माँ छिपकर कोने में रो लेती पर, मेरी आँखों को रोने न देती : अश्विनी कुमार पांडेय
एकपल वह हुआ करता था,
सिर्फ खुशियाँ हुआ करती थीं ;
झरने-सी बहती आँखें भी तो,
जादूमंत्र -सा सुख जाती थीं ।
सर एकबार जो सहला देती वह
नींद भागती चली आती थी,
हरपल छलकती ममता तब भी
गिनती में कहाँ समा पाती थी !

अब, जब नींद नहीं आने लगती
सर्वस्व ले निकल पड़ता बाजार में,
‘ममता की पोटली उपलब्ध नहीं’
कहती ही मिलती दुकाने कतार में।
माँ जो तू आज भी होती तो ,
मेरी हर विपदा पहचान लेती ;
छिपकर कोने में रो लेती पर ,
मेरी आँखों को रोने न देती !
अश्विनी कुमार पाण्डेय
भागलपुर बिहार