारी जग की जो,दिखाए कैसा वो रोष
हरियाली से सजी धरती, जीव हत्या पाप है
जो न समझे,समझो अब उसका विनाश है
घर मे रहो,हाथ को निरंतर साफ करो
बाहर जाकर बेवजह, महामारी से न मरो
अगर करते हो ,अपनी बीवी से प्यार
वो झाड़ू पोछा बर्तन से, कैसे करे इंकार।

बिर्तामोड