चीन ने सगरमाथा पर दावा करके एक छोटा सा ट्रेलर दिखाया है : कैलाश महतो

Chauvinism is a form of extreme patriotism and
नेपाल अभी एमसीसी, कालापानी, सगरमाथा, सांसद अपहरण, कोरोना महामारी, राहत अनियमितता, स्वास्थ्य सामग्री भ्रष्टाचार, वायु सेवा निगम घोटाला, चीनियाँ नागरिक द्वारा नेपाल प्रहरी पर आक्रमण, भाजपा द्वारा प्रधानमन्त्री ओली पर भारतीय प्रधानमन्त्री मोदी पुत्ला दहन पर आक्रोश जैसे अनेक समस्याओं से घिरी पडी है । एक तरफ सुरक्षित कहे जाने बाले नेपाली भू-भाग में दिन प्रति दिन कोरोना संक्रमितों की संख्या में भारी इजाफा हो रही है, तस्करों का साम्राज्य फैलता जा रहा है, वहीं दूसरी ओर नेपाल के कहे जाने बाले कालापानी भारत द्वारा कब्जा किया जाना और नेपाल व नेपालियों का शान माने गये सगरमाथा को चीन द्वारा उसका होने का दावा पेश होना काफी गंभीर चुनौती बन चुका है ।
वैसे नेपाल भारत मैत्री सन्धि सन् १९५० के तुरुन्त बाद सन् १९५२ में भारतीय सेना कालापानी क्षेत्र में अपनी एण्ट्री कर दी थी जब नेपाल के प्रधानमन्त्री मातृकाप्रसाद कोइराला थे । पत्रकार नारायण वाग्ले के अनुसार सन् १९६२ में भारतीय सेना कालापानी में पूर्णत: अपना सैन्य ब्यारेक स्थापना कर चुकी थी । विभिन्न अध्येता, सीमा विज्ञ व बुद्धिजिवियों के अनुसार भी सन् ५०-६० के दशकों में कालापानी भारतीय सेना के कब्जे में पड चुका था । सन् १९९९ में भारतीय विदेशमन्त्री जसवन्त सिंह ने चीन भ्रमण के दौरान लिपुलेक को भारत और चीन के बीच व्यापारिक केन्द्र बनाने के लिए चीन के साथ द्विपक्षीय सम्झौता किया था । उसी वर्ष से भारत चीन जोडने हेतु लिपुलेक होकर सडक निर्माण कार्य भी प्रारम्भ हुआ था । एेसी बात नहीं है कि जनस्तर से इसका विरोध नहीं हुआ था । जनस्तर से कालापानी पर तैनाथ भारतीय हस्तक्षेप पर बारम्बार विरोध हुए । मगर उन विरोधों पर नेपाल सरकार ने कभी कोई गंभीरता नहीं दिखाई ।
सन् १८६० में इष्ट इन्डिया कम्पनी सरकार द्वारा भारतीय विद्रोह दवाने के एवज में नेपाल को बाँके, बर्दिया, कैलाली और कंचनपुर के इलाके पुरस्कार स्वरुप प्रदान करने के पश्चात सन् १८६५ में तत्कालीन भारत ने अपना नक्शा प्रकाशित किया था । यह बात भारत के एक भू-विश्लेषक का कहना है । उनके अनुसार उस नक्शे के अनुसार कालापानी, लिम्पियाधुरा और लिपुलेक लगायत के सारे भू-भाग भारत का होता है । भारतीय पक्ष भी उसी सुगौली सन्धी की बात करता है जिसका जिक्र नेपाल करता है । गौर करने बाली बात यह है कि अंग्रेजों के शासन काल में सन् १८६० से १९४७ तक किसी प्रकार कोई विवाद न रहने बाले कालापानी, लिपुलेक व लिम्पियाधुरा पर भारतीय कब्जा होनेतक नेपाल के तरफ से किसी प्रकार की कुटनीतिक पहल न होना किसी न किसी प्रमाण का पक्षपोषण करता है । अभी हाल फिलहाल ही भायरल हो रहे एक भारतीय भिडियो में एक विश्लेषक ने यहाँतक कहा है कि भारत द्वारा निर्मित कालापानी होते हुए कैलाश मान सरोवरतक सडक को लेकर नेपाली पक्ष को थोडा चिरचिराहट हुआ है । नेपाली राजनीति में भी तरंग पैदा हुआ है जो समय रहते ही शान्त हो जायेगा । कुछ संवाद की जरुरत है । जहाँतक कालापानी नेपाल का होने की बात है, वह होना उन्होंने असंभव ही कहा है । उनके अनुसार वह सारा भारतीय भू-भाग है ।
अक्कल के मारे नेपाली कुछ लोग एेसे हैं जो हमेशा मधेशी समुदाय के उपर किचड उछालने में ही अपना देशभक्ति मानते हैं । मधेशी हिन्दी बोले तो देशद्रोही । भारतीय लोगों से उनका चेहरा मोहरा और रहन सहन मिले तो इण्डियन । खुल्ला सीमा पर मधेशियों को दु:ख पहुँचाने के उद्देश्यों से तारबार लगाने की रट । ये सब बदतमिजिय राष्ट्रिभक्ति नहीं तो और क्या है ? जो दिल्ली के बिना सांसतक नहीं ले पाते, दिल्ली के बिना सरकार नहीं बना पाते, दिल्ली के बिना जिन्दा रह नहीं पाते, वे अर्ध पागल देशभक्त लोग मधेशी समाज को भारत और दिल्ली से जोडकर नफरत फैलाते रहे हैं । आज इस लकडाउन के हालात में भी वे ही नपुंसक देशभक्त लोग भारतीय सीमाओं से अरबों की तस्करी और भ्रष्टाचारों में लिप्त हैं । मगर मधेशी पर भारत परस्त होने का इल्जाम लगाने में वे थोडा भी जगह नहीं छोडते । अगर नियत में सुधार न आया तो भारतफोबिया और अन्ध देशभक्ति ही नेपाल को ले डुबेगा ।
भारत से सटे सीमाओं पर अपने जमीनों को रक्षा करने के लिए मधेशी अपनी खून की बाजी लगाता रहा है । चाहे वह तिलाठी हो, ठोरी हो, सुस्ता हो, नौतनवा हो, छपकैया हो, आदि इत्यादि । सीमा सुरक्षा का जिम्मेवारी में रहे बहादुर नेपाली सुरक्षाकर्मी या सेना ने मधेशियों पर आर्थिक, शारीरिक, सामरिक, सामाजिक, मानसिक और राजनीतिक अत्याचार करने के आलावे सीमा सुरक्षा करने की कोई हैसियत नहीं रखता । सीमा से लेकर मधेश के गाँव बस्ती समेत में लूट मचाना अगर सीमा सुरक्षा है तो फिर एेसे सुरक्षाकर्मी मधेश में नहीं चाहिए । मधेश अपने भूमियों की सुरक्षा खुद कर लेगा ।
देश की सीमा स्थायी रुप से भारत और चीन के द्वारा कहीं अतिक्रमित है तो वह सिर्फ पहाडी इलाकों में है । कालापानी, लिपुलेक, लिम्पियाधुरा, मनाङ्ग, मुस्ताङ, हुम्ला जैसे चीन नियन्त्रित तिब्बत से सटे नेपाल के कई भागों में नेपाली भूमि का अतिक्रमण हुआ है । सगरमाथा को चीन द्वारा चीन का होने का दावा किया जाता है । यह खुल्ला संकेत है कि कोरोना के इस महामारी के चक्रव्यूह के कारण चीन ने सगरमाथा पर एक छोटा सा ट्रेलर दिया है । देशभक्तों का देशभक्ति इसी कदर रहा तो कालापानी के तरह ही सगरमाथा नेपाल का होने का एक झगडालु, मगर हारा हुआ इतिहास बन जायेगा । मगर नेपाली अन्ध देशभक्त लोग जितना मधेशियों को सीमा अतिक्रमण से जोडते हैं, चीन की बारी जब आती है तो चुप्पी इस तरह बरत लेते हैं मानों उसे साँप सुंघ गया हो । ताजा नतीजा सामने है कि हाल फिलहाल ही देश के शासन और प्रशासन के केन्द्रीय महल के सामने संसार में परम् वीर चक्र से नमाजे गये दुनियाँ में किसी से हार न मानने बाले बहादुर गोर्खाली सिपाहियों को दौडा दौडा कर उसके हाथों से उसकी लाठियाँ तानते हुए उसके गिरेवान पकडकर लाठी, मुक्के और घुस्सों से राम धुलाई चीनी नागरिकों ने दिन दहाडे कर दी और राज्य तमाशा बनकर देखता रह गया । वहीं अगर कोई मधेशी या भारतीय होता तो उसके शर और सीनों पर गोलियाँ दागी जाती ।
फेसबुक पर सुदिप राज कुशवाहा ने अपने स्टेटस पर कालापानी के सम्बन्ध में “मिचेको हो कि बेचेको हो ?” और पाण्डे रवि ने “घरको सामान चोरले चोरीसक्दा पनि ढोकामा बस्ने कुकुर भुकेन भने सम्झनुपर्छ कि कुकुरले चोरबाट हड्डी पाइसकेको छ : सन्दर्भ लिपुलेक ।” लिखा है । यह दो छोटे आलेख नेपालीपन और उसके देशभक्ति के नपुसंकता को बहुत स्पष्ट रुप से खुलासा करता है । नेपाली दाबे के अनुसार अगर कालापानी, लिपुलेक और लिम्पियाधुरा नेपाल के जमीने हैं तो फिर २१ सालों से जिस भूमि पर सडक बन रही थी, देशभक्त नेपाली और उसके बहादुर सेना व सुरक्षाकर्मी क्या कर रही थी ? राज्य कहाँ मरी पडी थी ?
कुछ कायर नेपाली देशभक्त सिर्फ मधेशी जनता और मधेशी नेताओं के उपर छींटा फेकते रहते हैं कि देश की जमीन भारत द्वारा कब्जा होने पर मधेशी नेता और मधेशी जनता चूप क्यों ? उन्हें आँख खोलकर देखना चाहिए कि राज्य का सुरक्षा का जिम्मेवारी लिए उसके बहादुर लोगों के असहयोग के बावजूद मधेशी उन सीमा इलाकों को अपने जान पर खेलकर सुरक्षित रखने के काम कर रहे हैं । मधेशी यूवाओं को अगर सीमा सुरक्षा का पूर्ण जिम्मेवारी मिले तो देश के किसी अथेन्टिक भू-भाग को सुरक्षा करने में अब्बल सावित होंगे । कालापानी लगायत देश के किसी भी भाग, सम्पदा, सम्पत्ति, नदीनाला, यूवा, पानी, जवानी, जंगल, पहाड आदि का सौदाबाजी करने बाला कोई मधेशी है ? वे सारे के सारे वही देशभक्त बहादुर गोर्खाली नेपाली हैं । जो देशभक्त नेपाली मधेशी जनता और नेता पर टौन्ट कसते हैं, पहले अपने गिरेवान में झाँककर देखें ।
जहाँतक मधेशी नेता व जनता की बात है तो यह भी एक अहम् सवाल है कि मधेशी जनता और नेता की बात राज्य ने कभी सुना है ? क्या राज्य ने उसे अपने होने के दृष्टिकोण से कभी देखा है ? कोई बात किया है ? राज्य ने क्या मधेशी समुदाय को राज्य के उन जिम्मेवार स्थानों पर रखने की इमानदारी दिखाई है ? और सबसे अहम् बात तो यह कि राज्य ने जो और जितने भी राष्ट्रिय अन्तराष्ट्रिय सम्झौते, समझदारी, सौदेबाजी और देश के राष्ट्रिय सम्पादाओं की बिक्री गिरवी की है, उससे मधेश और मधेशी जनता को घाटा और अपमान के आलावा कौन सा लाभ हुआ है ? राज्य ने जितने भी राष्ट्रिय और अन्तर्राष्ट्रिय बिक्री, गिरवी, सौदेबाजी, जनदोहन, तस्करी, अनियमितता, भ्रष्टाचार, घुसखोरी आदि की है, उनसे तो नेपाली शासक वर्ग और अपने देशभक्त नेपाली को ही लाभें दी हैं ।
जब मधेशी जनता के खून से होली खेल कर अन्ध राष्ट्रभक्त लोगों को लाभ होता रहे तो देशभक्ति और राष्ट्रभक्ति नहीं सुझता । मगर मधेशी देश हित के लिए भी जब कोई बात करें, उचित राजनीतिक माँग रखें तो वे देशद्रोही हो जाता है । क्या मधेशी जनता या उसके नेता द्वारा उठाये गये बातों पर राज्य ने कभी ध्यान दिया है जो आज वह कुछ बोले ? वे बोले क्यों जब उसके किसी बात पर भरोसा नहीं ? मधेश को तो सही में तब बोलना उचित होगा जब वह अधिकार, समानता और भातृत्व के लिए नहीं, उसके आवाज को भी नेपाली आवाज माना जायेगा ।
कोई भूखा आदमी सैनिक अखाडे, नंगा आदमी घर से बाहर और अन्धा किसी मेले में धरल्ले से नहीं जाता । जो मधेशी अपने पहचान और अवसर के लिए तरस रहा है, उसके आवाज को दुनियाँ कैसे सुनेगी ? क्यों सुनेगी ? जो अपने घर में अतिक्रमित है, जिसकी पहचान पर घर (देश) में संदेह हो, वह भला बाहर क्या बात करेगा ? मधेशी वही चाहता है कि देश उसकाे भी बोलने की, सोंचने की, व्यवहार करने की, सहभागी होने की समान अवसर दें ता कि वह जीवन के प्राथमिक समस्याओं से उपर उठकर वह भी अन्तर्राष्ट्रिय स्तर पर देश की बात कर सकें । जिस दिन मधेशियों को विश्वास के साथ राज्य उसे देश की नीति निर्माण में सहभागी करवायेगा, नेपाल का कोई भी भू-भाग किसी के द्वारा अतिक्रमित नहीं हो सकता । हो भी जाय तो वह कालापानी, लिम्पियाधुरा, लिपुलेक, सगरमाथा, मुस्ताङ आदि के अतिक्रमण जैसे वर्षोंतक नहीं टिक सकता । यही नंगा सत्य है ।